05-मई-2023 |
जीवन परिचय
महात्मा बुद्ध का जन्म लगभग 2500 वर्ष पूर्व (563 वर्ष ई. पू.), हिन्दू पंचांग के अनुसार वैशाख पूर्णिमा को (वर्तमान में दक्षिण मध्य नेपाल) की तराई में स्थित लुम्बिनी नामक वन में हुआ था। महात्मा बुद्ध के पिता का नाम – राजा शुद्धोधन और उनकी माता जी का नाम माया था। बुद्ध के गर्भ में आते ही राजपरिवार को सुख समृद्धि प्राप्त होने लगी इसलिए उनका नाम ‘सिद्धार्थ’ रखा गया। राजा शुद्धोधन ने राजकुमार का नामकरण समारोह आयोजित किया और 8 विद्वानों को उनका भविष्य जानने के लिए आमंत्रित किया। सभी विद्वानों ने एक सी भविष्यवाणी की ‘यह बालक महायोगी बनेगा।
बुद्ध को राज्य, पत्नी, पुत्र एवं अन्य परिवारी जन आदि अपनी साधना के मार्ग में अवरोध जैसे लगने लगे। 30 वर्ष की आयु में एक रात्रि के समय सभी को सोता हुआ छोड़कर सिद्धार्थ राजभवन को त्यागकर वन में चले गए। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक जन्म तथा मृत्यु के रहस्य को नही समझ लूँगा तब तक इस कपिलवस्तु नगर में प्रवेश नही करूंगा। 6 वर्ष की कठोर साधना के बाद गया (बिहार) में एक पीपल के पेड़ के नीचे गहन समाधि के बाद उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। सिद्धार्थ को अब बोध पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो चुका था जिससे वह ‘भगवान बुद्ध’ कहलाने लगे। अपने प्रथम उपदेश के लिए भगवान बुद्ध ने वाराणसी के निकट सारनाथ नामक स्थान को चुना। भगवान बुद्ध 44 वर्षों तक निरंतर उपदेश करते हुए वे भ्रमण करते रहे।
सैकड़ों वर्षों से व्याप्त रूढ़ियों, अंधविश्वासों, भेदभावों तथा अनेकानेक जड़ मान्यताओं को उन्होंने अमान्य कर दिया| व्यर्थाडम्बर से रहित साधना-पद्धति ने दुखों से मुक्त होने का एक नया एवं सरल मार्ग दिखलाया, देखते ही देखते बौद्धमत सम्पूर्ण भारत के साथ -साथ भारतवर्ष की सीमाओं को लांघते हुए नेपाल, तिब्बत ,बर्मा, वियतनाम, चीन, जापान, मंगोलिया, लंका,कोरिया,जावा सुमात्रा में फ़ैल गया। उन्होंने विश्व के अनेक स्थानों के जनमानस को सुख-शांति का एक नया रास्ता खोल दिया। यह वह समय था जब हम कह सकते है कि बौद्धमत ने विश्वधर्म का प्रतिष्ठित स्थान पा लिया था। हिन्दू समाज ने उनको अपने दशावतारों में स्थान दिया और व भगवान् बुद्ध कहलाने लगे।
भारतीय धर्म, दर्शन, कला,साहित्य सृजन एवं शिक्षा व्यवस्था को नये-नये आयाम प्राप्त हुए| उसी समय तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, मगध के विश्व विद्यालयों ने विश्व प्रसिद्धि प्राप्त की। सांस्कृतिक उत्थान का एक नया युग प्रारंभ हो गया। भगवान् बुद्ध के विचारों के साथ-साथ ग्रन्थलेखन, मूर्तिकला, स्तूप निर्माण, मठ स्थापना, गुफाओं में भित्ति प्रतिमाओं आदि का विकास हुआ। भगवान् बुद्ध का कहना था कि इस संसार में कुछ भी स्थिर नही सभी कुछ नाशवान है, सभी प्रकार के प्राणी चाहे वे उत्तम, मध्य या नीच जो भी हो सभी का विनाश सुनिश्चित है।
अर्थात् मैंने जंगल में जाकर जो साधना की है उसका उद्देश्य यही है कि वृद्धावस्था तथा मृत्यु के दुख को नष्ट कर सकूं।
