डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ किताब लिखी थी। जिसका पहला संस्करण 1945 में प्रकाशित हुआ। अभी भारत की संविधान सभा अस्तित्व में नहीं थी लेकिन पाकिस्तान को लेकर दंगा-फसाद शुरू हो चुका था। भारत के पश्चिमी और पूर्वी सीमा पर हिन्दुओं का नरसंहार हो रहा था। डॉ. अम्बेडकर ने सालों पहले ही सचेत कर दिया था कि अगर भारत का विभाजन होता है तो पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों का भविष्य सुरक्षित नहीं रहेगा।
इस बीच, विभाजन की घोषणा के बाद सीमाओं के निर्धारण का बेहद संवेदनशील काम था। पंजाब और बंगाल प्रान्तों को भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजित किया जाना था। इसके लिए दो बाउंड्री कमीशन एक पंजाब और एक बंगाल के लिए बनाये गये। प्रत्येक कमीशन में चार उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश, दो हिन्दू और दो मुसलमानों को शामिल किया गया। हालांकि, दोनों ही कमीशन किसी निर्णायक स्थिति पर नहीं आ रहे थे। ऐसे में इस कार्य के जल्दी निर्धारण के लिए एक ब्रिटिश वकील सायरिल रेडक्लिफ को नियुक्त किया गया।
भारत आने पहले, लियोनार्ड मोसली के अनुसार रेडक्लिफ को लन्दन स्थित परमानेंट अंडर सेक्रेटरी ने एक बड़े से नक्शे के माध्यम से मात्र 30 मिनट में बता दिया कि उसे 9 करोड़ लोगों के नए घरों, जीवनयापन और राष्ट्रीयता को कैसे निर्धारित करना है। अतः दोनों बाउंड्री कमीशन के अध्यक्ष रेडक्लिफ 8 जुलाई 1947 को भारत आये। कुछ दिनों दिल्ली में रहने के बाद उन्होंने कलकत्ता और लाहौर का दौरा किया। लियोनार्ड मोसली लिखते है कि उस दौरान बंगाल के ब्रिटिश गवर्नर फेडरिक बॉरोज ने रेडक्लिफ से कहा कि इस विभाजन के दो परिणाम होंगे, पहला absolute bloody murder और दूसरा ईस्ट बंगाल rural slum बन जायेगा।
इस काम के लिए रेडक्लिफ को मात्र पांच सप्ताह का समय दिया गया और उसने तय समय में अपना काम ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया। गौरतलब है कि माउंटबैटन योजना से लेकर सीमाओं का निर्धारण काम मात्र दो महीनों से भी कम समय में हो गया। भारत विभाजन वाले दिन ही रेडक्लिफ ब्रिटेन चला गया। लेकिन अभी इतिहास का सबसे क्रूरतम अध्याय लिखा जाना बाकी था।
अंततः जैसा बाबासाहेब आंबेडकर ने कल्पना की थी, वैसा ही हुआ। सांप्रदायिक विभाजन का हश्र बहुत ही भयावह था। लियोनार्ड मोसेली अपनी पुस्तक के पृष्ठ 279 पर लिखते हैं, अगस्त 1947 से अगले नौ महीनों में 1 करोड़ 40 लाख लोगों का विस्थापन हुआ। इस दौरान करीब 6 लाख लोगों की हत्या कर दी गयी। बच्चों को पैरों से उठाकर उनके सिर दीवार से फोड़ दिये। बच्चियों का बलात्कार किया गया, बलात्कार कर लड़कियों के स्तन काटे गये। गर्भवती महिलाओं के आतंरिक अंगों को बाहर निकाल दिया गया।
महिलाओं को उठानी पडी सबसे ज्यादा पीड़ा
एक के बाद एक गलतियां
