कोट चरवाल नरसंहार 2001 ; जब राजौरी में इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा बक्करवाल समुदाय का किया गया नरसंहार

    09-फ़रवरी-2024
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Kot Charwal massacre 2001
 
वर्ष 1996 से लेकर 2001 के बीच के इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो कश्मीर संभाग की ही तरह आतंक का दंश झेल चुके जम्मू संभाग के लोगों का दर्द भी सामने आ जाएगा। 90 के दशक का दौर जम्मू कश्मीर के लिए एक काले धब्बे से कम नहीं था। कश्मीरी हिंदुओं का नरसंहार करने के बाद आतंक की हवा पीर पंजाल की पहाड़ियां पार कर जम्मू संभाग में आ पहुंचीं थीं। वर्ष 1990 के बाद धर्म के नाम पर खूनी खेल खेला गया। जम्मू में पहला बड़ा आतंकवादी हमला 1993 में हुआ, जब डोडा जिले में 17 हिंदुओं को बस से निकाल कर गोली मार दी गई। 1994 और 1995 में लगातार हुए बम धमाकों ने जम्मू शहर को हिलाकर रख दिया, और इससे यह साफ हो गया कि आतंकी विशेष रूप से हिंदु समुदाय के लोगों को अपना निशाना बना रहे हैं। 1996 तक, आतंकवाद पुंछ और राजौरी जैसे सीमावर्ती जिलों में फैल गया था। इन दोनों जिलों में मुस्लिम गुज्जर और बकरवाल समुदाय के लोग ज्यादा हैं।
 
 
कोट चरवाल नरसंहार
 
 
कहानी है 8 फरवरी, 2001 की जब आतंकियों के एक झुंड ने जम्मू के राजौरी जिले के कोट चरवाल में तीन झोपड़ियों को घेर कर हमला कर दिया। इस हमले में 7 बच्चों समेत 15 लोगों की जान चली गई। मारे गए सभी लोगों का ताल्लुक बकरवाल समुदाय से था। इस नरसंहार का कारण गुज्जर-बकरवाल समुदाय द्वारा बनाया गया विलेज डिफेंस कमेटी थी, जिसका गठन दिसंबर, 2000 में हिन्दुओं की रक्षा के लिए किया गया था। कोट चरवाल नरसंहार को इस्लामिक जिहादियों ने ऐसे समय में अंजाम दिया था, जब चरवाहों ने राजौरी के ऊपर पहाड़ों पर सक्रिय आतंकी गुटों से लोहा लिया था।
 
 
9 फरवरी 2001 को, जम्मू-कश्मीर के राजौरी जिले के कोट चरवाल गाँव में आने वाली सैनिकों की टुकड़ी इस भीषण नरसंहार का चश्मदीद गवाह बनी। ग्रामीणों की जली हुई झोपड़ियों के अंगारे शांत हो गए थे और सैनिकों ने 15 पीड़ितों के जले हुए शव बरामद किए, जिनमें 7 बच्चे शामिल थे। इस दर्दनाक नरसंहार ने एक नहीं बल्कि सभी को झकझोर कर रख दिया है। इस्लामिक जिहादियों ने किसी भी महिला या बच्चे को नहीं बख्शा। आतंकियों ने ग्रामीणों को इसलिए निशाना बनाया क्योंकि वे उनसे नहीं डरते थे।

Kot Charwal massacre 2001 
 
कोट चरवाल पहुंचे सैनिकों ने पहले सोचा कि वाले आतंकवादियों से बचने के लिए गुज्जर-बकरवाल समुदाय के लोग गांव के चारों ओर घने जंगल में भाग गए होंगे। लेकिन जैसे ही उन्होंने मलबा साफ करना शुरू किया, वे हैरान रह गए, उन्होंने पुरुषों, महिलाओं और यहां तक ​​कि बच्चों के शव भी निकालने शुरू कर दिए। खोज शुरू होने के एक घंटे बाद पहला जला हुआ शव निकला। बाद में उन्हें एक महिला का जला हुआ शव मिला, जिसके साथ एक नवजात शिशु भी लिपटा हुआ था। देर शाम तक 15 शव मिल चुके थे 7 बच्चे थे।
 
 
सलोही मोहरा के निवासियों ने हरकतुल मुजाहिदीन के आतंकवादी द्वारा एक स्थानीय निवासी को मार डाले जाने के बाद दिसंबर में जिले में पहली सर्व-मुस्लिम ग्राम रक्षा समिति का गठन किया था। समितियों की स्थापना हिंदू अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए की गई थी और वे स्थानीय आत्मरक्षा समूह थे जो आधिकारिक तौर पर राइफलों से लैस थे ताकि आतंकवादी हमलों और डराने-धमकाने के खिलाफ दूरदराज के पहाड़ी इलाकों की रक्षा की जा सके।
 
 
गुज्जर और बकरवाल समुदाय के लोगों के आतंकियों के खिलाफ उठ खड़े होने के बाद पिर पंजाल में आतंकियों का रहना मुश्किल हो गया था। सुरक्षाबलों ने इन समुदायों की मदद से आतंकियों को जम्मू क्षेत्र से खदेड़ दिया। 2014 के जम्मू-कश्मीर पुलिस के 'क्राइम गजट' ने बताया कि जम्मू, उधमपुर, रियासी, पुंछ, डोडा और संबा जिले में कोई भी आतंकी नहीं है। यह सच है कि सेना, पुलिस और स्थानीय नागरिक समाज समूहों ने जम्मू से आतंकवाद का सफाया करने में कई महत्वपूर्ण योगदान दिए हैं। आज अतीत को लगभग भुलाया जा चुका है लेकिन ऐसे में यह लेख इतिहास को याद रखने की एक छोटी सी कोशिश है।