Partition Of India 1947 : इस सवाल के जवाब को खोजने के लिए हमें 20 फरवरी 1947 के दिन ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स की चर्चाओं को देखना होगा। दरअसल उस दिन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने बताया कि जून 1948 से पहले हिन्दुस्तानी सरकार को सत्ता सौंप दी जाएगी। इस काम के लिए उन्होंने माउंटबैटन को चुना। उन्होंने हाउस को इसी दिन बताया कि वेवल (तत्कालीन गवर्नर) इस्तीफा देंगे और उनकी जगह माउंटबैटन लेंगे।
इस सन्दर्भ में एक और किताब है, द लास्ट डेज ऑफ द ब्रिटिश राज’। इसके लेखक का नाम लियोनार्ड मोसली है। वह एक ब्रिटिश पत्रकार और इतिहासकार थे और तकरीबन 31 पुस्तकों के लेखक थे। वह लिखते हैं, “Mountbatten believed in driving things through, by short cuts if there were any. He approached the problem of Indian independence by June 1948 rather in the manner of a time-and-motion-study expert who has been called into a factory to knock off the wasteful minutes and get out the product before the target date.”
दरअसल, माउंटबैटन एक जल्द बाज किस्म के व्यक्ति थे और उन्हें अपना समय बर्बाद न होने की अधिक चिंता थी। इसी कारण के चलते भारत के विभाजन और उसकी विभीषिका के लिए माउंटबैटन सबसे ज्यादा जिम्मेदार थे। मोसली ने अपनी किताब में एक किस्से का जिक्र किया है। जब माउंटबैटन के नाम की घोषणा हुई तो सरदार पटेल ने अपने लोगों से रिपोर्ट मांगी। खबर मिली कि माउंटबैटन क्रांतिकारी झुकाववाला उदार रईस है। पटेल की प्रतिक्रिया थी – जवाहरलाल जी को एक खिलौना मिल जायेगा, हम लोग क्रांति की तबतक व्यवस्था करेंगे।
5 जून 1947 को, द ट्रिब्यून में प्रकाशित स्थानान्तरण की खबर
अंग्रेजों ने भारत से जाने की तारीख 1 जून 1948 ही क्यों तय की? क्या उसके लिए भारतीय नेताओं और जनमानस से पूछा गया था? जवाब है नहीं। मोसली लिखते हैं कि यह तारीख एटली ने नहीं बल्कि माउंटबैटन ने तय की थी। वह भी अपनी व्यक्तिगत योजना के अनुसार।
सवाल यह है कि वह व्यक्तिगत योजना क्या थी? इसका जवाब हमें एलन कैंपबेल-जोहानसन ने ‘मिशन विद माउंटबैटन’ में मिलता है। पुस्तक के अनुसार माउंटबैटन को दिसंबर 1946 में एटली ने मिलने बुलाया और वायसराय वेवल की जगह अगला वायसराय बनाने का आमंत्रण दिया। जबकि माउंटबैटन तब ब्रिटिश नौसेना के साथ जुड़ना चाहते थे। उन्हें प्रथम क्रूजर स्क्वेड्रन की कमान के लिए रियर एडमिरल बनना था। इसलिए शुरुआत में माउंटबैटन वायसराय बनने के लिए आनाकानी कर रहे थे।
माउंटबैटन की इस निजी इच्छा के आड़े एटली आ गये थे। मोसली लिखते हैं कि एटली ने माउंटबैटन को समझाया और कहा कि अगले दो सालों में भारत को सत्ता सौंप दी जाएगी। उसके बाद वह नौसेना में जा सकते हैं। माउंटबैटन ने जवाब दिया कि दो साल का समय तो नौसेना से अलग रहने के लिए बहुत लम्बा हो जायेगा। प्रधानमंत्री एटली ने पूछा कि अगर नौसेना में उनका पद, तरक्की का क्रम और अवसर सुरक्षित हो तो वह कितना समय दे सकते हैं? माउंटबैटन ने इस बारे में समय मांगा और अपने दोस्तों सहित राजा से मुलाकात की।
वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा नई दिल्ली में आयोजित पत्रकार सम्मेलन
अगले दिन माउंटबैटन फिर से एटली से मिले और बताया कि वह बारह महीनों में यह काम समाप्त कर लेंगे। इसी अनुसार माउंटबैटन मार्च 1947 में भारत आये और अगले पांच महीनों में भारत में सत्ता हस्तांतरण का काम समाप्त कर दिया। मोसली लिखते हैं कि माउंटबैटन के साथ आये इस्में को माउंटबैटन की जल्दीबाजी का पता था। इस्मे ने विस्टन चर्चिल को अपने भारत जाने के बारे में बताया था। चर्चिल ने उससे कहा कि जाकर बेवकूफी करोगे, तुम्हे कुछ नहीं मिलेगा। माउंटबैटन ओहदे और पदवी के लिए भारत जा रहा है।
ये लोग भारत को आजादी नही दे रहे थे बल्कि भारत से पिंड छुड़ा रहे थे। जिसकी कीमत विभाजन और सांप्रदायिक दंगों सहित मानवीय इतिहास के सबसे बड़े नरसंहार के रूप में चुकानी पड़ी।
8. आखिर वेवल की जगह माउंटबैटन जैसे जल्द बाज को क्यों भेजा गया? उनके पास समय नहीं था, और वह शायद इस काम के लिए उपयुक्त व्यक्ति भी नहीं थे। तो उन ब्रिटिश षड्यंत्रों और रहस्यों को उजागर करना होगा।
शिमला – माउंटबैटन की पत्नी एडविना संग पंडित नेहरु
वी.पी. मेनन को माउंटबैटन ने अपना सलाहकार बनाया हुआ था। वह एक नौकरशाह थे, तो उनकी भूमिका को उसी नजरिये से देखना चाहिए।
10 मई के आसपास माउंटबैटन अपने निजी स्टाफ सहित पत्नी एडविना और जवाहरलाल नेहरु के साथ छुट्टियां बिताने शिमला गये। वास्तव में यह छुट्टियां एक बहाना थीं। यह एक षड़यंत्र था, जिसके अंतर्गत नेहरु को भारत के विभाजन के लिए मनाना था। आगे चलकर नेहरू का काम कांग्रेस से उस विभाजन सम्बन्धी मसौदे को स्वीकार करवाना था।
मोसली के अनुसार शुरूआती दिनों में कुछ मसौदे बने लेकिन नेहरू तथा माउंटबैटन में उन्हें लेकर गतिरोध बना रहा। आपसी बातचीत के आधार पर माउंटबैटन ने नेहरु से कहा कि अगर कोई नयी योजना बनायीं जाये तो कांग्रेस उसे स्वीकार करेगी? नेहरु ने जवाब दिया कि पहले मैं वह मसौदा देखना चाहूँगा।
इसी के साथ बैठक खत्म हो गयी और वायसराय ने मेनन से कहा कि अब समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। उसने मेनन को समझाया कि नेहरु शाम को दिल्ली जा रहे हैं और यह जरूरी है कि जाने से पहले वह मसौदा देखकर अपनी स्वीकृति दें, नहीं तो उसे पकड़ना हफ्तों तक मुश्किल हो जायेगा और सारा काम बिगड़ जायेगा।
दोपहर के दो बजे थे। अपने बॉस माउंटबैटन का आदेश मिलते ही वी.पी. मेनन अपने होटल में गये और व्हिस्की का एक बड़ा गिलास अपने सामने रखकर बैठ गये। आमतौर पर वह शाम छह बजे से पहले शराब नहीं पीते थे। शाम छह बजे तक उन्होंने मसौदे की अपनी आखिरी लाइन पूरी की और माउंटबैटन को भेज दी।
माउंटबैटन के साथ वी.पी. मेनन
मेनन का सिर फटा जा रहा था। उन्होंने एस्पिरिन की चार गोलियां खायी और सोने चले गये। रात में नौ बजे मेनन रात्रि भोज पर माउंटबैटन दम्पति से मिले। कुछ देर बाद लेडी माउंटबैटन, मेनन के पास आई। उन्होंने प्यार से मेनन के गाल को थपथपाया और कान में धीरे से कहा, उसने स्वीकार कर लिया।