विभाजन के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल लगातार चुनौतियों का सामना कर रहा था। विस्थापन, राहत और पुनर्वास के विषयों पर मंत्रिमंडल की कई बैठकें हुई। दुर्भाग्य से, प्रधानमंत्री नेहरू की तत्काल निर्णय न लेने की अक्षमता का नतीजा पाकिस्तान से आने वाले गैर-मुसलमानों को भुगतना पड़ा। हालांकि, वह स्वयं वहां की भयावह स्थितियों को स्वीकार करते थे, लेकिन कोई ठोस समाधान भी नहीं खोजते थे।
शुरूआती मंत्रिमंडल की एक बैठक में प्रधानमंत्री नेहरू ने स्वयं स्वीकार किया था कि पाकिस्तान की सरकार हिन्दुओं को वहां रहने नहीं देगी क्योंकि वे उनकी संपत्तियां हड़पना चाहते हैं (केस संख्या - 270/40/47)। बैठक में एक दृष्टिकोण यह था कि पाकिस्तान सरकार को वास्तव में गैर-मुस्लिमों के पलायन से बहुत अधिक नुकसान नहीं हुआ था। उन्हें हिन्दुओं की करोड़ों रुपये की संपत्ति मिल गयी है, जिसमें कारखाने, भवन, भूमि आदि शामिल हैं। इसलिए पाकिस्तान सरकार अल्पसंख्यकों को भगाने की योजना पर चल रही है।
एक महीने बाद यानि 17 सितम्बर 1947 को मंत्रिमंडल की दूसरी बैठक में भी यह दोहराया गया कि पाकिस्तान में हिन्दुओं को नहीं रहने दिया जायेगा (केस संख्या - 276/47/47)। पाकिस्तान सरकार और उसके बहुसंख्यक समुदाय की योजनाएं स्पष्ट थीं। वे चाहते है कि किसी भी गैर-मुसलमान को पाकिस्तान में रहने नहीं दिया जायेगा। जानकारी होने के बाद भी उन्होंने कोई साहसिक कदम नहीं उठाया।
जब प्रधानमंत्री को पता था कि पाकिस्तान में हिन्दुओं को रहने नहीं दिया जायेगा, फिर भी वह इस समस्या के समाधान नहीं खोज रहे थे। इसके उलट, वह अजीबोगरीब निर्णय ले रहे थे। उन्होंने मंत्रिमंडल की 18 सितम्बर 1947 को हुई बैठक में कहा कि भारत से जो मुसलमान पाकिस्तान गए हैं, उनके घरों को पाकिस्तान से आने वाले हिन्दुओं को नहीं दिया जायेगा। प्रधानमंत्री नेहरू का स्पष्ट मानना था कि भारत से मुसलमानों के पलायन के बाद खाली हुए उनके घरों का स्वामित्व और उनमें स्थित संपत्ति किसी अन्य को नहीं दी जाएगी। जबकि पाकिस्तान में हिन्दुओं के घरों को जबरन खाली करवाकर उन्हें मुसलमानों को दिया जा रहा था।
यह एक मुस्लिम तुष्टिकरण था, जोकि ब्रिटिश जमाने से चला आ रहा था। जवाहरलाल नेहरू भी इससे अछूते नहीं थे। विभाजन के दौरान भारत की आर्थिक स्थिति कमजोर थी इसलिए वैकल्पिक संसाधनों का इस्तेमाल जरुरी था। मगर प्रधानमंत्री की झूठी धर्मनिरपेक्षता ने ऐसा नहीं होने दिया। उन्हें लगता था कि अगर भारत से जो मुसलमान पाकिस्तान चले गये है, उनके घर पाकिस्तान से आने वाले हिन्दुओ को दे दिए तो भारत के मुसलमान नाराज़ हो जाएंगे।
सिंध से आने वाले सिख और हिन्दुओं पर मंत्रिमंडल का एक मेमोरेंडम 7 दिसंबर 1949 को तैयार किया गया। इस मेमोरेंडम में बताया गया कि सिंध में तकरीबन 14.57 लाख हिन्दू थे, उनमें से साल 1947 में 4.85 लाख भारत आ गये। इसके बाद जनवरी 1948 में कराची में हिन्दुओं और सिखों का फिर से सोची-समझी नीति के तहत नरसंहार किया गया। इसलिए वहां से लगभग 5 लाख और हिन्दुओं का भारत में पलायन हुआ। उस दौरान सिंध के थारपारकर में तकरीबन 2 लाख हिन्दू हरिजन बचे थे। लगभग ऐसी ही स्थिति पाकिस्तान के अन्य जिलों की थी, जहां दंगों में हिन्दुओं को निशाना बनाया गया।
