Praja Parishad : 1947 से लेकर 1953 तक चला प्रजा परिषद आन्दोलन जम्मू-कश्मीर (Jammu Kashmir) के लोकतंत्रीकरण और उसके संघीय संवैधानिक व्यवस्था में एकीकरण के लिए चलाया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रजा परिषद् आंदोलन भारत में सबसे पहला और सबसे बड़ा जन-आंदोलन था। इस आंदोलन की शुरुआत जम्मू में शेख अब्दुल्ला द्वारा फैलाई गई अराजकता और अलगाववाद के खिलाफ हुई थी। शेख अब्दुल्ला (Sheikh Abdullah) के दो विधान, दो प्रधान और दो निशान के खिलाफ शुरू यह आन्दोलन देखते ही देखते एक जनांदोलन के रूप में परिवर्तित हो गया। आंदोलनकारियों की सीधी माँग थी कि भारत का पूरा संविधान पूरे जम्मू कश्मीर में लागू किया जाए। इस आंदोलन को पूरे राज्य की पहचान बनाने में सबसे बड़ी भूमिका श्री प्रेमनाथ डोगरा की थी और इसे पूरे देश में फैलाने का श्रेय श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी को जाता है। श्री मुखर्जी ने इस जन-आंदोलन को समूचे देश में राष्ट्रवादी पहचान दी।
प्रजा परिषद् आन्दोलन और शेख की दमनकारी नीति
वर्ष 1950 में भारतीय संविधान में आर्टिकल 370 जोड़ा गया और ये आर्टिकल परिणाम था शेख अब्दुल्ला की विभाजनकारी नीतियों का और नेहरू द्वारा शेख को अंध-समर्थन देने का। 1947 में जम्मू कश्मीर का भारत में अधिमिलन हुआ और भारत का सम्पूर्ण संविधान जब वहाँ लागू करने की बात आई तब शेख अब्दुल्ला ने इसे अपनी कुटिल चालों से रोकने का प्रयत्न किया। आर्टिकल 370 की आड़ में जम्मू कश्मीर में दो विधान, दो निशान, दो प्रधान की नीति अपनाई जा रही थी, साथ ही ऐसी कई नीतियाँ बनाई जा रही थीं जो देश के संविधान के विरुद्ध थी। आलम यह था कि अपने ही देश में तिरंगा उठाने वालो को गोलियों से भुन दिया जाता था, आन्दोलनकारियों को जेल में डाल दिया गया।
प्रजा परिषद् आन्दोलन के प्रणेता प्रेमनाथ डोगरा
यहाँ तक महिलाएं और बच्चों के साथ भी जुल्म किए गए। कल्पना कीजिये कि एक तरफ देश आज़ाद हुआ था, देश के बाकी हिस्सों में आजादी का जश्न मन रहा था, वहीँ दूसरी तरफ जिस तिरंगे को हाथ में लेकर स्वतंत्रता संग्राम हुआ, उसी तिरंगे को जम्मू कश्मीर में फहराने पर लोगों को गोली मार दी जा रही थी। प्रजा परिषद् आंदोलन में जुटे नेता शांतिपूर्ण ढंग से सिर्फ एक ही मांग पर अड़े थे, और वो था एक विधान, एक प्रधान और एक निशान। लेकिन जम्मू कश्मीर की तत्कालीन दमनकारी सरकार को यह मंजूर नहीं था और उसने यह कुकृत्य किया।
शेख अब्दुल्ला (Sheikh Abdullah) ने महाराजा हरिसिंह के ध्वज को हटाकर, नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC) के झंडे में थोड़े परिवर्तन कर उसे जम्मू कश्मीर राज्य का झंडा घोषित कर दिया। प्रजा परिषद् ने इसका विरोध किया और जम्मू कश्मीर के नौजवानों ने तिरंगे को फहराना शुरू कर दिया। नेहरू से अभयदान पाए हुए शेख अब्दुल्ला और उसकी सरकार के अत्याचार का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जम्मू कश्मीर के अलग अलग हिस्सों में 16 नौजवानों को गोलियों से भून दिया गया, क्योंकि उन्होंने अपने ही देश में तिरंगा फहराने का दुस्साहस किया था।
रामबन हत्याकांड- 1 मार्च 1955 में पुलिस ने एक बार फिर तीन युवाओं, शिब राम, देवी शरण और भगवान दास की तिरंगा फहराने का दुस्साहस करने पर हत्या कर दी। इन सभी वीरगति को प्राप्त बलिदानियों की स्मृति में इन स्थानों पर स्मारक बने हुए हैं
पहला तिरंगा हत्याकांड हुआ 14 दिसंबर 1952 को, जब छम्ब में मेला राम नमक युवा की पुलिस ने तिरंगा फहराने पर गोली मार कर हत्या कर दी। सरकार विरोधी आंदोलन वहाँ इतना बढ़ गया की अंतिम संस्कार के लिए मेला राम का पार्थिव शरीर जम्मू लाना पड़ा।
दूसरा हत्याकांड : 11 जनवरी 1953 को कठुआ ज़िले के हीरानगर में अब्दुल्ला सरकार द्वारा दूसरे हत्याकांड को अंजाम दिया गया। इस दौरान छान मोरियाँ गाँव के बिहारी लाल और गढ़ मुंडियां के भिख्म सिंह ने एक देश, एक विधान, एक निशान का नारा देते हुए तिरंगा फहराने की कोशिश की। तभी इन युवकों द्वारा तिरंगा फहराने का दुस्साहस करने पर शेख की पुलिस ने इन युवकों की नृशंस हत्या कर दी। इस गोलीबारी में कई और लोग भी बुरी तरह घायल हुए और एक व्यक्ति ज्ञानचंद संग्रा की आँखों की रौशनी चली गई। पुलिस की बर्बरता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि, हत्याकांड के बाद पुलिस दोनों का शव अपने साथ ले गई, बाद में उनके अधजले शरीर एक सुनसान इलाके से द्वारका नाथ को मिले, जो प्रजा परिषद् आंदोलन में शामिल थे।