आचार्यशङ्कर एवं कश्मीर: राष्ट्रीय एकात्म के अनुपम उदाहरण

    14-मई-2024
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Adishankaracharya
 
विविध परम्पराओं एवं सम्प्रदायों में समन्वय का केंद्र कश्मीर भारत की ज्ञान कीर्ति को प्रदर्शित करता है। कश्मीर की धरा पर स्थापित शङ्कराचार्य मन्दिर आध्यात्मिक ज्ञान ही विविधता में एकात्म्य स्थापित करने में प्रासंगिक हो सकता है। इसका अनुपम उदाहरण आद्य शङ्कराचार्य हैं। वैदिक ज्ञान की विविध व्याख्याओं द्वारा जब वैदिक आध्यात्मिक उपासना पद्धति में कर्मकाण्ड अधिक महत्त्वपूर्ण होने लगात था, वैदिक ज्ञान के दुरूह होने की स्थिति में शङ्कराचार्य ने ब्रह्मसूत्र एवं उपनिषदों पर भाष्य शैली में लिखित व्याख्यान द्वारा पुनः वैदिक ज्ञान को प्रतिष्ठापित करने का अद्भुत प्रयास किया; जिसमें वे सफल भी हुए।
 
 
उस कालखंड में विश्व में अनेक नवीन विचारों का प्रचार-प्रसार हो रहा था; जिसमें इस्लाम मत एवं ईसाई मत प्रमुख हैं। शायद उसके आगामी प्रभाव से शङ्कराचार्य परिचित थे। अतएव शङ्कराचार्य ने केवल वैदिक ज्ञान का दार्शनिक दृष्टिव्याख्यान प्रारम्भ किया अपितु इस एकात्म्य पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा सम्पूर्ण भारत को एक सूत्रमें बाधने हेतु भारत भ्रमण करते हुए सम्पूर्ण भारत में चार मठों की स्थापना की।
 
 
अद्वैतवाद के प्रवल प्रवर्तक आचार्य द्वारा न केवल ज्ञान के स्तर पर एकत्व में बांधना एक मात्र उद्देश्य नहीं था, अपितु सम्पूर्ण भारतवर्ष को संस्कृति, सभ्यता एवं संस्कारों के माध्यम से एक सूत्र में बांधना भी परम उद्देश्य था। अत भारतवर्ष के चार दिशाओं में वैदिक संस्कृति को सम्पूर्ण स्थलों पर फैलाने के लिए एवं मठों के रक्षण हेतु दशनामी सन्यासियों की प्रकल्पना की। दशनामी संन्यासियों का उद्देश्य धर्म प्रचार के अतिरिक्त धर्म रक्षा करना भी था। इस द्वितीय उद्देश्य की सिद्धि के लिए उन्होंने अपना संगठन विभिन्न अखाड़ों के रूप में भी किया है। इन विविध अखाड़ों के साधुओं ने भारत एवं भारतीय संस्कृति को विदेशी आक्रमणकारियों से बचाने हेतु अनेक बार बलिदान दिए हैं; जो इतिहास प्रसिद्ध है।
 
 
शङ्कराचार्य के समय से वैदिक ज्ञान की नवीन दृष्टि से व्याख्याएँ होने लगी। विविध सम्प्रदायों में बाह्य कर्मकाण्ड के प्रबल होने से बढ़ते मतभेदों से भी आचार्य शङ्कर पूर्णपरिचित थे। अत उन विभेदों को भी समाप्त करने का कार्य आचार्य शङ्कर ने किया। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु आचार्य शङ्कर भारत के मुकुटमणि, ज्ञान के सर्वोत्तम तीर्थ एवं शैव परम्परा के प्रमुख क्षेत्र कश्मीर भी गए। उस काल में न केवल कश्मीर की ज्ञान कीर्ति प्रचलित थी। अपितु विविध परम्पराओं एवं सम्प्रदायों में अद्भुत समन्वय के लिए उसकी कीर्ति थी। वैष्णव, शाक्त, शैव, सौर परम्परा, बौद्ध, जैन एवं तन्त्र की विविध परम्पराएँ कश्मीर क्षेत्र से सम्पूर्ण भारत में प्रचारित हुई। इन सभी सम्प्रदायों में कोई भी वैमनस्य नहीं था। अत कश्मीर के शारदा पीठ में शास्त्रार्थ हेतु आचार्य शङ्कर स्वयं गए। कश्मीर की धरा पर पल्लवित पुष्पित शङ्कराचार्य मन्दिर भारत की ज्ञान कीर्ति को आज भी शिरोधार्य किए हुए हैं।
 
