08-सितंबर-2023 |
जाहरवीर गोगा भारतीय धर्म संस्कृति इतिहास और जीवन में गौरक्षक और विदेशी आक्रान्ताओं से लड़ने और अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए विख्यात एक लोकप्रिय लोक देवता हैं। जाहरवीर गोगा के जीवन चरित्र की महत्वपूर्ण घटनाएं मुख्य रूप से राजपूताना क्षेत्र में विकसित हुई हैं। उनका जन्मस्थल राजस्थान के चुरू जिले के ददरेवा गाँव नामक स्थान पर माना जाता है।जाहरवीर गोगा का जन्म एक हिन्दू क्षत्रिय परिवार में हुआ था और उनका विकास एक वीर और महान योद्धा के रूप में हुआ। वे अपनी वीरता, साहस, धर्म एवं गौरक्षा और न्याय के लिए प्रसिद्ध थे। जाहरवीर गोगा को नागदेवता का अवतार भी माना जाता है और उन्हें सर्प-भगवान के साथ जोड़ा जाता है।
राजस्थान, हरियाणा, पंजाब हिमाचल, उत्तराखंड मध्यप्रदेश उत्तर प्रदेश गुजरात में केवल राजपूत समाज ही नहीं अपितु सभी वर्गों के बीच जाहरवीर गोगा की पूजा और भक्ति काफी लोकप्रिय है। उन्हें वीरता, साहस, और समर्पण के प्रतीक के रूप में देवी-देवताओं के साथ पूजा जाता है। जाहरवीर गोगा के मंदिर और धार्मिक स्थल राजस्थान, पंजाब, हरियाणा,दिल्ली, हिमाचल और उत्तर प्रदेश राज्यों में विशेष रूप से पाए जाते हैं, जहां उन्हें विशेष धार्मिक उत्सवों और मेलों के साथ मनाया जाता है।जाहरवीर गोगा के चरित्र ने लोगों के बीच वीरता, धर्म, और समर्पण के मूल्यों को प्रसारित किया है और उन्हे देवतुल्य आराध्य के रूप में आरूढ़ होना सुनिश्चित किया है। यही कारण है कि गोगावीर लोक देवता के रूप में जन-जन के मन और मस्तिष्क में विराजमान है
जाहरवीर गोगा चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद सबसे अधिक ख्याति प्राप्त राजा थे।
धर्म युद्ध करते समय जाहरवीर गोगा का सर ददरेवा (चुरू) में गिरा इसलिए इसे शीर्षमेडी (शीषमेडी) तथा धड़ नोहर (हनुमानगढ़) में गिरा इसलिए धरमेडी/धुरमेडी व गोगामेडी भी कहते हैं। बिना सिर के ही जाहरवीर गोगा को युद्ध करते देख कर महमूद गजनवी ने गोगाजी को जाहिर पीर (प्रत्यक्ष पीर) कहा था । एक भ्रम फैलाया गया है कि गोगाजी महाराज ने मृत्यु से पूर्व कलमा पढ़ा था और वह मुसलमान बन गए थे, इसलिए उन्हें गुग्गा पीर कहा जाता है। यह बात बिलकुल असत्य और मनगढ़ंत है। वास्तविकता यह है कि गोगा जी के बाद 1213 ई तक उनके नौ हिन्दू वंशजों का राज रहा और उनके कुल से अंतिम हिन्दू राजा जैतसी थे। अपने स्व हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षा करते हुए महमूद गजनवी के साथ विक्रम संवत 1081 (1024 ईसवी) में युद्ध करते हुए जाहरवीर गोगा वीरगति को प्राप्त हुए थे।
