प्रजा परिषद् ; स्वतंत्र भारत का पहला राष्ट्रवादी आन्दोलन, 1952 का घटनाक्रम (भाग-3)

Praja Parishad : 1947 से लेकर 1953 तक चला प्रजा परिषद आन्दोलन जम्मू-कश्मीर के लोकतंत्रीकरण और उसके संघीय संवैधानिक व्यवस्था में एकीकरण के लिए चलाया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रजा परिषद् आंदोलन भारत में सबसे पहला और सबसे बड़ा जन-आंदोलन था। इस आंदोलन की शुरुआत जम्मू में शेख अब्दुल्ला द्वारा फैलाई गई अराजकता और अलगाववाद के खिलाफ हुई थी। शेख अब्दुल्ला के दो विधान, दो प्रधान और दो निशान के खिलाफ शुरू यह आन्दोलन देखते देखते एक जनांदोलन के रूप में परिवर्तित हो गया। आंदोलनकारियों की सीधी माँग थी कि भारत का पूरा संविधान पूरे जम्मू कश्मीर में लागू किया जाए।
पार्टी ने अपना पहला ‘औपचारिक’ सत्याग्रह 14 नवंबर 1952 को शुरू किया जिसमें जम्मू-कश्मीर को पूरी तरह भारत में सम्मिलित करने की मांग की गई थी। आंदोलन की प्रमुख मांग ये थी कि जम्मू कश्मीर के लिए कोई विशेष संवैधानिक प्रावधान और अलग झंडा न हो। लिहाजा लोकप्रिय स्तर पर इन मांगों को प्रतिबिंबित करने वाला नारा, प्रजा परिषद पार्टी के आंदोलन के लिए युद्ध का नारा बन गया। वो नारा था - ‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान, नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे’।
संगठन ने एक विशाल जुलुस निकालने की योजना बनाई। योजना के तहत इस आन्दोलन में पुरुषों के साथ महिलाओं ने भी इस बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। इस आन्दोलन ने अब्दुल्ला के होश उड़ा दिए थे। लिहाजा आन्दोलन को रोकने के लिए उसने दमनकारी नीति अपनानी शुरू कर दी। 26 नवंबर 1952 को 68 वर्षीय पंडित प्रेमनाथ डोगरा ने जम्मू संभाग में एक जन सभा को संबोधित करने के बाद इस आंदोलन के तहत पहली गिरफ्तारी दी। इस गिरफ्तारी के फौरन बाद भीड़ पर लाठीचार्ज हुआ तथा 7 और लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। जिनमें पार्टी की जम्मू इकाई के अध्यक्ष ओम प्रकाश मैंगी भी शामिल थे। जल्द ही ये आंदोलन कठुआ, सांबा, ऊधमपुर और जम्मू संभाग के अन्य हिस्सों में फैल गया।
विरोध प्रदर्शनों का इतिहास
2 दिसंबर 1952 को शेख अब्दुल्ला की पुलिस और निजी सेना ने आन्दोलनकारियों पर फायरिंग कर दी जिसमें करीब 300 लोग घायल हुए लेकिन गनीमत रहा कि किसी की मृत्यु नहीं हुई। 50 से अधिक लोग गिरफ्तार कर लिए गए। जिन्हें तरह तरह से प्रताड़ित किया गया। स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रजा परिषद् ने 14 दिसंबर को छंब तहसील के मुख्यालय पर तिरंगा फहराने का निश्चय किया। सत्याग्रही आन्दोलनकारी हाथ में तिरंगा और गले में डा. राजेंद्र प्रसाद की तस्वीर टाँगे आगे बढ़ रहे थे। इधर शेख अब्दुल्ला ने पुलिस को सख्त आदेश दे रखा था कि किसी भी कीमत पर तिरंगा नहीं फहराना चाहिए। आन्दोलनकारी मेलाराम ने तिरंगा फहराने की कोशिश की, पुलिस ने गोली चला दी जिससे उनकी मौत हो गई, मेलाराम की मौत प्रजा परिषद् आन्दोलन की पहली जन शहादत थी। उसके अंतिम संस्कार में 30,000 से ज़्यादा लोग शरीक हुए जो आंदोलन के व्यापक प्रभाव को दर्शाता था।
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इसी तरह 29 दिसम्बर 1952 को सुंदरबनी में तिरंगा फहराने के दौरान पुलिस और कश्मीर मिलिशिया अर्थात शेख अब्दुल्ला की प्राइवेट सेना की गोली से 3 लोगों (किशन लाल, बाबा रामजी दास और बेली राम) की मौत और 25 से ज्यादा लोग बुरी तरह घायल हो गए। 11 जनवरी 1953 को हीरानगर में पुलिस और कश्मीर मिलिशिया ने 200 राउंड फायरिंग की जिसमें 2 लोगों की मौत और 70 से ज्यादा लोग घायल हुए। बाद में दोनों शव अधजले हालात में रावी नदी के तट पर मिले। 12 वर्ष के बालक तिलक को स्कूल में तिरंगा फहराने के आरोप में गिरफ्तार कर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया। थाने में अहिंसक सत्याग्रही आन्दोलनकारियों को जाड़े के दिनों में पीटने के बाद ठंडे पानी से नहलाया जाता था, बिना कपड़े के रात बितानी पड़ती थी। थाने में हर समय दो मुसलमान पुलिसकर्मी तैनात रहते थे ताकि कोई सत्याग्रहियों से उचित व्यवहार न कर सके। सभी घटनाक्रम को देखते हुए प्रजा परिषद ने आंदोलन को देशव्यापी करने का फैसला कर लिया।