पुनर्वास समिति की एक बैठक जोकि 16 दिसंबर 1949 को हुई, उसमें प्रधानमंत्री ने बताया कि पाकिस्तान के थारपारकर जिले के 1 लाख हरिजन हिन्दू भारत आना चाहते हैं । यह लोग खेती करते हैं और भारत सरकार अगर उन्हें खेती के लिए जमीन देती है, तो वे भारत आयेंगे। यह वास्तव में एक दुखद स्थिति थी। पाकिस्तान के हिन्दू अपने सुरक्षित भविष्य की शर्त पर भारत आना चाहते थे। उनका दुर्भाग्य था कि उनकी एक साधारण सी मांग को प्रधानमंत्री नेहरू पूरा करने में असमर्थ रहे और उनकी अपील को नजरंदाज कर दिया।
इसी बैठक में कार्यवाही में प्रधानमंत्री ने कहा कि हाल ही में श्री ठक्कर बापा और श्रीमती रामेश्वरी नेहरू ने सिंध के थारपारकर जिले के एक लाख हरिजनों से मुलाकात की है। उन्होंने बताया कि यह हरिजन बहुत कष्ट झेल रहे हैं और भारत आने के लिए उत्सुक है। पुनर्वास राज्य मंत्री ने प्रधानमंत्री नेहरू की बात से सहमत होते हुए कहा कि उनकी जानकारी के अनुसार यह हरिजन मुख्यतः किसान हैं। वे तभी भारत आयेंगे जब भारत में उनके पुनर्वास के लिए भूमि उपलब्ध कराई जाएगी।
हिन्दुओं और सिखों पर अत्याचार
विभाजन की मार्मिक घटनाओं को देखते हुए सरदार पटेल ने प्रधानमंत्री नेहरू को 2 सितम्बर 1947 को पत्र लिखा, “सुबह से शाम तक मेरा पूरा समय पश्चिम पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू और सिखों के दुख और अत्याचारों की कहानियों में बीत जाता है।”
पाकिस्तान सरकार के इस दमन और अत्याचार को समर्थन मिला हुआ था। पाकिस्तान की अल्पसंख्यक विरोधी सोच का एक उदाहरण उस दौरान पंजाब के गवर्नर जनरल फ्रांसिस मुड़ी के जिन्ना को लिखे पत्र से मिलता है। मुड़ी ने वह पत्र जिन्ना को 5 सितंबर 1947 को लिखा, “मुझे नहीं पता कि सिख सीमा कैसे पार करेंगे। महत्वपूर्ण यह है कि हमें जल्द से जल्द उनसे छुटकारा पाना होगा।”
पाकिस्तान के सिंध प्रान्त से हिन्दुओं पर हमले की खबरें लगातार मिल रही थीं। इस सन्दर्भ में प्रधानमंत्री नेहरू ने 8 जनवरी 1948 को बी.जी. खेर को एक टेलीग्राम भेजा, “स्थितियों को देखते हुए (सिंध में गैर-मुसलमानों की हत्या और लूट-पाट हो रही थी) सिंध से हिन्दू और सिख लोगों को निकालना होगा।” अगले दिन प्रधानमंत्री ने खेर को एक पत्र लिखकर सिंध के हालातों की जानकारी साझा की, “सिंध में हालात खराब हैं और मुझे डर है कि हमें भारी संख्या में निष्क्रमण देखना होगा। हम उन्हें (हिन्दुओं) सिंध में नहीं छोड़ सकते।”
पाकिस्तान में हिन्दुओं के नरसंहार को लेकर प्रधानमंत्री परेशान हो गये थे। उन्होंने सरदार पटेल को वहां की स्थितियां बताने के लिए 12 जनवरी 1948 को एक पत्र लिखा, “जैसा कि आप जानते हैं, सिंध से बड़ी संख्या में गैर-मुस्लिमों को निकालना होगा और उन्हें बचाने के लिए पर्याप्त व्यवस्था करनी होगी। मुझे लगता है कि सिंध से लोगों को समुद्र के रास्ते आसानी से निकाला जा सकता है।”
