नवंबर 1879 में वसुदेव बलवंत फड़के के बारे में अमृत बाजार पत्रिका ने लिखा था –‘’उनमें वे सब महान विभूतियां समाहित थी जो संसार में महत्कार्य सिद्धि के लिए भेजी जाती हैं। वे देवदूत थे। उनके व्यक्त्वि की ऊंचाई सामान्य मानव के मुकाबले सतपुड़ा व हिमालय से तुलना जैसी अनुभव होगी।” आज 'वसुदेव बलवंत फड़के' की जन्म जयंती है, लिहाजा आज की इस कड़ी में हम आपको उसी महानविभूति के जीवन से जुड़े दिलचस्प किस्सों से परिचित कराएंगे।
ब्रिटिश शासन के खिलाफ क्रांति
साल 1850 के आते आते ईस्ट इंडिया कंपनी का देश के बड़े हिस्से पर कब्जा हो चुका था। जैसे-जैसे ब्रिटिश शासन का भारत पर प्रभाव बढ़ता गया, वैसे-वैसे भारतीय जनता के बीच ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष भी फैलता जा रहा था। प्लासी के युद्ध के सौ साल बाद ब्रिटिश राज के दमनकारी और अन्यायपूर्ण शासन के खिलाफ असंतोष एक क्रांति के रूप में भड़कने लगा, जिसने भारत में ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की बात करें तो इससे पहले देश के अलग-अलग हिस्सों में कई घटनाएं घट चुकी थीं। जैसे कि 18वीं सदी के अंत में उत्तरी बंगाल में संन्यासी आंदोलन और बिहार एवं बंगाल में चुनार आंदोलन हो चुका था। 19वीं सदी के मध्य में कई किसान आंदोलन भी हुए।
1770 से लेकर 1857 तक पूरे देश के रिकॉर्ड में अंग्रेजों के खिलाफ 235 क्रांतियां-आंदोलन हुए, जिनका परिपक्व रूप हमें 1857 में दिखाई देता है। 1770 में बंगाल का संन्यासी आन्दोलन, जहां से वंदे मातरम निकल कर आया। 150 संन्यासियों को अंग्रेजों की सेना गोली मार देती है। जहां से मोहन गिरी, देवी चौधरानी, धीरज नारायण, किसान, संन्यासी, कुछ फकीर, ये सभी मिलकर क्रांति में खड़े हुए जिन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम किया था और इसी क्रांति को दबाने में अंग्रेजों को तीस बरस लग गए। जहां से भारतीय राष्ट्रवाद की सबसे बड़ी नींव पड़ी, 1857 से पहले किसानों, जनजातियों तथा आम लोगों का अंग्रेजों के खिलाफ बहुत बड़ा आंदोलन रहा है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत की आजादी की लड़ाई आम जनता के हाथों में आने लगी थी।इस क्रान्ति के सबसे पहले नायक थे बासुदेव बलवंत फड़के। (Revolutionary Vasudev Balwant Phadke)
संक्षिप्त परिचय
वासुदेव का जन्म 4 नवंबर, 1845 को ग्राम-शिरढोण (पुणे) में हुआ था। उनके पूर्वज शिवाजी की सेना में किलेदार थे, पर इन दिनों वे सब किले अंग्रेजों के अधीन थे। उनका बचपन कल्यान में बीता। पढ़ाई समाप्त करने के तुरंत बाद उन्होंने बतौर क्लर्क नौकरी की, जहां उन्हें उस समय 60 रुपए प्रतिमाह वेतन मिलता था। इधर छोटी अवस्था में ही वासुदेव का विवाह हो गया था और कुछ वक्त बाद वे एक बेटी के पिता भी बन गए। हालाँकि इसी बीच उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया, लिहाजा बच्ची की देखभाल के लिए उन्हें दूसरा विवाह करना पड़ा। पुणे में उन दिनों अखाड़े लगते थे। वासुदेव फड़के अक्सर प्रात:-सायंकाल अखाड़ों में जाया करते थे। अखाड़ो में कुश्ती के दांव-पेंच सीखते। वह प्रतिदिन 300 दंड-बैठकें निकालते। अखाड़ेबाजी में फड़के के साथी ज्योतिबा फुले थे, जो महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध समाज-सुधारक नेता हुए। उनके अलावा वह गोविंद रानाडे से भी काफी प्रभावित थे।
