अंग्रेज़ों के जाने और भारतीय रियासतों के नई सांविधानिक व्यवस्था में अधिमिलन के बाद, महाराजा हरि सिंह समझ चुके थे कि इतिहास का रथ जिस दिशा में जा रहा है, उसे पलटा नहीं जा सकता। 1934 से ही उन्होंने रियासत में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली शुरू कर दी थी। राज्य में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई विधानसभा (प्रजा सभा) काम कर रही थी। लेकिन बदली परिस्थितियों में महाराजा को भी जनता का ही प्रतिनिधि बनना होगा। महाराजा हरि सिंह ने राज्य के आम लोगों से मिलने का निर्णय किया। नए निज़ाम में लोक की इच्छा सर्वोपरि होगी। सरदार पटेल भी राज्य में भविष्य की इबारत को पढ़ पा रहे थे। उन्होंने भी महाराजा हरि सिंह को यही सलाह दी: जनता के बीच जाएं। भविष्य में आम जन ही तय करेगा कि उसका शासक कौन होगा।
महाराजा हरि सिंह ने राज्य का प्रवास प्रारम्भ किया। जून-जुलाई की तपती दोपहरियों में वे जनता से मिलने निकले। अपने विचार, भविष्य के सपने और राज्य के विकास की बातें जम्मू-कश्मीर की जनता से साझा करने लगे। राजशाही का युग समाप्त हो चुका था। लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित हो रही थी। अब तक महाराजा गुलाब सिंह के वंशज होने के नाते सत्ता में थे, लेकिन अब वे रियासत के लोकमत को परखना चाहते थे।
महाराजा हरि सिंह लोकतंत्र का पटका पहन कर मैदान में उतर आए। शेख़ अब्दुल्ला के लिए यह खतरे की घंटी थी। महाराजा के रियासत प्रवास से शेख़ की लोकप्रियता घट सकती थी और जल्दी ही यह निर्णय हो जाता कि राज्य की जनता किसके साथ है - शेख़ अब्दुल्ला या हरि सिंह? शेख़ अब्दुल्ला इस निर्णय से बचना चाहता था क्योंकि यह उसकी योजना के लिए खतरे की घंटी थी। शेख़ ने महाराजा को राज्य से निष्कासित करने का षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया। राज्य के राजप्रमुख को राज्य से निष्कासित करना महाराजा हरि सिंह के लिए अपमान की पराकाष्ठा थी। लेकिन शेख़ अब्दुल्ला और नेहरू इस खेल में साथी थे। इसमें एक बाधा थी: महाराजा की अनुपस्थिति में उनका कोई रीजैंट (प्रतिनिधि) होना चाहिए। यह रीजैंट या प्रतिनिधि उनका बेटा ही हो सकता था। महाराजा हरि सिंह का एक ही बेटा था जिसका नाम कर्ण सिंह था, और उनके पिता उन्हें टाइगर कहा करते थे।
महाराजा हरि सिंह को सरदार पटेल का निमंत्रण मिला जिसमें हरि सिंह, उनकी पत्नी महारानी और युवराज करण सिंह को बातचीत के लिए दिल्ली आने का सुझाव दिया गया था। अतः अप्रैल 1949 में वे एक चार्टर्ड विमान डी.सी-3 में नई दिल्ली के लिए रवाना हो गए।
दिल्ली में सरदार पटेल ने हरि सिंह को शालीनता से, लेकिन स्पष्ट रूप से बता दिया कि शेख़ अब्दुल्ला उनके राज त्याग पर जोर दे रहे हैं। भारत सरकार का मानना था कि यदि वे और महारानी कुछ महीनों के लिए रियासत से अनुपस्थित रहें तो यही काफी होगा। उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र में सक्रियता से उठाई माँग से उत्पन्न जटिलताओं को देखते हुए राष्ट्र हित में यह आवश्यक है। उन्होंने युवराज कर्ण सिंह के बारे में कहा कि क्योंकि अब वो अमेरिका से लौट आया है, अतः पिता अपनी अनुपस्थिति में अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को निभाने के लिए उसे अपना रीजैंट नियुक्त कर दें।
