29 अप्रैल 1791 जयंती विशेष ; महान योद्धा हरि सिंह नलवा की कहानी ; जिन्होंने पेशावर से काबुल और कांधार तक फहराई भारत की विजय पताका

    29-अप्रैल-2024
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Har Singh nalwa story
 
अफगानिस्तान को लेकर उसके बारे में हमेशा एक बात कही जाती रही है कि आज तक कोई भी सल्तनत अफगानिस्तान पर पूरी तरह से अपना अधिपत्य नहीं जमा सका। यहाँ तक कि एक समय बाद सोवियत संघ और अमेरिका जैसी महाशक्तियों को भी यहाँ से वापस लौटना पड़ा। किंतु इस मिथक को तोड़ने का काम किया सिख साम्राज्य के एक महान योद्धा हरि सिंह नलवा ने। हरि सिंह नलवा ने अफगानों को नाको चने चबवाते हुए 19वीं शताब्दी में अपनी वीरता और कुशल रणनीति के दम पर सिखों की सैन्य सफलताओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज यानि 29 अप्रैल को उस वीर बहादुर योद्धा की जन्म जयंती है, लिहाजा आज का यह लेख हरि सिंह नलवा की वीरता और उनके बलिदान को समर्पित है।
 
 
प्रारंभिक जीवन और सैन्य प्रशिक्षण
 
 
हरि सिंह नलवा का जन्म 28 अप्रैल 1791 में पंजाब के गुजरांवाला जिले में हुआ था,(जोकि आज पाकिस्तान के हिस्से में है)। हरि सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह के सबसे भरोसेमंद और प्रभावशाली सेनानायकों में से एक थे। हरि सिंह नलवा का पालन-पोषण एक सैन्य परिवार में हुआ था, जिसने उनकी सैन्य प्रतिभा को पहचानने और विकसित करने में मदद की। उन्होंने बहुत कम उम्र से ही युद्ध कला और रणनीति का प्रशिक्षण लिया और युवावस्था में ही महाराजा रणजीत सिंह की सेना में शामिल हो गए। इसके अलावा वे कश्मीर, हजारा और पेशावर के गवर्नर भी रहे। यहाँ तक कि पाकिस्तान के खैबर पख्तून्ख्वा प्रांत में आने वाले हरिपुर जिले को हरि सिंह नलवा के द्वारा ही बसाया गया था। यहाँ उनकी एक विशाल प्रतिमा भी लगाईं गई थी। 
 
 
सिख साम्राज्य की सैन्य उपलब्धियाँ
 
 
हरि सिंह नलवा ने सिख साम्राज्य के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे कई महत्वपूर्ण युद्धों में सेना का नेतृत्व करते हुए विजयी हुए, जिसमें कश्मीर, पेशावर, और मुल्तान की विजय प्रमुख हैं। उनकी सबसे प्रमुख जीतों में से एक जमरूद की लड़ाई थी, जहां उन्होंने अफगान आक्रमणकारियों को पराजित किया और पेशावर क्षेत्र में सिखों के अधिकार को मजबूत किया।
 
 
इतिहासकारों के मुताबिक हरि सिंह नलवा ने 1807 में महज 16 वर्ष की आयु में कसूर जोकि अब पाकिस्तान के हिस्से में है उस युद्ध में हिस्सा लिया। नलवा ने इस युद्ध में अफगानी शासक कुतुबुद्दीन खान को हराया। वहीं 1813 में नलवा ने अन्य कमांडरों के साथ मिलकर अटॉक के युद्ध में हिस्सा लिया और आजिम खान व उसके भाई मोहम्मद खान को हराया। यह दोनों तब काबुल के महमूद शाह की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे। इतिहासकारों की माने तो सिखों की दुर्रानी पठानों के खिलाफ यह पहली बड़ी जीत मानी जाती है। 1818 में सिख आर्मी ने नलवा के नेतृत्व में पेशावर का युद्ध जीता। तब नलवा को पंजाब-अफगान सीमा पर पैनी नजर रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई।
 
 
नेतृत्व क्षमता और विरासत
 
 
हरि सिंह नलवा की नेतृत्व क्षमता की गवाही उनके द्वारा निर्मित किलों और बचाव संरचनाओं में देखी जा सकती है। उन्होंने सिख साम्राज्य की सीमाओं की सुरक्षा के लिए कई किले बनवाए, जिनमें हरिपुर और हरिसिंहपुर जैसे किले शामिल हैं। उनकी ये सैन्य उपलब्धियां और दूरदर्शी निर्माण कार्य आज भी पंजाब के इतिहास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाते हैं। 1837 में नलवा ने जमरूद पर कब्जा जरूर जमाया जो कि खैबर पास के रास्ते अफगानिस्तान जाने का एकमात्र रास्ता था। लेकिन इसी जंग में 30 अप्रैल को सरदार हरि सिंह नलवा गोलियों के शिकार हो गए और फिर वीरगति को प्राप्त हो गए।
 
 
बलिदान
 
 
उनकी मृत्यु से सिख साम्राज्य और विशेषकर पंजाब क्षेत्र को गहरा धक्का लगा। उनकी वीरता, साहस और नेतृत्व की कहानियाँ आज भी पंजाबी संस्कृति और इतिहास का एक अनिवार्य हिस्सा हैं, और वे सिख इतिहास के सबसे प्रेरणादायक और सम्मानित नायकों में से एक रहे हैं। हरि सिंह नलवा की विरासत न केवल सिख समुदाय में बल्कि पूरे भारत में वीरता और नेतृत्व के प्रतीक के रूप में संजोयी गई है। उनके जीवन और कार्यों से प्रेरणा लेकर आज की पीढ़ी भी देश और समाज की सेवा के लिए प्रेरित होती है।