वासुदेव नौकरी से खुश बिल्कुल भी नहीं थे। लेकिन उन्हें इस बात का एहसास हुआ जब उनके साथ एक घटना घटित हुई। दरअसल एक दिन बासुदेव की मां काफी बीमार थी, अंतिम समय में वे अपने बेटे से मिलना चाहती थी। इधर वासुदेव कलर्क की नौकरी करते थे, जिसके कारण उन्हें छुट्टी की बहुत समस्या रहती थी। वासुदेव को जब माँ की हालत के बारे में जानकारी हुई तो उन्हें छुट्टी मांगी लेकिन अंग्रेज अफसर ने छुट्टी देने से मना कर दिया। वो अगले दिन बिना छुट्टी के घर निकल गए लेकिन इतनी देर हो गई कि अंतिम वक्त में भी वो अपनी मां से ना मिल सके। यहाँ पहली बार उनकी समझ में आया कि गुलामी क्या होती है और उन्होंने इस गुलामी से मुक्ति का प्रण ले लिया।
अंग्रेजी हुकूमत से आजादी का प्रण
वासुदेव बलवंत फड़के नौकरी छोड़ने के बाद महादेव गोविन्द रानडे तथा गणेश वासुदेव जोशी जैसे देशभक्तों के सम्पर्क में आकर ‘स्वदेशी’ का व्रत लिया और पुणे में जोशीले भाषण देने लगे। वर्ष 1876-77 में महाराष्ट्र में भीषण अकाल और महामारी का प्रकोप हुआ। शासन की उदासी देखकर उनका मन व्यग्र हो उठा। वासुदेव के लिए इन स्थिति को देखते हुए भी अब शान्त बैठना असम्भव था। उन्होंने पुणे के युवकों को एकत्र करना शुरू कर दिया और उन्हें सह्याद्रि की पहाड़ियों पर छापामार युद्ध का अभ्यास कराने लगे। हाथ में अन्न लेकर ये युवक दत्तात्रेय भगवान की मूर्ति के सम्मुख स्वतन्त्रता की प्रतिज्ञा लेते थे।
'सभी बिमारियों का एक इलाज स्वराज'
वासुदेव के कार्य की तथाकथित बड़े लोगों ने उपेक्षा की, पर पिछड़ी जाति के युवक उनके साथ समर्पित भाव से जुड़ गए। ये लोग पहले शिवाजी के दुर्गों के रक्षक होते थे, पर अब खाली होने के कारण चोरी-चकारी करने लगे थे। मजबूत टोली बन जाने के बाद फड़के एक दिन अचानक घर पहुंचे और पत्नी को अपने लक्ष्य के बारे में बताकर उससे सदा के लिए विदा ले ली। स्वराज्य के लिए पहली आवश्यकता शस्त्रों की थी। वासुदेव ने नारा दिया, ‘अंग्रेजों ने जितनी बीमारियां अब तक देश को दी हैं, उन सारी बीमारियों का एक ही इलाज है—स्वराज।' वासुदेव ने सभी अकाल ग्रस्त इलाकों का दौरा करना शुरू कर दिया।वे अकाल ग्रस्त इलाकों में जाते और लोगों से स्वराज के लिए लड़ाई की अपील करते। लेकिन वासुदेव को अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। गुलामी दिमाग में घर बना चुकी थी। उन दिनों एक प्रभावशाली संत हुआ करते थे, अक्कालकोट (शोलापुर) के समर्थ महाराज, वासुदेव ने उनसे सहयोग और आर्शीवाद मांगा, समर्थ महाराज ने उनसे तलवार लेकर एक पेड़ पर रख दी और कहा कि सशस्त्र क्रांति के लिए ये उपयुक्त समय नहीं है, लेकिन वासुदेव ने पेड़ से तलवार वापस उठाई और निकल गए।