बाद में, हरि सिंह ने राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को दिए गए एक ज्ञापन में इस षड्यंत्र का उल्लेख किया। उन्हीं के शब्दों में: "शेख अब्दुल्ला और उनकी पार्टी ने सारा सत्ता अपने हाथ में ले ली, मेरी उपेक्षा की और जहां जरूरी समझा, भारत सरकार की सहमति से राज्य में अपनी मनमानी की। इसने धीरे-धीरे एक गिरावट को जन्म दिया और बाहरी दुनिया में राज्य और शेख अब्दुल्ला एक हो गए। कश्मीर की जनता की उपेक्षा हुई और शेख अब्दुल्ला की हर इच्छा राज्य के नाम पर भारत सरकार की सहमति से पूरी की गई। इस स्थिति में सरदार पटेल के सुझाव पर मैंने और मेरी पत्नी ने राज्य का दौरा शुरू किया। यह शेख अब्दुल्ला के लिए असहनीय था। उन्होंने भारत सरकार से संपर्क किया जिसके परिणामस्वरूप मुझे कुछ महीनों के लिए राज्य से बाहर रहने को कहा गया।"
**स्पष्ट है कि शेख़ अब्दुल्ला का असली कष्ट हरि सिंह द्वारा सरदार पटेल के सुझाव पर किया जा रहा रियासत का प्रवास ही था। लेकिन अब पटेल ही महाराजा को रियासत छोड़ने का सुझाव दे रहे थे।**
ज़ाहिर है कि सरदार पटेल के इस प्रस्ताव से महाराजा हरि सिंह को धक्का लगा। हरि सिंह खुद्दार और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। हार या असफलता से उन्हें सख़्त नफ़रत थी। (आत्मकथा 46) सबसे बड़ी बात यह थी कि रियासत छोड़ने का यह दो टूक आदेश उन्हें सरदार पटेल से मिल रहा था, जिन पर उन्हें गहरा विश्वास था। इससे भी बड़ी बात यह थी कि यह सज़ा उन्हें बिना किसी कारण के दी जा रही थी। अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद उन्होंने वही किया था जिसकी सलाह सरदार पटेल ने उन्हें दी थी। लेकिन शेख़ अब्दुल्ला अब तक भारत सरकार को लगभग ब्लैकमेल करने की स्थिति में आ गया था और दिल्ली उसके आगे झुकने लगी थी। सबसे दुख की बात यह कि पंडित नेहरू पूरी स्थिति पर गुण-दोष के आधार पर विचार नहीं कर रहे थे, बल्कि उनके निर्णय के पीछे कहीं न कहीं हरि सिंह के प्रति व्यक्तिगत विद्वेष भावना भी काम कर रही थी। इतना तो स्पष्ट था कि सरदार पटेल महाराजा हरि सिंह को केवल पंडित जवाहरलाल नेहरू का संदेश ही पहुँचा रहे थे। यह संदेश अकेले पंडित नेहरू का भी नहीं था। यह नेहरू और शेख़ अब्दुल्ला का संयुक्त संदेश था।
भविष्य को धूमिल करने वाली यह पटकथा इन दोनों की मंत्रणा से उपजी थी। लेकिन नेहरू महाराजा से सीधे बातचीत करने का साहस शायद नहीं बटोर पा रहे थे। उन्हें लग रहा होगा कि महाराजा उनके इस असंवैधानिक प्रस्ताव को मानने से इंकार कर देंगे। इसलिए उन्होंने सरदार पटेल को संदेशवाहक के रूप में चुना। पटेल इतना तो जानते ही थे कि जम्मू-कश्मीर का मामला रियासती मंत्रालय से सम्बंधित होने के बावजूद प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने पास रखा हुआ है और वे इसमें किसी तीसरे की दख़लअंदाज़ी किसी भी क़ीमत पर सहन नहीं कर पाते। नेहरू-शेख़ अब्दुल्ला की इस योजना और सरदार पटेल के इस दो टूक आदेश के बावजूद शेख़ के षड्यंत्रों को परास्त करने का एक रास्ता अभी भी बचा हुआ था। प्रदेश के राज प्रमुख को, चाहे अस्थायी रूप से, चाहे किसी अन्य कारण से राज्य से बाहर नहीं भेजा जा सकता जब तक वह अपना रीजैंट या प्रतिनिधि नियुक्त न कर दे। यह रीजैंट महाराजा हरि सिंह का बेटा ही हो सकता था, क्योंकि प्रदेश में अभी राजशाही समाप्त नहीं हुई थी और न ही प्रादेशिक संविधान/विधान सभा के चुनाव हुए थे।