इस प्रकार जिस योजना से हिंदुस्तान और दुनिया की शक्ल बदलने वाली थी, उसे तैयार करने में एक व्यक्ति को सिर्फ चार घंटे लगे और दूसरे को स्वीकार करने में चंद मिनट। अब माउंटबैटन को विश्वास था कि बाकी हिंदुस्तान को खुद नेहरु संभाल लेगा। इसके बाद 14 मई को माउंटबैटन और उनकी पत्नी दिल्ली वापस आ गये। नेहरु द्वारा स्वीकृत मसौदे को समझाने के लिए ये लोग मेनन के साथ 18 मई को दिल्ली से लन्दन चले गये। बाद में यही मसौदा 3 जून को माउंटबैटन प्लान के नाम से जाना गया और भारत विभाजन का अधिकारिक इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 बना।
इतिहासकार आर.सी. मजूमदार अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट’ के खंड 3 के पृष्ठ संख्या 563 पर लिखते हैं कि कांग्रेसी नेताओं की नासमझी की वजह से पाकिस्तान बना। मजूमदार लिखते हैं, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि कांग्रेस नेताओं का निर्णय नासमझी से भरा था और इसके विनाशकारी परिणाम निश्चित थे। कांग्रेस की नीतियां विभाजन का संकेत थीं, जो अपरिहार्य रास्तों से गुजरते हुए पाकिस्तान की स्थापना का आधार बन गयी।”
9. क्या नेहरु ब्रिटिश एजेंट नहीं थे और वह माउंटबैटन दंपति के साथ शिमला में क्या कर रहे थे?
10. जवाहरलाल नेहरू और एडविना के सम्बन्ध, मेनन द्वारा मसौदा माउंटबैटन को सौपने के बाद इन अंतिम पलों में आखिर क्या हुआ?
लाहौर के नाटा बाजार में हिंसा के बाद तबाही का मंजर
पाकिस्तान प्रायोजित दंगो में हुए कत्लेआम की रिपोर्ट
भारत जलता रहा और....
माउंटबैटन जल्द ही किसी निर्णय पर पहुंचना चाहते थे। उन्होंने 3 जून 1947 को अपनी योजना पेश की, जिसके अनुसार भारत को धर्म के आधार पर विभाजित कर पाकिस्तान बनाने का खाका पेश किया गया। इस कुख्यात योजना को ‘माउंटबैटन योजना’ के नाम से जाना जाता है।
माउंटबैटन योजना के मुख्य बिंदु –
(1) पश्चिम पाकिस्तान में पश्चिमी पंजाब, सिंध, और संभवतः उत्तर पश्चिम सीमा और बलूचिस्तान शामिल होंगे, जिसकी आबादी 25 मिलियन (18 मिलियन मुसलमान) थी।
(2) 44 मिलियन (31 मिलियन मुसलमान) की आबादी के साथ पूर्वी बंगाल और असम के सिलहट जिले को शामिल करते हुए पूर्वी पाकिस्तान बनाया जायेगा। एक हजार मील की दूरी पर ये दोनों क्षेत्र, 70 लाख की आबादी के साथ पाकिस्तान राज्य अथवा संघ का गठन करेंगे।
कराची में लुईस माउंटबैटन उनकी पत्नी एडविना
13 अगस्त 1947 की सुबह, लुईस माउंटबैटन अपनी पत्नी एडविना के साथ कराची पहुंचे। अविभजित भारत में वायसराय के नाते यह उनकी अंतिम अधिकारिक यात्रा थी। मोहम्मद अली जिन्ना और उनकी बेगम ने माउंटबैटन दंपति का बहुत ही गर्म-जोशी से स्वागत किया। शहर के गवर्नमेंट हाउस में उनके रुकने का विशेष प्रबंध किया गया, जिसे किसी ‘हॉलीवुड’ फिल्म के सेट की भांति सजाया गया था। रात में ‘सॉफ्ट ड्रिंक्स’ और मधुर संगीत के बीच सभी ने मिलकर स्वादिष्ट भोजन का आनंद उठाया। अगले दिन माउंटबैटन ने पाकिस्तान की लेजिस्लेटिव असेम्बली के उद्घाटन की रस्म-अदायगी की और दोपहर में दिल्ली वापस जाने के लिए विमान में सवार हो गये।