उन्होंने दिन रात एक कर के 300 से ज्यादा ऐसे युवाओं की आर्मी तैयार की, जो देश पर जान न्यौछावर करने को तैयार थे। उन्हें लगा अंग्रेजों से उन्हीं की भाषा में बात करनी होगी, क्रांति बिना खून बहाए नहीं होगी। भगत सिंह, आजाद, वीर सावरकर और बिस्मिल खान से सालों पहले उन्होंने ये मान लिया था कि अंग्रेजों में ये खौफ भरना होगा कि इस देश में राज करोगे तो लाशें गिनने के लिए भी तैयार रहो। अब ये रोज का काम हो गया। अकाल से पीड़ित गांवों में किसानों की सूची बनाई जाती, फिर अंग्रेजी सरकार के पैसों के कलेक्शन सेंटर्स की सूची बनती, रेड होती, अपने खर्च का पैसा निकालकर बाकी पैसा गरीबों में बांट दिया जाता। हथियार अपने पास रख लिए जाते। अंग्रेजी सरकार ने वासुदेव बलवंत फड़के को डकैत घोषित कर दिया और गांव वालों ने देवता।
वासुदेव को गिरफ्तार करने की योजना
पर बहुत जल्द ही वासुदेव की इन गतिविधियों की खबर ब्रिटेन तक पहुँच गई। इधर भारत में भी ब्रिटिश शासन चौकन्ना हो गए। लिहाजा ब्रिटिश शासन ने मेजर डेनियल को आदेश दिया कि वे वासुदेव फड़के को किसी भी हालत में गिरफ्तार करे। डेनियल ने वासुदेव फड़के को गिरफ्तार करने के लिए योजना बनाई। उसने ऐलान किया कि जो भी वासुदेव फड़के को पकड़वाने का काम करेगा उसे 4,000 रूपए का पुरस्कार दिया जाएगा। यहाँ एक बात स्पष्ट कर दें की इनाम की राशि अलग अलग जगह पर अलग तरह से दी गई है। लेकिन ये सत्य है कि उन दिनों तक किसी भी क्रांतिकारी के ऊपर इतना बड़ा इनाम घोषित नहीं किया गया था। लेकिन इस बीच सबसे रोचक मामला अगले दिन देखने को मिला। एक तरफ फड़के के सिर पर इनाम घोषित किया जा रहा था वहीं दूसरी तरफ मुंबई की गलियों में फड़के को गिरफ्तार करने की योजना बना रहे डेनियल का सिर काटने वालों के लिए 50,000 रूपए का इनाम घोषित कर दिया गया।
स्वाधीनता का सपना लिए त्याग दिए प्राण
इन सब के बीच किसी धोखेबाज ने वासुदेव को पता बता दिया जिसके बाद डेनियल की फ़ौज ने वासुदेव के ठिकानों पर छापा मारा। फड़के के कई साथी मारे या पकड़े गए थे, थके हारे फड़के अकेले पंढरपुर के रास्ते में 20 जुलाई 1879 को एक देवी मंदिर में रुके। फड़के की सूचना किसी ने डेनियल को पहुंचा दी और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। डेनियल ने उनकी छाती पर बूट रखकर पूछा, क्या चाहते हो, फड़के ने मुस्कराकर जवाब दिया, ‘तुमसे अकेले तलवार के दो दो हाथ करना चाहता हूं’। उन्हें आजीवन कारावास की सजा देकर अंदमान भेज दिया गया। मातृभूमि की कुछ मिट्टी अपने साथ लेकर वे जहाज पर बैठ गए। जेल में अमानवीय उत्पीड़न के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। एक रात वे दीवार फांदकर भाग निकले, पर पुलिस ने उन्हें फिर पकड़ लिया। अब उन पर भीषण अत्याचार होने लगे। उन्हें क्षय रोग हो गया, पर शासन ने दवा का प्रबन्ध नहीं किया। 17 फरवरी, 1883 को इस वीर ने शरीर छोड़ दिया। मृत्यु के समय उनके हाथ में एक पुड़िया मिली, जिसमें भारत भूमि की पावन मिट्टी थी।