इतिहास के पन्नों में 13 अप्रैल 1919, जलियांवाला बाग नरसंहार: जब कांग्रेस ने अंग्रेजों से जवाब मांगने के बजाय सिर्फ अपनी राजनीति चमकायी

    13-अप्रैल-2024
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JallianWala Bagh Massacre 1919 Story
 
अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 34वां अधिवेशन अमृतसर में बुलाया गया था। पहले दिन यानि 27 दिसंबर, 1919 को मोतीलाल नेहरू ने अध्यक्षीय भाषण दिया जिसमें उन्होंने ब्रिटिश शासन की शान में खूब तारीफ की। उस दौरान जॉर्ज फ्रेडेरिक (V) यूनाइटेड किंगडम के राजा और भारत के सम्राट कहे जाते थे। उनके उत्तराधिकारी प्रिंस ऑफ़ वेल्स, एडवर्ड अल्बर्ट (VIII) का 1921 में भारत दौरा प्रस्तावित था। अधिवेशन में मोतीलाल ने सर्वशक्तिमान भगवान से प्रार्थना करते हुए भारत की समृद्धि और संतोष के लिए एडवर्ड की बुद्धिमानी और नेतृत्व की सराहना की। वे, हालांकि, राजनैतिक आज़ादी की मांग तो कर रहे थे लेकिन ब्रिटिश शासन की उदारता और अपनी निष्ठा का भी जिक्र करना नहीं भूले।
 
 
इस किस्से को याद किया जाना इसलिए जरुरी है क्योंकि 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर में ही जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था। जब एक तरफ ब्रिटिश साम्राज्य की मोतीलाल स्तुति कर रहे थे तो वहां की संसद में डायर को क्षमता वाला अधिकारी बताया जा रहा था। वहां 19 जुलाई, 1920 के एक प्रस्ताव में कहा गया है कि डायर ने ‘कुशलता और मानवता के गुणों से अत्यंत प्रभावित किया है’। ब्रिटेन का यह नजरिया क्रूरता और फासीवाद का उदाहरण था। इससे भी खतरनाक और शर्मनाक था कि कांग्रेस ने इस प्रस्ताव पर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं दी।
 
 
तथ्य बताते हैं कि कांग्रेस अमृतसर अधिवेशन का मकसद नरसंहार से राजनीतिक फायदा उठाना था। दरअसल कांग्रेस के एक सदस्य ने अमृतसर के उप-आयुक्त को पत्र लिखकर सुझाव दिया कि अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन दोनों के हितों के लिए जरुरी है। उस कांग्रेस सदस्य ने लिखा है कि अगर ब्रिटिश सरकार कांग्रेस को अधिवेशन की अनुमति देती है तो इससे जनता के बीच सरकार की छवि में सुधार होगा। (भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार, होम पॉलिटिकल, जनवरी 1920/77) मोतीलाल के नेतृत्व वाली कांग्रेस उन खूनी धब्बों से ब्रिटिश सरकार को बचाने का प्रयास कर रही थी जिनके निशान आजतक अमृतसर में मौजूद है।
 

Jallianwala Bagh Hatyakand 
 
जलियांवाला बाग नरसंहार पर ब्रिटिश सरकार ने 1920 में डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित की। जिसमे बताया गया है कि 13 अप्रैल, 1919 को 5,000 से ज्यादा लोग वहां मौजूद थे। डायर के साथ 90 लोगों की फौज थी जिसमें 50 के पास राइफल्स और 40 के पास खुरकियाँ (छोटी तलवारें) थी। वे लगातार, बिना चेतावनी के, 10 मिनट तक गोलियां चलाते रहे। इस घटना के बाद डायर ने लिखित में बताया कि जितनी भी गोलियां चलाई गयी वह कम थी। अगर उसके पास पुलिस के जवान ज्यादा होते तो जनहानि भी अधिक होती।
 