भगवान बुद्ध के सर्वत्यागी तपोमय जीवन तथा उनकी करुणा- पूर्ण वाणी का कुछ ऐसा अद्भुत प्रभाव हुआ कि देश के बड़े -बड़े सम्राट,जैसे कौशल देश के प्रसेनजित ,मगध सम्राटअजातशत्रु,सम्राट अशोक,प्रतापी हूण राजा कनिष्क एवं सम्राट हर्षवर्धन आदि बुद्ध के विचार को स्वीकार कर अपनी समस्त राजशक्ति के आधार पर बौद्ध-दर्शन के विचार के प्रचार प्रसार में लग गए।
श्री रामधारी सिंह दिनकर ने बुद्ध की जाति-प्रथा को दी गयी चुनौती के बारे में लिखा “जाति-प्रथा को चुनौती देकर बुद्ध ने इस देश में एक महान आन्दोलन का प्रारंभ किया जो प्राय: गाँधी तक चलता रहा।’ उन्होंने मनुष्य की मर्यादा को यह कहकर उपर उठाया कि कोई मनुष्य केवल ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से पूज्य नही होता। उच्चता नीचता, जन्म पर नही,कर्म पर अवलंबित है।जाति-प्रथा को शिथिल करके बुद्ध और उनकी परम्परा के अन्य संतों ने भारत में वह अवस्था उत्पन्न की, जिसमें निर्गुणिया संतों का मत फूल-फल सका। भगवान बुद्ध को अतिरेक, हिंसा तथा युद्ध आदि कतई पसंद नही थे।
सब मनुष्यों के अवयव समान ही होने से मनुष्यों में जातिभेद निश्चित नहीं किया जा सकता, परन्तु मनुष्य की जाति कर्म से निश्चित की जा सकती| जैसे मनुष्यों में कोई गौ पालन से अपनी जीविका चलाता हो तो उसे कृषक ही समझना चाहिए, ब्राह्मण नहीं। भले ही वह जन्म से ब्राह्मण ही क्यों न हो। मनुष्यों में जो कोई शिल्प से अपनी आजीविका चलाता है, उसे शिल्पी समझना चाहिए, ब्राह्मण नहीं है” बुद्ध का यह उपदेश सुनकर वसिष्ठ और भारद्वाज उनके उपासक बन गए।
भगवान् बुद्ध ने जन्म से किसी भी प्रकार के जाति एवं वर्ण-भेद को अपने जीवन में स्थान नही दिया। भगवान् बुद्ध का मानना है कि ''न हि वैरेन वैश्चरानि सम्मंतीघ कुदाचनं| न हि वैरेन वैश्चरानि सम्मंतीघ कुदाचनं|| अर्थात इस संसार में वैर कभी भी वैर से शांत नहीं होता है, वैर तो मैत्री से ही शांत होता हैं – यही सनातन धर्म है”
पवित्र स्थान
बौद्ध धर्म में 4 स्थान अत्यंत पवित्र माने जाते हैं –
पहला स्थान कपिलवस्तु, जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ
दूसरा – बौद्ध गया, जहाँ बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ
तीसरा -सारनाथ, जहाँ बुद्ध ने पहला प्रवचन दिया और
चौथा स्थान – कुशीनगर,जहाँ उन्होंने शरीर त्याग दिया
• अस्सी वर्ष की आयु में कुशीनगर में उन्होंने अपना अंतिम सन्देश दिया और वहीं एक वृक्ष के नीचे अपना शरीर त्याग दिया।
(स्रोत -भारत की संत परम्परा और सामाजिक समरसता,लेखक – डॉ कृष्ण गोपाल, प्रकाशक:मध्यप्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी , संस्करण -प्रथम 2011)
बुद्ध जयंती: मानव समाज के कल्याण के लिए भगवान बुद्ध का संदेश