 
अपनी सम्पूर्ण भारत की यात्रा से शङ्कराचार्य ने आध्यात्मिक ज्ञान के महत्त्व को भी स्पष्ट किया; जिसके द्वारा विविध मत-मतान्तरों में समन्वय स्थापित हो सकता है। वे शङ्कराचार्य ही थे; जिन्होंने न केवल अपने कालखंड में वैदिक ज्ञान को संरक्षित किया अपितु उनके द्वारा प्रतिष्ठित सिद्धान्त आज भी उसी रूप में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। अपने इसी आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा भारत आज भी अपनी कीर्ति सम्पूर्ण विश्व में फैला रहा है। जिसमें अहं ब्रह्मास्मि (बृहदारण्यकोपनिषद् १/४/१०), तत्त्वमसि (छान्दोग्योपनिषद् ६/८/७), अयमात्मा ब्रह्म (माण्डूक्योपनिषद् १/२) एवं प्रज्ञानं ब्रह्म (ऐतरेयोपनिषद् १/२) की ही भावना निहित है।
 
 
प्रौद्योगिकी के वर्तमान समय में विश्व निरंतर आगे बढ़ रहा है; तथापि इस मार्ग में अनेक विकट चुनौतियाँ भी जन्म ले रही हैं। पृथिवी पर पृथिवी के निवासियों में मानव के प्रति ही स्वार्थ प्रवृत्ति के कारण, परस्पर मैत्री भाव, करणीय कर्तव्यों का अभाव से युद्ध तथा अघोषित युद्ध जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। ऐसे परिवेश में वैश्विक परिदृश्य में भारतीय जीवन दर्शन की सार्वभौमिकता सर्वत्र प्रासङ्गिक है। समस्त अभ्युदयों का प्रयोजक है समाज एवं राष्ट्र में परस्पर संगठन, संवर्धन, सद्भाव तथा अपने ही न्यायोचित भाग में एकमात्र संतोष रखना, दूसरों के भोगों को लेने की इच्छा तक नहीं करना इत्यादि। यही मानवता का आदर्श भी है।
 
 
उपनिषद् कहते हैं –
 
 
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा, मागृधः कस्यस्विद्धनम्॥ (ईशावास्योपनिषद्)
 
 
त्याग भाव का यह उपदेश आज समस्त राष्ट्रों के लिए अनुकरणीय है। परस्पर मैत्री भाव से युक्त होकर एक साथ रहने, बोलने, खाने-पीने तथा एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करने का उपदेश वेद में मिलते हैं। जो समस्त राष्ट्रों, समुदायों, एवं मनुष्यों से समदृष्टिएवं समभाव से परस्पर आगे बढ़ने का आह्वान करते हैं।
 
 
वैदिक ऋषि कहते हैं –
 
 
संगच्छध्वं संवदध्वं संवोमनांसिजानताम्।
देवाभागं यथापूर्वे सञ्जानाना उपासते। (ऋग्वेद १०/१९१/२)
 
 
वैदिक ऋषियों की वेदोक्त समदृष्टि केवल उपदेश मात्र नहीं; अपितु यह उनका अनुभव जन्य साक्षात्कृत ज्ञान है। जो सभी काल, स्थान, परिस्थिति में अनुकरणीय एवं अकाट्य हैं। अत आज के बदलते वैश्विक परिदृश्य में आचार्य शङ्कर अत्यन्त प्रासङ्गिक हैं।
 
 
 
डॉ. रमेश चंद्र नैलवाल,
सहायक आचार्य
बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