28 जून, 1999 ; कारगिल युद्ध के अमर बलिदानी कैप्टन विजयंत थापर, मेजर पद्मपाणि आचार्य और कैप्टन नेइकझुको केंगरुस की बहादुरी की अनसुनी दास्तां
    28-जून-2023
 
Kargil heroes 1999
 
 
 
कारगिल युद्ध के महानायकों की पुण्य स्मरण की श्रृंखला में कहानी उन वीर सपूतों की जिन्होंने अपने खून से शौर्य की अप्रतिम गाथा लिखी है।
 
 
अमर बलिदानी कैप्टन विजयंत थापर
 
 
कैप्टन विजयंत थापर की बटालियन ने जब 13 जून 1999 को तोलोलिंग जीता, तब वो कारगिल में भारतीय सेना की पहली बड़ी विजय थी। 22 साल की उम्र में अमर बलिदानी विजयंत थापर ने जी भर के ज़िन्दगी जी। खेले, प्यार किया, अपनी पसंद के पेशे को चुना और जब मौका आया, वतन के लिए जान देने से पीछे नहीं हट। 26 दिसंबर 1976 को जन्मे विजयंत सैनिक परिवार से आते थे। परदादा डॉ. कैप्टन कर्ता राम थापर, दादा जेएस थापर और पिता कर्नल वीएन थापर सब के सब फौज में थे। इसलिए विजयंत क्या बनेंगे, ये सवाल कभी उनके मन में उठा ही नहीं। वो ‘बॉर्न सोल्जर’ थे। जब उनके पिता रिटायर हुए, लगभग तभी उन्होंने कमिशन लिया 2 राजपूताना राइफल्स में, दिसंबर 1998 में। तब से बमुश्किल 6 महीने पहले जब पाकिस्तान ने वादाखिलाफ़ी करते हुए गैरकानूनी ढंग से कारगिल की चोटियों पर कब्ज़ा कर लिया। विजयंत की यूनिट जो कुपवाड़ा में आतंक विरोधी अभियान चला रही थी, घुसपैठियों को भगाने तोलोलिंग की ओर द्रास भेजी गई।
 
 
 
Major Vijyant Thapar kargil 1999
 
 कैप्टन विजयंत थापर
 
 
इसके बाद उन्हें नोल एंड लोन हिल पर ‘थ्री पिम्पल्स’ से दुश्मन को खदेड़ने की ज़िम्मेदारी मिली। चांदनी रात में पूरी तरह से दुश्मन की फायरिंग रेंज में होने के बावजूद विजयंत आगे बढ़ते रहे। विजयंत थापर ‘थ्री पिम्पल्स’ जीत गए लेकिन इस अभियान में देश ने अपर सपूत विजयंत को खो दिया। उन्होंनों अपना सर्वोच्च बलिदान दिया।
 
 
मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित कैप्टन विजयंत थापर ने शहादत से पहले 13 जून 1999 को तोलोलिंग की पहाड़ियों पर जीत का झंडा फहराया था। ये महत्वपूर्ण जीत करगिल की जंग के दौरान भारत के हक में एक निर्णायक लड़ाई साबित हुई। ताजा जानकारी के मुताबिक कैप्टन विजंयत के कमरे में वो यूनिफॉर्म आज भी टंगी है, जो उनकी शहादत के बाद करगिल से भेजी गई थी। तोलोलिंग की उस चोटी की तस्वीर भी लगी है, जिस पर उन्होंने जीत का तिरंगा फहराया था। कमरे में शहीद विजयंत की तस्वीरें और उनसे जुड़ी तमाम चीजें आज भी वैसे ही रखी हैं।
 
 
Major padampaani acharya
 
 
 
मेजर पद्म्पानी आचार्य
 
  
28 जून 1 999 को, राजपूताना राइफल्स के मेजर पद्मपनी आचार्य को कंपनी कमांडर के रूप में दुश्मन के कब्जे वाली अहम चौकी को आजाद कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई। यहां दुश्मन न सिर्फ अत्याधुनिक हथियारों से लैस था बल्कि माइंस बिछा कर रखी हुई थी। मेजर पद्मपाणि की अगुवाई में फोर्स ने फायरिंग और गोलों की बारिश के बीच अपना अभियान जारी रखा। मेजर पद्मपाणि को कई गोलियां लग चुकी थीं इसके बावजूद वो आगे बढ़ते रहे और बहादुरी और साहस से पाकिस्तानियों को खदेड़ कर चौकी पर कब्जा किया, हालांकि खुद मेजर पद्मपाणि इस मिशन को पूरा करने के बाद शहीद हो गए। मेजर पद्मपाणि को पराक्रम के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
 
