28 जून 1999 : कैप्टन नेइकझुको केंगुरुस की शौर्यगाथा, कारगिल युद्ध के दौरान पाक सैनिकों को घुटने टेंकने पर कर दिया था मजबूर

    28-जून-2024
Total Views |

 Captain Neikzhuko Kenguruse
 
वर्ष 1999 में, जब कारगिल युद्ध शुरू हुआ, तो कैप्टन केंगुरुसी राजपूताना राइफल्स बटालियन में जूनियर कमांडर थे। अपने दृढ़ संकल्प और कौशल के लिए, उन्हें घातक पलटन बटालियन का मुख्य कमांडर बनाया गया था। शारीरिक रूप से फिट और प्रेरित सैनिक ही इस पलटन में जगह बना सकते हैं।
 
 
28 जून 1999 की रात को इस पलटन को ब्लैक रॉक पर दुश्मन द्वारा रखी गयी मशीन गन पोस्ट को हासिल करना था। इसकी फायरिंग के चलते भारतीय सेना उन दिनों उस क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पा रही थी। जैसे ही कमांडो पलटन ने चट्टान को पार किया, उन पर मोर्टार और आटोमेटिक गन से फायरिंग होने लगी। जिसमें सभी सैनिकों को चोटें आयीं। कप्तान केंगुरुसी को भी पेट में गोली लगी। अपनी चोट के बावजूद उन्होंने अपनी सेना को आगे बढ़ते रहने को कहा। जब वे अंतिम चट्टान पर पहुंच गए तो उनके और दुश्मन पोस्ट के बीच केवल एक दीवार थी।
 
 
उनके सैनिक आगे बढ़ें और इस दीवार को भी पार करें इसके लिए कप्तान केंगुरुसी ने एक रस्सी जुटायी। हालाँकि, बर्फीली चट्टान पर उनके जूते फिसल रहे थे। वे चाहते तो आसानी से वापस जाकर अपना इलाज करवा सकते थे। लेकिन कप्तान केंगुरुसी ने कुछ अलग करने की ठानी थी। 16,000 फीट की ऊंचाई पर और -10 डिग्री सेल्सियस के कड़े तापमान में, कप्तान केंगुरुसी ने अपने जूते उतार दिए।
 
 
उन्होंने नंगे पैर रस्सी की पकड़ बना कर आरपीजी रॉकेट लॉन्चर के साथ ऊपर की चढ़ाई की। ऊपर पहुंचने के बाद, उन्होंने सात पाकिस्तानी बंकरों पर रॉकेट लॉन्चर फायर किया। पाकिस्तान ने बंदूक की गोलीबारी के साथ जवाब दिया लेकिन उन्होंने भी तब तक गोलीबारी की जब तक कि उन्होंने पाकिस्तानी बंकरों को खत्म नहीं कर दिया। इसी बीच दो दुश्मन सैनिक उनके पास आ पहुंचे थे, जिन्हें उन्होंने चाकू से लड़ते हुए मार गिराया।
 
 
मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित
 
 
उन्होंने अपने राइफल से दो और घुसपैठियों को मार गिराया। लेकिन दुश्मन की गोली लगने से वे भी चट्टान से गिर गए पर उनके कारण बाकी सेना को दुश्मन पर हमला बोलने का मौका मिल गया। मिशन पूरा करने के बाद जब उनके साथियों ने नीचे गहराई में देखा, जहां उनके कैप्टन साहब का मृत शरीर पड़ा था, तो उन्होंने आंसुओं के साथ ये जीत उन्हें समर्पित की। युद्ध के दौरान रणभूमि में अनुकरणीय योगदान और अदम्य साहस के लिए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।