10 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक मरुप्रदेश के चौहानों ने राज्य स्थापित करने प्रारम्भ कर दिये थे। इसी स्थापना काल मे घंघरान चौहान ने वर्तमान चुरू शहर से 10 किमी. पूर्व मे घांघू गाँव बसाकर अपनी राजधानी स्थापित की। राणा घंघ की पहली रानी से पुत्र हर्ष तथा एक पुत्री जीण का जन्म हुआ। राणा घंघरान की दूसरी रानी से कन्हराज, चंदराज व इंदराज हुए। कन्हराज के चार पुत्र -अमराज, अजराज, सिधराज व बछराज हुए। कन्हराज के पुत्र अमराज (अमरा ) राज्य के उत्तराधिकारी बने, आगे चलकर अमराज के पुत्र जेवर (झेवर) राज्य के उत्तराधिकारी बने किन्तु उदार व पराक्रमी राजा जेवर ने घांघू का राजपाट अपने भाइयों के लिए छोड़ दिया और सुदूरवर्ती बीहड़ क्षेत्र ददरेवा को राजधानी बनाकर साम्राज्य विस्तार किया। इसी ददरेवा गाँव में राजा जेवर सिंह की पत्नी रानी बाछल ने भाद्रपद कृष्ण पक्ष नवमी विक्रम संवत 1003 को चौहान वीर गोगाजी का जन्म दिया। यह गाँव राजस्थान के चुरू जिले में आता है।
उनके जन्म को लेकर भी एक जनश्रुति प्रचलित है। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थीं । संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ ‘गोगामेडी’ के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गईं और तदुपरांत जाहरवीर गोगा का जन्म हुआ। गुगल फल के प्रसाद से उनका जन्म होने के कारण उनका नाम गोगा पड़ा।
राजा जेवर की असामयिक मृत्यु के कारण उनके अवयस्क पुत्र गोगा चौहान के कन्धों पर राज्य का भार आ गया। माँ बाछल के संरक्षण में वे ददरेवा के राणा बने। रानी बाछल की बड़ी बहन आछल को भी इन्हीं संत तपस्वी योगी गोरखनाथ के आशीर्वाद से अर्जन-सर्जन नामक दो पुत्र पैदा हुए।
जहाँ जाहरवीर गोगा सत्यनिष्ठ , न्यायप्रिय और धर्म एवं गौरक्षक थे, वहीं उनके मौसेरे भाई अर्जन-सर्जन लालची और दुष्ट प्रकृति के थे , उन्होंने गोगा चौहान से ददरेवा छीनने का प्रयास और गायों की चोरी शुरू कर दी। जाहरवीर गोगा का अर्जन-सर्जन के साथ ददरेवा से 8 किमी. उत्तर-पूर्व मे वर्तमान खुड्डी नामक गाँव के पास एक जोहड़ भूमि में युद्ध हुआ, जिसमें गोगा चौहान ने विजय प्राप्त की।
महमूद गजनवी के उत्तरभारत पर हुए आक्रमणों के परिणामस्वरूप जाहरवीर गोगा ने अपनी सीमा से लगते हुए अन्य अव्यवस्थित राज्यों पर भी सीधा अधिकार न कर मैत्री संधि स्थापित किया। जिसके कारण उत्तरी-पूर्वी शासकों की दृष्टि मे जाहरवीर गोगा की छवि भारतीय संस्कृति के रक्षक के रूप में बन गई । कन्नौज लूटने के बाद सन 1018 ई में जब महमूद सोमनाथ पर आक्रमण के लिए निकला तो महमूद गजनवी ने धोखे से जाहरवीर गोगा को हराने के लिए अपने सिपहसालार मसूद को तिलक हज्जाम के साथ भटनेर भेजा।
मसूद और तिलक हज्जाम ने जाहरवीर गोगा को प्रणाम कर हीरों से भरा थाल रखकर सिर झुकाकर आग्रह किया, ‘‘सुल्तान आपकी वीरता और बहादुरी के कायल हैं, इसलिए आपकी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाकर आप से मदद मांग रहे हैं। उनकी दोस्ती का यह नजराना कबूल कर आप उन्हें सही सलामत गुजरात के मंदिर तक जाने का रास्ता दें ”। जाहरवीर गोगा ने इस संधि से तत्काल मना कर दिया और हीरों से भरे थाल को ठोकर मार कर फेंक दिया।