सरदार पटेल एक दूरदर्शी और गंभीर राजनेता थे। उन्होंने पाकिस्तान से आ रहे हिन्दू और सिखों की सुरक्षा और पुनर्वास के प्रयास पहले ही शुरू कर दिए थे। उनका स्पष्ट मत था कि पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों का रुकना संभव नहीं है। उन्होंने प्रधानमंत्री के पत्र का उत्तर लिखा, “मैंने पहले ही खेर को एक पत्र लिखा है और मैं अपनी आगामी बंबई यात्रा के दौरान उनसे और अन्य मंत्रियों से भी बात करूंगा। मैं काठियावाड़ में इन शरणार्थियों के लिए व्यवस्था किए जाने पर भी बात करुंगा।”
पश्चिमी पाकिस्तान के साथ पूर्वी पाकिस्तान में भी हिन्दुओं का नरसंहार जारी था। जो लोग भागकर भारत आ गये, उन्हें यहां बसाने के लिए प्रयास जारी थे। इसलिए 21 फरवरी 1950 को प्रधानमंत्री नेहरू ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बिधानचंद रॉय को एक पत्र लिखकर उन्हें बंगाल में ही बसाने का आग्रह किया, “हमारे सामने भयावह समस्या है और मानवीय दृष्टिकोण से इसका समाधान लगभग असंभव है। पूर्वी पाकिस्तान के अधिकांश हिंदू यहां आना चाहते हैं। वही, इन लाखों विस्थापित लोगों को अपनाना और पुनर्वास की व्यवस्था करना असंभव है। मुझे ऐसा लगता है कि हमें पूर्वी बंगाल में हिंदुओं को उनकी संतुष्टि के अनुरूप पूरी सुरक्षा देने और वहां बसाने के लिए जोर देना चाहिए। निःसंदेह हमें भयभीत शरणार्थियों को आश्रय देना और सहायता करनी चाहिए।”
भारत के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को कई पत्र और टेलीग्राम भी भेजे थे। ऐसा ही एक पत्र उन्होंने 24 फरवरी 1950 को लिखा, “ढाका मेल के यात्री रविवार, 12 फरवरी की रात को करीमगंज पहुंचे थे। उन्होंने बताया कि रास्ते में मुसलमानों ने ट्रेन को लूटा और अनेक हिन्दू यात्रियों की हत्या कर उन्हें भैरब ब्रिज से नदी में फेंक दिया।”
पाकिस्तान के साथ पत्राचार करने के बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं था। वहां से लगातार हिन्दुओं और सिखों को भगाया जा रहा था। भारत के प्रधानमंत्री ने प्रोविजनल संसद में 23 फरवरी 1950 को अपना वक्तव्य दिया, “पिछले कुछ समय से, पूर्वी पाकिस्तान में लगातार भारत विरोधी और हिंदू विरोधी प्रचार हो रहा है। वहां प्रेस, मंच और रेडियो के माध्यम से जनता को हिंदुओं के खिलाफ उकसाया जा रहा है। उन्हें काफिर, राज्य के दुश्मन और न जाने क्या-क्या कहा गया है। हिन्दुओं के साथ घृणा और हिंसा का ऐसा ही व्यवहार पश्चिमी पाकिस्तान में भी हो रहा है।”
पाकिस्तान ने हिन्दुओं के खिलाफ हिंसा की रोकथाम में कोई पहल नहीं की। फिर भी प्रधानमंत्री नेहरू को लगता था कि पत्राचार से समाधान निकल जाएगा। उन्होंने फिर से 4 मार्च 1950 को एक और पत्र भेजकर लियाकत से कहा, “13 फरवरी को लकुटिया जमींदार के घर में इकट्ठे हुए कई हिन्दुओं को बेरहमी से पीटा गया है। घर से छह युवतियों को गुंडों ने जबरन बाहर कर दिया और आस-पास के घरों में आग लगा दी।”
इस पत्र के बाद भी पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों की स्थिति में कभी सुधार नहीं आया। प्रधानमंत्री नेहरू के जीवित रहते पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से लाखों की संख्या में हिन्दू और सिखों का भारत में आने का सिलसिला जारी रहा। एक उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी और शायद ही उन्होंने इसका प्रायश्चित किया!