देश की सीमाओं को दुश्मनों के नापाक हाथों से बचाने के लिए अपना अपने प्राणों की आहुति देने वाले अमर बलिदानी सैनिकों की गौरवमयी परंपरा रही है। माँ भारती के ऐसे ना जाने कितने ऐसे अनगिनत वीर सपूत रहे हैं जिन्होंने देश की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। कुछ ऐसे ही वीर बलिदानी सपूतों में से एक 22 वर्षीय कैप्टन सौरभ कालिया थे, जिनके अमर बलिदान को कृतज्ञ राष्ट्र कभी विस्मृत नहीं कर सकता।
कैप्टन सौरभ कालिया भारतीय थलसेना के ऐसे जांबाज़ ऑफिसर थे, जिनकी कहानी के बिना 'कारगिल युद्ध' की कहानी शुरू ही नहीं हो सकती। जिन्होंने कारगिल युद्ध के दौरान अपने अदम्य-साहस और वीरता की मिसाल कायम की थी। वही कैप्टन सौरभ कालिया जिन्हें कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा बंदी बनाकार बुरी तरह से यातनाएं देकर बलिदान कर दिया गया। 1999 में कारगिल युद्ध से पहले कारगिल जिले के काकसर लंगपा इलाके में गश्त अभियान चलाया गया था। सौरभ कालिया लेफ्टिनेंट के पद पर थे। नियंत्रण रेखा के उस पार से भारतीय हिस्से में पाकिस्तानी सैनिक बड़े पैमाने पर घुसपैठ कर रहे थे। 14 व 15 मई को अपने 5 साथियों के साथ पेट्रोलिंग पर निकले थे। उन्होंने काकसर क्षेत्र में घुसपैठ को रोकने के लिए 13000-14000 फीट की ऊंचाई पर बजरंग पोस्ट का गार्ड संभाला।
सौरभ कालिया का जन्म 29 जून 1976 को अमृतसर, में हुआ था। इनकी माता का नाम विजया कलिया व पिता का नाम डॉ॰ एन॰ के॰ कालिया है। इनकी प्रारंभिक शिक्षा डी॰ए॰वी॰ पब्लिक स्कूल पालमपुर से हुई। इन्होंने स्नातक उपाधि (बीएससी मेडिकल) एच.पी कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर, हिमाचल प्रदेश से सन् 1997 में प्राप्त की। वे अत्यंत प्रतिभाशाली छात्र थे, और अपने स्कूल के वर्षों में कई छात्रवृत्तियाँ प्राप्त कर चुके थे।
अगस्त 1997 में संयुक्त रक्षा सेवा परीक्षा द्वारा सौरभ कालिया का चयन भारतीय सैन्य अकादमी में हुआ, और 12 दिसंबर 1998 को वे भारतीय थलसेना में कमीशन अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए। उनकी पहली तैनाती 4 जाट रेजिमेंट (इन्फ़ॅण्ट्री) के साथ कारगिल सॅक्टर में हुई। 31 दिसंबर 1998 को जाट रेजिमेंटल सेंटर, बरेली में प्रस्तुत होने के उपरांत वे जनवरी 1999 के मध्य में कारगिल पहुँचे।
सौरभ की नौकरी को कुछ ही महीने हुए थे। वह कारगिल में अपने साथियों के साथ अपनी पोस्ट पर मुस्तैद थे। इसी बीच 15 मई 1 999 को उन्हें एक खुफिया सूचना मिली। जिससे पता चला कि पाकिस्तानी घुसपैठिये भारतीय सीमाओं की ओर बढ़ रहे थे। ये बहुत महत्वपूर्ण सूचना थी, घुसपैठिये किसी भी बड़ी दुर्घटना को अंजाम दे सकते थे। सौरभ ने इसको गंभीरता से लेते हुए अपनी तफ्तीश शुरु कर दी। वह अपने पांच अन्य सैनिकों अर्जुन राम, भंवरलाल बागारीया, भिका राम, मूल राम और नरेश सिंह के साथ पेट्रोलिंग पर निकल गये। उन्हें इस बात की फिक्र नहीं थी कि दुश्मन कितनी संख्या में है। उन्हें तो बस अपने देश की और अपनी ड्यूटी की फिक्र थी।
तेजी से उन तक पहुंचने के लिए सौरभ अपने साथियों के साथ आगे बढ़े। वह जल्द ही वहां पहुंच गए जहां दुश्मन के होने की खबर थी। पहले तो सौरभ को लगा कि उन्हें मिला इनपुट गलत हो सकता है, लेकिन दुश्मन की हलचल ने अपने होने पर मुहर लगा दी। वह तेजी से दुश्मन की ओर बढ़े। तभी दुश्मन ने उन पर हमला कर दिया। दुश्मन संख्या में बहुत ज्यादा था।
दुश्मन तकरीबन 200 की संख्या में था। सौरभ ने स्थिति को समझते हुए तुरंत अपनी पोजीशन ले ली। दुश्मन सैनिकों के पास भारी मात्रा में हथियार थे। वह AK 47, ग्रेनेड जैसे विस्फोटक थे। इधर सौरभ और उनके साथियों के पास ज्यादा हथियार नहीं थे। इस लिहाज से वह दुश्मन की तुलना में बहुत कमजोर थे, पर उनका ज़ज्बा दुश्मन के सारे हथियारों पर भारी था।
सौरभ ने सबसे पहले दुश्मन की सूचना अपने आला अधिकारियों को दी। फिर उन्होंने अपनी टीम के साथ तय किया कि वह आंखिरी सांस तक दुश्मन का सामना करेंगे और उन्हें एक इंच भी आगे बढ़ने नहीं देंगे। फिर तो सौरभ अपने साथियों के साथ दुश्मन की राह का कांटा बन कर खड़े रहे। उनकी रणनीतियों के सामने दुश्मन की बड़ी संख्या भी पानी मांगने लगी थी. हालांकि, दोनों तरफ की गोलाबारी में सौरभ और उनके साथी बुरी तरह ज़ख़्मी जरूर हो गये थे, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। वह मोर्चे पर वीरता के साथ डटे हुए थे।
दुश्मन बौखला चुका था, इसलिए उसने पीठ पर वार करने की योजना बनाई. इसमें वह सफल रहा। उसने चारों तरफ से सौरभ को उसकी टीम के साथ घेर लिया था। वह कभी दुश्मन के हाथ नहीं आते, लेकिन उनकी गोलियां और बारुद खत्म हो चुके थे। दुश्मन ने इसका फायदा उठाया और उन्हें बंदी बना लिया। दुश्मन सौरभ और उनके साथियों से भारतीय सेना की खुफिया जानकारी जानना चाहता था, इसलिए उसने लगभग 22 दिनों तक अपनी हिरासत में रखा। उसकी लाख कोशिशों के बावजूद कैप्टन सौरभ ने एक भी जानकारी नहीं दी। इस कारण दुश्मन ने यातनाओं का दौर शुरु कर दिया।
सभी अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए सौरभ कालिया के कानों को गर्म लोहे की रॉड से छेदा गया. उनकी आंखें निकाल ली गई. हड्डियां तोड़ दी गईं. यहां तक की उनके निजी अंग भी दुश्मन ने काट दिए थे। बावजूद इसके वह सौरभ का हौसला नहीं तोड़ पाए थे। आखिरी वक्त तक उन्हें अपना देश याद रहा। उन्होंने सारे दर्द का हंसते-हंसते पी लिया। अंत में जब वह दर्द नहीं झेल सके तो उन्होंने मौत को गले लगा लिया।