संकट की उस घड़ी में कर्ण सिंह ने अपने पिता के साथ खड़ा होने की बजाय अपने समय के 'महानतम नेताओं में से एक' नेहरू और शेख़ के साथ जाने का फ़ैसला किया। उन्होंने रीजैंट बनने के नेहरू और शेख़ अब्दुल्ला के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। महाराजा हरि सिंह के अपने टाइगर ने उन्हें ज़िन्दगी का सबसे गहरा घाव दिया, जो उनके जीवन के अन्तिम क्षणों तक रिसता रहा। विरोध के बावजूद कर्ण सिंह द्वारा रीजैंट बनने का प्रस्ताव स्वीकार कर लेने के बाद महाराजा हरि सिंह के लिए लगभग सभी विकल्प समाप्त हो गए थे।
20 जून 1949 का दिन जम्मू-कश्मीर के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। महाराजा हरि सिंह ने लिखा:
"स्वास्थ्य कारणों से मैंने अल्पकालिक अवधि के लिए रियासत से बाहर जाने का निर्णय किया है। इस अवधि में रियासत की सरकार से सम्बंधित अपने सभी अधिकारों और कर्तव्यों की ज़िम्मेदारी मैं युवराज कर्ण सिंह जी बहादुर को सौंपता हूँ। अतः मैं निर्देश देता हूँ और घोषणा करता हूँ कि मेरी अनुपस्थिति के दौरान रियासत तथा उसकी सरकार से जुड़े मेरे सभी अधिकारों और कर्तव्यों को युवराज को सौंपा जाए। ये अधिकार और कर्तव्य, चाहे विधायी हों या कार्यकारी, सभी युवराज में निहित रहेंगे। विशेष रूप से कानून बनाने, घोषणापत्र जारी करने, आदेश जारी करने, और अपराधियों की सज़ाएँ माफ़ करने के विशेषाधिकार भी युवराज के पास ही रहेंगे।"
**अपना राजपाट कर्ण सिंह को सौंपकर, महाराजा हरि सिंह अपनी रवानगी से पहले ही, अपने स्टाफ़ और नौकर-चाकरों के साथ सुबह ही मुंबई के लिए रवाना हो गए। उनका नया पता था- कश्मीर हाऊस, 19 नेपियन सी रोड, मुंबई।**
**महाराजा हरि सिंह के निष्कासन के इस पूरे प्रसंग का शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने इस प्रकार उल्लेख किया है: "यद्यपि महाराजा ने दबाव में आकर लोकतांत्रिक सरकार का गठन कर दिया था, लेकिन अंदर ही अंदर वह ग़ुस्से से झाग उगल रहा था। जैसे ही उसे अवसर मिला, उसने हमारे प्रशासन में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। उसने हमारे मंत्रिमंडल में कर्नल बलदेव सिंह पठानिया को बजीर-ए-हुज़ूर नियुक्त कर दिया, जिसे हमारे और उसके बीच संपर्क रखना था। लेकिन पठानिया कोई रचनात्मक भूमिका नहीं निभा पाया। परिणामस्वरूप हमारे और महाराजा के संबंध दिन प्रतिदिन तनावपूर्ण होते गए। तब मैंने केंद्र को बता दिया कि हालात सुधारने का एक ही तरीक़ा है कि महाराजा को निष्कासित कर दिया जाए। यद्यपि महाराजा को पटेल का समर्थन हासिल था, लेकिन केंद्र हमारी अवहेलना करने की स्थिति में नहीं था। इसलिए हरि सिंह को मुंबई जाना पड़ा। लेकिन आयंगर ने पटेल को ख़ुश करने का एक तरीक़ा ढूँढ लिया। उसने कर्ण सिंह को राज्य का संवैधानिक मुखिया नियुक्त करवा दिया। हमने जवाहरलाल के आग्रह पर इस नियुक्ति को स्वीकार कर लिया। इस पर भी जब हरि सिंह राज्य छोड़ रहा था, तो उसने पटेल को लिखा कि 'मैं तीन या चार महीने के लिए बाहर जा रहा हूँ। इसे मेरे निष्कासन की भूमिका न समझा जाए।' लेकिन उसकी इस रवानगी से उसके शासन का अंत हो गया।"