14 सितंबर,1989 बलिदान दिवस : 34 वर्ष पहले पंडित टीकालाल टपलू की हत्या से शुरू हुआ था घाटी से कश्मीरी हिंदुओं पर अंतहीन उत्पीड़न और नृशंसता
14-सितंबर-2023
पं०टिकालाल टपलू पेशे से वकील और जम्मू कश्मीर बीजेपी के उपाध्यक्ष थे। पं० टपलू (Tika Lal Taploo) आरंभ से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे तथा उदारमन व्यक्ति थे। पं० टपलू ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से वकालत की पढ़ाई की थी, परंतु पैसे कमाने के लिए उन्होंने अपने इस पेशे का कभी भी दुरुपयोग नहीं किया। वकालत से वे जो कुछ भी कमाते उसे विधवाओं और उनके बच्चों के कल्याण हेतु दान दे देते थे। उन्होंने कई मुस्लिम लड़कियों की शादियाँ भी करवाई थीं। पूरे हब्बाकदल निर्वाचन क्षेत्र में हिन्दू मुसलमान सभी पं टपलू का सम्मान करते थे तथा उन्हें ‘लाला’ अर्थात बड़ा भाई कह कर सम्बोधित करते थे।
अलगाववादी गुटों की आँखों में खटकती थी पं टपलू की छवि
लिहाजा इसी कारण पं टपलू यह छवि अलगाववादी गुटों की आँखों में खटकती थी। क्योंकि पं० टिकालाल टपलू उस समय कश्मीरी हिंदुओं के सर्वमान्य और सबसे बड़े नेता थे। जाहिर तौर पर अलगाववादियों को घाटी में अपनी राजनैतिक पैठ बनाने के लिए कश्मीरी हिंदुओं के समुदाय को हटाना जरुरी था, जो किसी भी कीमत पर पाकिस्तान का समर्थन नहीं करते थे। इसीलिए 'जम्मू-कश्मीर लिबेरशन फ्रंट' (JKLF) ने कश्मीरी हिंदुओं के विरुद्ध दुष्प्रचार के विविध हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए। कश्मीर घाटी के कुछ लोकल अखबारों ने पंडित टिकालाल टपलू और जस्टिस नीलकंठ गंजू समेत कई प्रतिष्ठित हिंदुओं के विरुद्ध दुष्प्रचार सामग्री प्रकाशित करना आरंभ कर दिया था।
आतंकियों ने बनाई हत्या की रणनीति
आतंकियों ने पं० टपलू और जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या की रणनीति बनाई। पं० टपलू को इस बात का आभास पहले ही हो चुका था कि उनकी हत्या के प्रयास किए जा सकते हैं। लिहाजा उन्होंने उन्होंने अपने परिवार को सुरक्षित दिल्ली पहुँचा दिया और 8 सितम्बर को वापस कश्मीर लौट आये। 4 दिन बाद चिंक्राल मोहल्ले में स्थित उनके आवास पर इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा हमला किया गया। यह हमला उन्हें सचेत करने के लिए था किंतु वे भागे नहीं और डटे रहे। महज 2 दिन बाद 14 सितम्बर की सुबह पं० टिकालाल टपलू जब अपने आवास से बाहर निकले तो उन्होंने पड़ोसी की बच्ची को रोते हुए देखा। पूछने पर उसकी माँ ने बताया कि स्कूल में कोई फंक्शन है और बच्ची के पास पैसे नहीं हैं। पं० टपलू ने बच्ची को गोद में उठाया, उसे 5 रुपये दिए और पुचकार कर चुप कराया और आगे बढ़े।
उन्होंने सड़क पर कुछ कदम ही आगे बढ़ाये होंगे कि तभी आतंकवादियों ने उन्हें 'कलाशनिकोव' की गोलियों से छलनी कर दिया। सन 1989-90 के दौरान कश्मीरी हिंदुओं को घाटी से पलायन करने पर मजबूर करने के लिए की गयी यह पहली हत्या थी। कश्मीरी हिंदुओं के सर्वमान्य नेता की हत्या कर अलगाववादियों ने यह स्पष्ट संकेत दे दिया था कि अब कश्मीर घाटी में ‘निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा’ ही चलेगा। टिकालाल टपलू की हत्या के बाद काशीनाथ पंडिता ने कश्मीर टाइम्स में एक लेख लिखा और अलगाववादियों से पूछा कि वे आखिर चाहते क्या हैं ?
7 सप्ताह बाद जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या
अगले दिन इसका जवाब जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने यह दिया कि ''या तो कश्मीरी हिन्दू भारत राज्य को समर्थन देना बंद करें और अलगाववादी आन्दोलन का साथ दें या कश्मीर छोड़ दें''। पं टपलू की हत्या के मात्र 7 सप्ताह बाद ही आतंकियों द्वारा जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गयी। सन 1989 तक पं० नीलकंठ गंजू- जिन्होंने मकबूल बट को फांसी की सजा सुनाई थी- हाई कोर्ट के जज बन चुके थे। वे 4 नवंबर 1989 को दिल्ली से लौटे थे और उसी दिन श्रीनगर के हरि सिंह हाई स्ट्रीट मार्केट के समीप स्थित उच्च न्यायालय के पास ही आतंकियों ने उन्हें गोली मार दी थी।
आतंकियों ने जस्टिस गंजू से मकबूल बट की फांसी का प्रतिशोध लिया था। साथ ही मस्जिदों से लगते नारों ने कश्मीर के लोगों को यह भी बता दिया था कि ‘ज़लज़ला आ गया है कुफ़्र के मैदान में, लो मुजाहिद आ गये हैं मैदान में’। अर्थात अब अलगाववादियों के अंदर भारतीय न्याय, शासन और दंड प्रणाली का भय नहीं रह गया था। कई वर्षों बाद 'जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट' के आतंकी यासीन मलिक ने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया था कि उसने जस्टिस गंजू की हत्या की थी।
पृष्ठभूमि
पं० टिकालाल टपलू और जस्टिस गंजू की हत्या के बाद भी सैंकड़ों कश्मीरी हिंदुओं को मारा गया परन्तु तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला दिलासा मात्र देते रहे और मार्तण्ड सूर्य मन्दिर के भग्नावशेष पर सांस्कृतिक कार्यक्रम कराते रहे। कश्मीर घाटी से कश्मीरी हिंदुओं का पलायन कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं थी। इसकी पटकथा सन 1965 में ही लिख दी गयी थी जब भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध चल रहा था। यह स्मरण रहे कि सन’ 65 का युद्ध जम्मू-कश्मीर राज्य को पूरी तरह पाकिस्तान में मिलाने के उद्देश्य से लड़ा गया था। किंतु पाकिस्तान को इसमें पूर्ण विजय इसलिए नहीं मिल पाई थी क्योंकि उस वक्त जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान परस्ती और अलगाववाद का बीज नहीं बोया जा सका था।