 
नरसंहार में कितने लोग शहीद हुए आजतक इसकी कोई ठोस जानकारी नही है। राष्ट्रीय अभिलेखागार में गृह (राजनीतिक) की फाइल संख्या 23-1919 में इस संबंध में एक चौकाने वाली जानकारी मिलती है। फाइल के अनुसार एक ब्रिटिश अधिकारी जे.पी. थोमसन ने एच.डी. क्रैक को 10 अगस्त, 1919 को एक पत्र लिखा, “हम इस स्थिति में नहीं है जिसमें हम बता सके कि वास्तविकता में जलियांवाला बाग में कितने लोग मारे गए। जनरल डायर ने मुझे एक दिन बताया कि यह संख्या 200 से 300 के बीच हो सकती है। उसने यह भी बताया कि उसके फ्रांस के अनुभव के आधार पर 6 राउंड शॉट से एक व्यक्ति को मारा जा सकता हैं।” उस दिन कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गयी थी। इस प्रकार अनुमान के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने 291 लोगों के मारे जाने की पुष्टि कर दी। बाद में, डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमेटी ने 379 लोगों की जान और इसके तीन गुना लोगों के घायल होने की बात कही। उसी साल मदन मोहन मालवीय ने जलियांवाला बाग का दौरा किया था। उन्होंने बताया कि मरने वालों की संख्या 1,000 से ऊपर है।
 
 
जम्मू-कश्मीर से भी तक़रीबन दर्जन भर लोग डायर की गोलियों का निशाना बने थे। जिन कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद जनसभा का आयोजन किया गया था, उनमे से एक सैफुद्दीन किचलू बारामूला से थे। गौर करने वाली बात थी कि मोतीलाल नेहरू भी एक कश्मीरी पंडित थे। अब उनके बेटे जवाहरलाल नेहरू ने भी जलियांवाला बाग नरसंहार को कांग्रेस का एक उपक्रम बना दिया था। स्वतंत्रता के बाद जलियांवाला बाग ट्रस्ट को वैधानिक रूप दिया जाना प्रस्तावित था। प्रधानमंत्री नेहरू चाहते थे कि इसका विधेयक संसद के समक्ष प्रस्तुत न करके मंत्रिमंडल से ही पारित हो जाए। वे 11 मार्च, 1950 को लिखते हैं, “मैं चाहता हूँ कि इस विधेयक के मसौदे को जलियांवाला बाग मैनेजिंग कमिटी की बैठक में रखा जाए।उसके बाद, मुझे उसकी प्रति भेज दे। तब विधेयक को मंत्रिमंडल के समक्ष मंजूरी के लिए पेश किया जायेगा। जाहिर है इसे संसद के वर्तमान सेशन में नहीं रखा जा सकता, लेकिन यह मंत्रिमंडल के द्वारा पारित कराया जायेगा।” (भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार, गृह मंत्रालय, 16(11)-51 Judicial)
 
 
विधेयक के मसौदे पर एक भ्रम फैलाया जाता है कि इसे डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने तैयार किया था। दरअसल इसका मसौदा कांग्रेस के ही एक सदस्य टेकचंद ने बनाया था। अंबेडकर के पास तो यह समीक्षा के लिए 24 मार्च, 1950 को भेजा गया था। कुछ मामूली सुझावों के उन्होंने इसे वापस भेज दिया। जलियांवाला बाग मेमोरियल ट्रस्ट बिल, 1950 में नेहरू के साथ सरदार पटेल भी न्यासी थे। एक्स-ओफिसियो में पंजाब के राज्यपाल, पंजाब के मुख्यमंत्री और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष को रखा गया। इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार द्वारा पहले चार लोगों को नामांकित किया जा सकता था लेकिन अंत में यह संख्या तीन कर दी गयी। इसके न्यासी जीवन भर के लिए पदाधिकारी बनाये गए। आखिरकार, संसद के समक्ष 7 दिसंबर, 1950 को विधेयक प्रस्तुत किया गया। तब तक सरदार पटेल बेहद अस्वस्थ हो गए थे। उनके स्थान पर पहले राजकुमारी अमृत कौर के नाम पर विचार किया गया। बाद में नेहरू के सुझाव पर डॉ. सैफुद्दीन किचलू को न्यासी बनाया गया।
 
 
इन घटनाओं से एक बात तो साफ है कि कांग्रेस ने इस पूरे मामलें में अलोकतांत्रिक रवैया अपनाया। किसी अन्य दल और सामाजिक एवं राजनैतिक व्यक्ति से इस सन्दर्भ में चर्चा तक नहीं की गयी। शुरुआत में विधेयक को संसद में न लाकर मंत्रिमंडल से ही पारित किया जाना था। बाद में नेहरू ने इसे संसद के समक्ष रखा तो इसमें सभी सदस्य कांग्रेस के ही थे। नियम तो यहां तक था कि कांग्रेस का जो भी अध्यक्ष होगा वह ट्रस्ट का सदस्य होगा। यह विधान 1951 से लागू था जिसे भारत सरकार ने 2018 में बदल दिया।