सिद्धार्थ गौतम का जन्म पिता शुद्धोधन और माता महामाया के यहाँ 563 ई.पू. वैशाख पूर्णिमा के दिन शाक्य कुल मे हुआ था। ऐसी मान्यता है की देवी महामाया जब गर्भवती हुई तो उन्होंने स्वप्न में देखा की, ‘सुमेध’ नामक एक बोधिसत्व यह कहते हैं कि मैंने अपना अंतिम जन्म इस पृथ्वी पर लेने का निश्चय किया है, क्या तुम मेरी माँ बनाना स्वीकार करोगी ? महामाया ने उन्हे आनंदित होकर हाँ कहा और उसी समय उनकी आँख खुल गई। दूसरे दिन उन्होंने अपने इस स्वप्न के बारे में शुद्धोधन को बताया। तब इस स्वप्न व्याख्या को समझने के लिए उन्होंने उस समय के ज्ञानी लोगों को आमंत्रित किया। उन ज्ञानियों ने यह भविष्यवाणी की कि आपके यहाँ एक पुत्र होगा और अगर वह गृहस्थ जीवन में रहा तो वह चक्रवर्ती राजा बनेगा और अगर गृहत्याग कर संन्यासी बन गया तो वह संसार के अंधकार को दूर करनेवाला बुद्ध बनेगा।
गर्भावस्था में महामाया ने अपने पितृक के घर देवरह जाने की इच्छा जताई। जब वह अपने पितृक के घर जाने के रास्ते में थी तब महामाया ने एक पुत्र को जन्म दिया। हालांकि, कहा जाता है कि गौतम का जन्म लुंबिनी में हुआ था जो अब आधुनिक नेपाल में है। इस बालक के जन्म लेने के समय कपिलवस्तु के शासक बनने की बारी शुद्धोधन की थी। इस प्रकार उस समय उसे राजा की उपाधि धारण करने की खुशी मिली। स्वाभाविक रूप से बालक को राजकुमार कहा गया।
5वे दिन नाम संस्करण किया गया, बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया। उसके गौत्र का नाम गौतम था। इसलिए वह सिद्धार्थ गौतम के नाम से विख्यात हुआ। जब वह 7 दिन के थे तब उनकी माता महामाया का निधन हुआ। उसके बाद उनकी मौसी प्रजापति ने उनकी माँ की तरह उनका पालन-पोषण किया।
सिद्धार्थ स्वभाव से कारुणिक था। उसे वह पसंद नहीं था कि एक आदमी दूसरे आदमी का शोषण करे। वह क्षत्रिय थे और उन्हे धनुष चलाने और शस्त्रों के प्रयोग सिखाए गए थे। लेकिन अनावश्यक रूप से किसी प्राणी को कष्ट पहूँचाना उन्हे अच्छा नहीं लगता था। उनके मित्र उन्हें शिकार और उनकी निशानेबाजी के लिए कहते। इस तरह के निमंत्रणों की सिद्धार्थ यह कहते हुए अस्वीकार करते हुए कहते थे- मैं निर्दोष पशुओं का वध होते नहीं देखना चाहता। सिद्धार्थ की इस प्रवृत्ति को देख उनके माता- पिता काफी चिंतित रहते थे।
सिद्धार्थ का विवाह दण्डपाणी नामक शाक्य की पुत्री यशोधरा से हुआ था। विवाह के समय उनकी आयु सोलह वर्ष थी। उनका विवाह स्वयंवर के माध्यम से हुआ था। जिसमे आयोजित प्रतियोगिता में सिद्धार्थ गौतम का लक्ष्यभेद सर्वोत्तम माना गया था। विवाह के काफी समय पश्च्यात् उन्हे एक पुत्र हुआ जिसका नाम राहुल रखा गया।
सिद्धार्थ के पिता शुद्धोधन को उनके जन्म के पूर्व किए गए अनुमान से यह डर था कि कहीं उनका पुत्र गृहस्थ जीवन ना त्याग दे। इसलिए उन्होंने सोचा की सिद्धार्थ को काम-भोगों के बंधन में लीन रखा जाए। इसलिए उन्होंने वह सारी व्यवस्थाएं की जो सिद्धार्थ को इन बंधनों में बांधकर रखें। किन्तु वह सभी योजनाएं सिद्धार्थ के दृढ़ निश्चय के आगे असफल रही।
सिद्धार्थ ने भारद्वाज के हाथों प्रव्रज्या लेने की सोची, जिनका आश्रम कपिलवस्तु में था। परिव्राजक जीवन में प्रवेश करने के लिए तैयार होकर सिद्धार्थ प्रव्रज्या के लिए भारद्वाज के पास गए। अपने शिष्यों की सहायता से भारद्वाज ने आवश्यक संस्कार किये और सिद्धार्थ गौतम के परिव्राजक होने की घोषणा की।