इसके बाद गजनवी ने अपनी सेना कोवहां कूच करने का आदेश दिया। उसकी सेना में एक लाख पैदल, और तीस हजार घुड़सवार शामिल थे। जाहरवीर गोगा के पास मात्र आठ सौ वीर राजपूत और तीन सौ अन्य सैनिक थे। जाहरवीर गोगा के अद्भुत साहस और बलिदानी तेवरों को देखते हुए गजनवी ने उनसे संधि करने के लिए फिर से अपना दूत भेजा। जाहरवीर ने फिर से गजनवी के प्रस्ताव को मानने से मना कर दिया। अंत में विवश होकर गजनवी ने बिना युद्ध किये ही वहाँ से निकलने में ही अपनी भलाई समझी। इसके बाद जाहरवीर गोगा ने सम्पूर्ण उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र मे संपर्क किया और राजाओं को संगठित किया।
जाहरवीर गोगा ने उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र के सभी शासकों को गजनवी से युद्ध करने के लिए तैयार कर लिया था। गजनवी ने सोमनाथ पर आक्रमण कर उस अद्वितीय धरोहर को नष्ट कर दिया। इस बात से क्रुद्ध सभी राजाओं ने सोमनाथ विध्वंश कर लौटते हुए गजनवी को सबक सिखाने की ठानी। गोगा जी ने उस संकरी घाटी को अपनी निगरानी में ले रखा था जहाँ से गजनवी को गुजरना ही था। कहा जाता है कि उसे जाहरवीर गोगा की तैयारियों का पता चल गया था जिससे वह लौटते समय बहुत घबरा गया था। इस कारण गजनवी ने अनुमानित समय व रणयोजना से पूर्व ही जाहरवीर गोगा के राज्य की दक्षिण-पश्चिम सीमा मे प्रवेश कर गया ताकि वह सुरक्षित अपने मूल स्थान ग़ज़नी वापस लौट सके। अभी तक जाहरवीर गोगा द्वारा आमंत्रित उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की सेनाएँ नहीं पहुंची थीं ।
इसके उपरांत भी जाहरवीर गोगा ने साहस नहीं खोया और उन्होंने अपने पुत्रों , भाई-भतीजों एवं स्थाई तथा एकत्रित सेना को लेकर गजनवी का अकेले ही मुकाबला करने की ठानी। जिस समय समय महमूद गजनवी ददरेवा से 75 किमी. उत्तर-पश्चिम के रेगिस्तानी निर्जन वन क्षेत्र में स्थानीय लोगों से आगे गजनी की ओर जाने के लिए सुगम मार्ग पूछ रहा था। इसी बीच गोगा के चतुर सैनिकों ने मार्ग बताने के बहाने गजनवी की सेना के निकट पहुँचकर उसकी सेना पर आक्रमण कर दिया। जाहरवीर गोगा के पास साहस तो था पर सेना कम थी फिर भी केसरिया बाना सजाकर हर-हर महादेव का घोष करते उनके राजपूत वीर सैनिक गजनवी और उसकी सेना पर टूट पड़े और इस युद्ध में एक-एक राजपूत ने दस-दस दुश्मनों को मार गिराया। इस युद्ध में गजनवी की सेना के बहुत सैनिक मारे गए।
जाहरवीर गोगा अपने 45 से अधिक पुत्रों, भतीजों एवं निकट बंधु-बांधवों के अतिरिक्त अन्य सैकड़ों सैनिकों के साथ मातृभूमि और हिन्दू धर्म की रक्षा करते हुए बलिदान हो गए । धर्म युद्ध करते हुए शत्रु की ओर से हुए आघात में जाहरवीर गोगा का सिर कटकर ददरेवा (चुरू) में गिरा इसलिए इसे शीर्षमेडी (शीषमेडी) तथा धड़ नोहर (हनुमानगढ़) में गिरा इसलिए इसे धरमेडी/धुरमेडी व गोगामेडी भी कहते हैं। सिर से धड़ अलग होने के उपरांत भी उनका कटा धड़ हाथ में तलवार लिए काफी समय तक शत्रुओं पर कहर ढाता रहा , जिसे देखकर गजनवी स्तब्ध रह गया और उन्हे जाहिर पीर ( प्रत्यक्ष दिव्यात्मा) कहा । शीर्षमेडी के नाम से विख्यात यह स्थान हनुमानगढ़ जिले की नोहर तहसील में है। इसके पास में ही गोरखटीला है तथा नाथ संप्रदाय का विशाल मंदिर स्थित है।
