1965 के वक्त भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री थे। उस वक्त कश्मीर विवाद से अलग गुजरात में मौजूद कच्छ के रण की सीमा भी उस समय विवादित थी। इस सीमा पर पाकिस्तान ने जनवरी 1965 से गश्त शुरू की थी। इसके बाद यहां पर एक के बाद एक दोनों देशों के बीच 8 अप्रैल से पोस्ट्स का विवाद शुरू हो गया था। उस समय के ब्रिटिश पीएम हैरॉल्डट विल्सगन ने दोनों देशों के बीच इस विवाद को सुलझाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। इस विवाद को खत्म करने के लिए एक ट्रिब्यूनल का गठन किया गया था। हालांकि विवाद सन् 1968 में जाकर सुलझा था, लेकिन उससे पहले ही दोनों देशों के बीच 1965 की जंग हुई थी। जिसमें पाकिस्तान को हमेशा की तरह हार का सामना करना पड़ा था। और इस बार की हार में तो पाकिस्तान अपना लाहौर भी गँवा बैठा था लेकिन उससे पहले ही 10 जनवरी 1965 को ताशकंद समझौता हुआ जिसके बाद दोनों देशों के बीच युद्ध विराम की घोषणा हो गई।
दरअसल हम सब जानते हैं कि भारत से अलग होकर विश्व मानचित्र पर जबसे पाकिस्तान आस्तित्व में आया तब से ही उसकी नापाक निगाहें भारत और खासकर जम्मू कश्मीर पर टिकी रहीं। जम्मू कश्मीर को जबरन हड़पने के लिए उसे जब भी मौका मिला उसने अपने नापाक इरादों से भारत पर हमला किया। 1947 में मिली हार के बाद जम्मू कश्मीर पर कब्जा करने की नियत से 1965 में पाकिस्तान का यह दूसरा हमला था। पाकिस्तान ने इस हमले को अंजाम देने वाले ऑपरेशन का नाम ऑपरेशन जिब्राल्टर रखा। पाकिस्तान को यह ग़लतफ़हमी थी कि वो भारत की आँखों में धूल झोंक कर अपने नापाक मंसूबों में कामयाब हो जाएगा। लेकिन इस बार भी पाकिस्तान का दाव पाकिस्तान के लिए ही भारी पड़ गया।
भारतीय सेना ने 5 अगस्त से 10 अगस्त 1965 के बीच कश्मीर घाटी में सैकड़ों घुसपैठियों की पहचान कर ली थी। वे सभी घुसपैठी साधारण वेश में कश्मीरी नागरिकों के साथ मिलकर भारत के खिलाफ विद्रोह शुरू करने की तैयारी में थे। लेकिन उससे पहले ही सेना ने उनमें से कई घुसपैठियों को गिरफ्तार करके उनसे पूछताछ शुरू कर दी थी। पूछताछ में यह खुलासा हुआ था कि पाकिस्तान की तरफ से 30 हजार से ज्यादा घुसपैठी कश्मीर कब्जा करने के मकसद से घुसपैठ कर रहे हैं। पाकिस्तान ने इस ऑपरेशन को ऑपरेशन जिब्राल्टर नाम दिया था।
दरअसल जिब्राल्टर, स्पेन के पास एक छोटा सा टापू है। जिब्राल्टर असल में स्पैनिश शब्द है, अरबी के ‘जबल तारिक’ का स्पैनिश उच्चारण। इस पहाड़ का नाम तारिक इब्न जियाद नाम के एक मशहूर अरब लड़ाके के नाम पर पड़ा था। वो उत्तरी अफ्रीका लांघकर स्पेन गया था। जिन नावों की मदद से वो वहां तक पहुंचा, उन्हें उसने जला दिया था। ताकि किसी भी सूरत में उसकी सेना पैर पीछे करने का खयाल मन में ना लाये।" पाकिस्तान भी इस नाम को अपनी जीत समझकर ऑपरेशन का नाम जिब्राल्टर रखा था। गिरफ्तार कैदियों से पूछताछ में पता चला था कि ऑपरेशन जिब्राल्टर के लिए योजनाएं कच्छ के रण से एक महीने पहले मई 1965 में बनाई गई थी। हालांकि भारतीय सेना ने सूझबूझ के साथ कार्रवाई करते हुये सितंबर के पहले ही सप्ताह में पाकिस्तान के ऑपरेशन जिब्राल्टर को फेल कर दिया था।