गौतम सांख्य और समाधि मार्ग का परीक्षण कर चुके थे। इसके बाद उन्होंने तपश्चर्या का परीक्षण करना उचित समझा । गौतम की तपश्चर्या और आत्म पीड़न बड़े ही उग्र रूप का था, जो छह वर्ष के लंबे समय तक जारी रहा। इस दौरान वह केवल एक ही फल खाकर रहते थे, जिससे उनका शरीर एकदम कमजोर हो गया था। तब उन्हे ज्ञात हुआ की सच्ची शांति और मन की एकाग्रता को सही रूप मे प्राप्त करने के लिए शारिरिक आवश्यकताओं की लगातार पूर्ति आवश्यक है। उन्होंने सुजाता द्वारा बनाई गई खीर खाकर इस उग्र मार्ग को छोड़ा।
बोधि प्राप्ति के लिए गौतम को चार सप्ताह तक लगातार ध्यान-मग्न रहना पड़ा। अंतिम अवस्था तक पहुचने के लिए उन्हे वितर्क- विचार अवस्था, एकाग्रता, समचित्तता और जागरूकता और अंतिम अवस्था में उन्होंने पवित्रता को समचित्तता में और समचित्तता को जागरूकता में शामिल किया। इस प्रकार चार सप्ताह के ध्यान के पश्चात अंधकार हट गया और प्रकाश प्रकट हुआ। पीपल वृक्ष, जिसके नीचे सिद्धार्थ गौतम को महाज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उसको बोधि-वृक्ष नाम से जाना जाता है। ज्ञानप्राप्ति से पहले गौतम केवल एक बोधिसत्व थे, महाज्ञान ज्ञानप्राप्ति के बाद वह बुद्ध हो गए। उन्होंने मानव समाज की भलाई के लिए निर्वाण के सिद्धांत को स्थापित किया।
• दुख: बुद्ध व्यक्ति को यह एहसास कराते हैं कि जीवन में हमेशा किसी न किसी रूप में दुख शामिल होता है।
• दुख का कारण: दुख का कारण तृष्णा और अज्ञानता है, जिसका अर्थ है कि हम अपने गलत विश्वास, लालच या अहंकार के कारण पीड़ित हैं।
• दुख का अंत: अच्छी खबर यह है कि हमारी समस्याएं अस्थायी हैं और दुख समाप्त हो सकता है क्योंकि जागृत मन हमेशा हमारे लिए उपलब्ध है।
• मार्ग: बुद्ध ने उपदेश दिया कि ध्यान का अभ्यास करके, ज्ञान का विकास करके, और अनुशासित जीवन का पालन करके हम आत्मज्ञान और दुख से मुक्ति की यात्रा कर सकते हैं।
बुद्ध ने परिव्राजकों को आष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि आष्टांगिक मार्ग के आठ भाग है।
• सम्यक् दृष्टि- वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप का ध्यान करना सम्यक् दृष्टि है।
• सम्यक् संकल्प- आसक्ति, द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखना सम्यक् संकल्प है।
• सम्यक् वाक्ः- अप्रिय वचनों के सर्वथा परित्याग को सम्यक् वाक् कहा जाता है।
• सम्यक् कर्मान्तः- परिश्रम, दया, सत्य, अहिंसा आदि सत्कर्मों का अनुसरण ही सम्यक् कर्मान्त है।
• सम्यक् आजीविका- सदाचार के नियमों के अनुकूल आजीविका के अनुसरण करने को सम्यक् आजीविका कहते हैं।
• सम्यक् व्यायाम- नैतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिये सतत् प्रयत्न करते रहना सम्यक् व्यायाम है।
• सम्यक् स्मृति- अपने विषय में सभी प्रकार की मिथ्या धारणाओं का त्याग कर सच्ची धारणा ही सम्यक् स्मृति है।
• सम्यक् समाधि- उचित व्यवस्था में बैठकर ध्यान एकाग्र करते हुए उचित विचार और वस्तु पर चिन्तन करते हुए वास्तविक सत्यता को प्राप्त करना अर्थात् ज्ञान को प्राप्त करना।
बुद्ध ने परिव्राजकों को कहा कि शील के मार्ग का अभिप्राय इन सद्गुणों का पालन करना है।
संदर्भ: बुद्ध और उनका धम्म- डॉ. आंबेडकर