शेष बचे वीर योद्धाओं ने ददरेवा आकर गोगा के भाई बैरसी के पुत्र उदयराज को राणा बनाया। उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के सैनिक भारी संख्या में ददरेवा पहुंचे लेकिन उस समय तक सब कुछ बदल गया था। चौहान वंश समेत अन्य वंशों के योद्धा गोगा जी के सम्मान में ददरेवा आए। उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों के अनुयायी आज भी पीले वस्त्रों मे परंपरा को निभाने के लिए उपस्थित होते हैं। इस युद्ध के बाद जाहरवीर गोगा के मात्र एक पुत्र सज्जन और एक पौत्र सामन्त जीवित बचे थे, क्योंकि गोगा जी ने उन्हे गजनवी के आक्रमण की पूर्व सूचना देने के लिए गुजरात भेजा था। युद्ध समाप्त होने के बाद भी राजपूतों ने हार नहीं मानी।
सामंत सिंह और सज्जन सिंह रास्ता बताने वाले दूत बनकर गजनवी की सेना में शामिल हो गए। उन्होंने आक्रान्ता मुगल सेना को ऐसा घुमाया कि राजस्थान की तपती रेत, गर्मी और पानी की कमी के चलते, रात में सांपों के काटने से गजनवी के हज़ारों सैनिक मारे गए। ये दोनों वीर राजपूत युवक भी मरुभूमि में वीरगति को प्राप्त हो गए किन्तु तब तक गजनवी की आधी सेना खत्म हो चुकी थी। जाहरवीर गोगादेव की मृत्यु के बाद उनके भाई बैरसी और उनके पुत्र उदयराज ददरेवा के उत्तराधिकारी बने। जिसमें वीर गोगाजी के बाद बैरसी, उदयराज, जसकरण, केसोराई, मदनसी, विजयराज, पृथ्वीराज, गोपाल, लालचंद, अजयचंद, जैतसी आदि ददरेवा राज्य की गद्दी पर उत्तराधिकारी के रूप में विराजमान हुए थे।
इतिहासकारों को सन 1213 ई का जैतसी का शिलालेख प्राप्त हुआ है। जिसमें जैतसी का वंशक्रम कायम खान रासोकार तक माना गया है और इसी शिलालेख से राजा जैतसी की एक निश्चित तिथि प्राप्त होती है । वीर गोगाजी से जैतसी तक के शासनकाल में चौहानों में कुल नौ राणाओं ने शासन किया था जो बाद में कायंम खान के वंशज कायम खानी चौहान (मुस्लिम) कहलाए थे। सत्य तो यह है कि वीर गोगाजी के 13वें वंशज कर्मसी जब बालक थे तब उन्हें मुस्लिम बादशाह फिरोजशाह तुगलक उठाकर ले गया था और जबरदस्ती मुसलमान बनाकर उनका नाम कायंम खान रख दिया और फिरोजशाह तुगलक ने अपनी बेटी का विवाह उनसे कर दिया था। बाद में वही कायंम खान हिसार का नवाब बना। वीर योद्धा कर्मशी को मुस्लिम बादशाह फिरोजशाह तुगलक ने धर्म परिवर्तन कर मुसलमान तो बना दिया लेकिन उनके हिन्दू धर्म में आस्था, श्रद्धा और संस्कार इतने प्रबल थे कि आज भी उनके वंशज हिन्दू रीति रिवाजों का पालन करते हैं और वीर गोगाजी की पूजा करते है।