 
संक्षिप्त परिचय  
 
 
मेजर पद्मपाणि आचार्य का जन्म 21 जून 1968 को हैदराबाद में हुआ था। उनका परिवार मूल रूप से ओड़िसा का रहने वाला था ,लेकिन परिवार के सदस्य तेलंगाना में बस गए थे। मेजर आचार्य के पिता, विंग कमांडर जगन्नाथ आचार्य, भारतीय वायु सेना के पूर्व विंग कमांडर रहे और उन्होंने 1965 और 1971 के युद्धों के दौरान अपनी सेवाएं दी थीं। इसके अलावा मेजर आचार्य के भाई पद्मसंभव आचार्य 1999 में भारतीय सेना में कैप्टन थे और कारगिल में ऑपरेशन विजय का हिस्सा थे।
 
 
 
Padmapaani acharya wife
 
 
मेजर पद्मपाणि आचार्य हैदराबाद की ‘उस्मानिया यूनिवर्सिटी’ से स्नातक करने के बाद 1994 में भारतीय सेना में शामिल हो गए। ‘ऑफ़िसर्स ट्रेनिंग अकेडमी’ मद्रास से ट्रेनिंग लेने के बाद पद्मपनी को ‘राजपूताना रायफल’ में कमीशन मिला। सन 1996 में मेजर आचार्य की शादी चारुलता से हुई। शादी के महज 3 वर्ष बाद मेजर आचार्य को ‘कारगिल’ से बुलावा आया, उस वक्त उनकी पत्नी प्रेगनेंट थी। लिहाजा उस दौरान उन्होंने अपनी पत्नी को ड्यूटी पर जाने का कारण भी नहीं बताया सिर्फ गले लगाया और कहा मैं जल्द ही वापस आउंगा। लेकिन किसे पता था कि मेजर वापस तो आएंगे लेकिन तिरंगे में लिपटे। इस बात का जिक्र खुद उनकी पत्नी चारुलता ने कई बार किया।
 
 
 
Kargil war 1999
 
 
अमर बलिदानी कैप्टन नेइकझुको केंगुरुस
 
 
वर्ष 1999 में, जब कारगिल युद्ध शुरू हुआ, तो कप्तान केंगुरुसी राजपूताना राइफल्स बटालियन में जूनियर कमांडर थे। अपने दृढ़ संकल्प और कौशल के लिए, उन्हें घातक पलटन बटालियन का मुख्य कमांडर बनाया गया था। शारीरिक रूप से फिट और प्रेरित सैनिक ही इस पलटन में जगह बना सकते हैं। 28 जून 1999 की रात को इस पलटन को ब्लैक रॉक पर दुश्मन द्वारा रखी गई मशीन गन पोस्ट को हासिल करना था। इसकी फायरिंग के चलते भारतीय सेना उन दिनों उस क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पा रही थी। जैसे ही कमांडो पलटन ने चट्टान को पार किया, उन पर मोर्टार और आटोमेटिक गन फायरिंग होने लगी। जिसमें सभी सैनिकों को चोटें आई।
 
 
कप्तान केंगुरुसी को भी पेट में गोली लगी। अपनी चोट के बावजूद उन्होंने अपनी सेना को आगे बढ़ते रहने को कहा। जब वे अंतिम चट्टान पर पहुंच गए तो उनके और दुश्मन पोस्ट के बीच केवल एक दीवार थी। उनके सैनिक आगे बढ़ें और इस दीवार को भी पार करें इसके लिए कप्तान केंगुरुसी ने एक रस्सी जुटायी। हालाँकि, बर्फीली चट्टान पर उनके जूते फिसल रहे थे। वे चाहते तो आसानी से वापस जाकर अपना इलाज करवा सकते थे। लेकिन कप्तान केंगुरुसी ने कुछ अलग करने की ठानी थी। 16,000 फीट की ऊंचाई पर और -10 डिग्री सेल्सियस के कड़े तापमान में, कप्तान केंगुरुसी ने अपने जूते उतार दिए। उन्होंने नंगे पैर रस्सी की पकड़ बना कर आरपीजी रॉकेट लॉन्चर के साथ ऊपर की चढ़ाई की।
 
 
महावीर चक्र से हुए सम्मानित 
 
 
ऊपर पहुंचने के बाद, उन्होंने 7 पाकिस्तानी बंकरों पर रॉकेट लॉन्चर फायर किया। पाकिस्तान ने बंदूक की गोलीबारी के साथ जवाब दिया लेकिन उन्होंने भी तब तक गोलीबारी की जब तक कि उन्होंने पाकिस्तानी बंकरों को खत्म नहीं कर दिया। इसी बीच दो दुश्मन सैनिक उनके पास आ पहुंचे थे, जिन्हें उन्होंने चाकू से लड़ते हुए मार गिराया। उन्होंने अपने राइफल से 2 और पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया। लेकिन दुश्मन की गोली लगने से वे भी चट्टान से गिर गए। पर उनके कारण बाकी सेना को दुश्मन पर हमला बोलने का मौका मिल गया। मिशन पूरा करने के बाद जब उनके साथियों ने नीचे गहराई में देखा, जहां उनके कैप्टन साहब का मृत शरीर पड़ा था, तो उन्होंने आंसुओं के साथ ये जीत उन्हें समर्पित की। उत्तम युद्ध कौशल के उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।