25 अप्रैल 1990 ; कहानी कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार की, जब इस्लामिक आतंकियों ने की रविन्द्र कुमार पंडिता की नृशंस हत्या

    25-अप्रैल-2024
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Ravindra Kumar Pandita
 
1990 का दशक जम्मू कश्मीर के लिए एक काले धब्बे से कम नहीं था। धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू कश्मीर में 90 के दशक में धर्म के नाम पर खूनी खेल खेला गया। इस्लामिक जिहादियों ने घाटी में चुन चुन कर कश्मीरी हिन्दुओं को अपना निशाना बनाया। उन दिनों कश्‍मीर की मस्जिदों से रोज अज़ान के साथ-साथ कुछ और नारे भी गूंजते थे। जैसे : ''यहां क्‍या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा', 'कश्‍मीर में अगर रहना है, अल्‍लाहू अकबर कहना है'' और 'असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान' मतलब हमें पाकिस्‍तान चाहिए और हिंदू औरतें भी मगर अपने मर्दों के बिना।   
 
 
यक़ीनन 1990 का यह दौर कश्मीरी हिन्दुओं के विस्थापन का सबसे बड़ा गवाह बन गया। साल 1990 में आतंकवाद से ग्रसित लाखों की संख्या में कश्मीरी हिन्दू अपनी जन्मभूमि छोड़ने को मजबूर हुए और सैंकड़ों आतंकवाद की भेंट चढ़ गए। घाटी में पनपे इन पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों ने ना सिर्फ सिखों और कश्मीरी हिन्दुओं को अपना निशाना बनाया, बल्कि हिन्दू मंदिरों को भी क्षति ग्रस्त करने का काम किया। आतंकवाद के इस क्रूरता के शिकार हुए रविंद्र कुमार पंडिता, जो दूरसंचार विभाग में कार्यरत थे। 
 
 
रविंद्र कुमार पंडिता बेहद मध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते थें। वह अपनी पत्नी, मां और 3 जवान बेटियों के साथ अनंतनाग के मट्टान में रहते थे। उनका जीवन बेहद ही कठिनाइयों और संघर्षों से भरा हुआ था, लेकिन वे अपने काम और अपने परिवार के प्रति प्रतिबद्ध रहे, अपना जीवन सम्मान और साहस के साथ जीते रहे। लेकिन घाटी में पनपे इस्लामिक जिहादियों की नजर में रविन्द्र पंडिता 'एक काफिर और भारत के एजेंट' के अलावा कुछ नहीं थे। आतंकियों की नजर में वे खटकने लगे थे। उन्हें केवल उनके हिंदू धर्म और भारतीय के साथ जुड़ाव के कारण आतंकियों ने अपना निशाना बनाया था। रविन्द्र पंडिता बेहद शांत और नरम स्वभाव के व्यक्ति थे।
 

Ravindra Kumar Pandita 
 
25 अप्रैल, 1990
 
 
बात है 25 अप्रैल, 1990 की, यह दिन रविन्द्र पंडित के लिए बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण दिन रहा। रविन्द्र पंडित प्रतिदिन की तरह अपने काम से घर लौट रहे थे, इधर दूसरी तरफ उनके इंतजार में घात लगाए आतंकवादी बैठे थे। रविन्द्र पंडित इस बात से बिल्कुल अंजान थे कि कुछ ही क्षण बाद उनके साथ क्या होने वाला है। दफ्तर से घर लौटते वक्त रविन्द्र पंडित को रास्ते में घात लगाए बैठे आतंकवादियों ने बेहद ही नजदीक से गोली मार दी। गोली लगते ही वह जमीन पर गिर पड़े और अंततः अपने प्राण त्याग दिए। रविन्द्र पंडित की हत्या के बाद उन इस्लामिक जिहादियों ने उनके मृत पड़े शरीर के पास उत्सव मनाये और जमकर नारेबाजी भी की। इस पूरे दृश्य को वहां पास में खड़े सैकड़ों मुसलमान एक तक देखते रहे, किंतु आतंकवाद का ऐसा खौफ था कि किसी ने आवाज नहीं उठाई।
 
 
रविंद्र कुमार पंडिता की हत्या उन तमाम घटनाओं में से एक थी जो उन दिनों घाटी में इस्लामिक जिहादियों द्वारा रची जा रही थी। 90 के इस दौर में सैकड़ों निर्दोष हिंदू मारे गए, और हजारों को अपने घरों से मजबूरन बेघर होना पड़ा। लेकिन आतंकवाद के उस दौर में भी तमाम अराजकता और निराशा के बीच, ऐसे लोगों की साहस और लचीलेपन की कहानियां भी थीं, जिन्होंने डर और नफरत के आगे घुटने टेकने से इनकार कर दिया। रविन्द्र कुमार पंडिता भी एक ऐसे ही व्यक्ति थे, जिन्होंने बड़ी से बड़ी विपरीत परिस्थितियों में भी अपना जीवन गरिमा और साहस के साथ जिया। यक़ीनन यह हो सकता है कि उनका जीवन गरीबी और अभावग्रस्त में बिता हो, लेकिन वह सम्मान और सत्यनिष्ठा के धनी व्यक्ति थे, और उनकी स्मृति हमेशा उन लोगों द्वारा संजोई जाएगी जो उन्हें जानते थे।
 
 
आज, जब हम कश्मीर के इतिहास के उन काले दिनों को देखते हैं, तो हमें रविंदर कुमार पंडिता जैसे लोगों के बलिदानों को याद रखना चाहिए, जिन्होंने अपनी आस्था और अपने देश की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी। हमें अपनी बहुसांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने और सभी समुदायों के बीच सहिष्णुता और सद्भाव को बढ़ावा देने के महत्व को भी पहचानना चाहिए। तभी हम एक ऐसे समाज के निर्माण की आशा कर सकते हैं जो वास्तव में समावेशी और न्यायपूर्ण हो।' आज तेजी से बदलते इस नये दौर के साथ-साथ अतीत को लगभग भुलाया जा चुका है। लेकिन ऐसे में यह लेख इतिहास को याद रखने की एक छोटी सी कोशिश है।