भारतीय सेना इस युद्ध में भी हमेशा की भाँती पाकिस्तानी सेना पर भारी पड़ी और उसे भारतीय सीमा से पीछे ढकेलना शुरू किया। एक वक्त यह भी आया जब भारतीय सेना ने पाकिस्तान की सेना को खदेड़ते हुए लाहौर के बाहर तक पहुँच गयी थी। 1965 की जंग के समय भारत के आर्मी चीफ थे जयंतो नाथ चौधरी उन्हीं की एक गलती के कारण भारत को पाकिस्तान से समझौता करना पड़ा और भारत को पाकिस्तान के जीते हुए सभी इलाके लौटाने पड़े। ऐसा दावा "1965 वॉर, द इनसाइड स्टोरी: डिफेंस मिनिस्टर वाई बी चव्हाण्स डायरी ऑफ इंडिया-पाकिस्तान वॉर" में किया गया है। ऐसा कहते हैं कि अगर इस बीच ताशकंद समझौता नहीं हुआ होता तो आज पाकिस्तान का हिस्सा भारत में होता और आज POJK की कोई समस्या भी नहीं होती।
बहरहाल इस जंग को समाप्त करने के लिए सोवियत संघ ने हस्तक्षेप किया। भारत को भी सोवियत संघ पर ही भरोसा था, सोवियत ने जनवरी 1966 के पहले हफ्ते में समझौते की शर्तों पर विचार करने के लिए भारत और पाकिस्तान को ताशकंद बुलाया। ताशकंद रूस के उज्बेकिस्तान में आता है और उस समय सोवियत संघ का हिस्सा था।
बैठक के दौरान लाल बहादुर शास्त्री जी ने कहा कि वो कश्मीर के बारे में कोई समझौता नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने अपने देशवासियों को वचन दिया है। शास्त्री जी चाहते थे कि समझौते की शर्तों में ‘नो वॉर क्लॉज’ भी शामिल हो। यानि पाकिस्तान की तरफ से ये आश्वासन दिया जाए कि आगे कभी वो भारत से लड़ाई नहीं करेगा। कहते हैं कि अयूब इसके लिए राजी भी हो गए थे, उन्होंने मान लिया था कि भारत के साथ अपने विवाद सुलझाने के लिए पाकिस्तान कभी भी सेना का सहारा नहीं लेगा। मगर भुट्टो ने उन्हें धमकाया, कहा कि वो पाकिस्तान में लोगों को बता देंगे कि अयूब ने देश के साथ गद्दारी की है। इसी कारण अयूब ने इस “नो-वॉर क्लॉज” को समझौते में शामिल करने से इनकार कर दिया था।
दोनों देशों के बीच 10 जनवरी, 1966 को समझौते पर हस्ताक्षर हुए। भारत की तरफ से तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने हस्ताक्षर किए। समझौते में तय हुआ कि जंग से पहले दोनों देशों की जो स्थिति थी, वही बनी रहेगी। यानि दोनों देशों की सेनायें वापस अपने अपने स्थान पर जायेंगी। भारत ने स्वीकार कर लिया कि वह पाकिस्तान से जीते गए सारे इलाके लौटा देगा लेकिन इस बीच पाकिस्तान ने "नो वॉर क्लॉज" की शर्त को भी मानने से इंकार कर दिया।
10 जनवरी, 1966 यानि ताशकंद समझौते के दिन हमें एक साथ 2 बुरी ख़बरें मिली। पहला तो पाकिस्तान की जीती हुई जमीन को वापस लौटाना पड़ा, अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो आज POJK का मुद्दा ही नहीं होता। दूसरा सबसे बड़ा नुकसान रूस में हुए इस ताशकंद समझौते के महज 12 घंटे के भीतर ही भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। जोकि आज तक एक रहस्य बनी हुई है। दरअसल रात करीब 9:30 बजे का वक्त रहा होगा, ताशकंद का पूरा कार्यक्रम निपट चुका था, पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान और लाल बहादुर शास्त्री ने आखिरी बार एक दूसरे से हाथ मिलाकर विदाई ली। इसके बाद वो दोनों अपने-अपने कमरों में चले गए। तमाम रिपोर्ट्स के मुताबिक़ करीब चार घंटे बाद, रात तकरीबन डेढ़ बजे लाल बहादुर शास्त्री संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। शास्त्री जी का निधन आज तक एक रहस्य ही बना रहा गया।