जब यह विमान पंजाब के सीमावर्ती इलाकों से गुजरा तो वहां का नजारा एलन कैंपबेल-जॉनसन ने अपनी पुस्तक ‘मिशन विद माउंटबैटन’ में इस प्रकार लिखा है, “जब हम पंजाब की सीमा के ऊपर से गुजर रहे थे, तो हमने कई जगह आग लगी हुई देखी। यह मनहूस रोशनियाँ मीलों तक फैली हुई थी।” एलन कैंपबेल-जॉनसन उस विमान में माउंटबैटन के साथ ही मौजूद थे।
माउंटबैटन को ई. जेंकिस का टेलीग्राम
इसी दिन सुबह 9 बजकर 30 मिनट पर माउंटबैटन को संयुक्त पंजाब के अंतिम गवर्नर, ई. जेंकिस का एक टेलीग्राम मिला, जिसमें उन्होंने लिखा, “शांति व्यवस्था स्थापित करने और रेलवे को सुरक्षित रखने के लिए हमारे पास पर्याप्त फौज अथवा पुलिस नहीं है। हमें वहां सेना को ‘वॉर डिपार्टमेंट’ की भांति तैनात करना होगा जिसके पास रेलवे की सुरक्षा भी रहेगी। मुस्लिम लीग नेशनल गार्ड्स लाहौर शहर में सक्रिय है और गैर-मुसलमानों के खिलाफ अत्यंत हिंसक हो गए हैं।“ 13 अगस्त को ही ई. जेंकिस ने माउंटबैटन को एक लंबा पत्र भी लिखा और स्पष्ट बताया, हमलें और हत्याएं इतनी हो रही है कि अब सभी घटनाओं पर नजर रखना मुश्किल हो गया है।”
कुछ ही घंटों के बाद, वायसराय का विमान दिल्ली हवाईअड्डे पर उतर गया और यहां भी 15 अगस्त - स्वाधीनता और उससे सम्बंधित कार्यक्रमों में सभी व्यस्त हो गये। इसी दिन फील्ड मार्शल क्लाउड औचिनलेक ने माउंटबैटन को बताया कि कैसे पूरा पंजाब सांप्रदायिक हिंसा में झुलस गया है। उन्होंने हिन्दू बहुल लाहौर शहर का जिक्र करते हुए बताया, “एक अनुमान के मुताबिक लाहौर शहर के दस प्रतिशत घर आग से जल चुके हैं। यह शहर का लगभग 15 प्रतिशत इलाका है।''
उधर दिल्ली से लेकर कराची तक आधिकारिक कार्यक्रमों अथवा उत्सवों में एक-दो सप्ताह और बीत गये। पंजाब से लगातार पत्र, टेलीग्राम, टेलीफोन आते रहे लेकिन मगर अभी तक किसी ने पंजाब को राहत दिलाने का संतुलित प्रयास नहीं किया। अब जब जैसे-जैसे समय गुजरने लगा तो समाचार-पत्रों में पंजाब की हिंसक घटनाओं का जिक्र बड़े पैमाने पर होना शुरू हो गया।
पंजाब के बेकाबू सांप्रदायिक हालातों को संभालने की जिम्मेदारी एक ब्रिटिश सैन्य-अधिकारी थॉमस विनफोर्ड रीस के हाथों में थी। भारतीय समाचार-पत्रों में रीस को निशाना बनाया गया क्योंकि वह हर मोर्चे पर विफल हो गया। मात्र इस एक कारण के लिए आनन-फानन में माउंटबैटन के ‘बेडरूम’ में 27 अगस्त की सुबह एक बैठक हुई, जिसमें माउंटबैटन के अलावा उनके एक ब्रिटिश सहयोगी और वी.पी. मेनन मौजूद थे।
इस बैठक में पंजाब को राहत दिलाने अथवा स्वयं का मूल्यांकन करने के बजाय माउंटबैटन का पूरा ध्यान अपने-आप को और अपने ब्रिटिश अधिकारियों को बचाने पर ही केन्द्रित रहा। जबकि मेनन का सुझाव था कि उन्हें समाचार-पत्रों पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए। फिर भी माउंटबैटन ने शाम चार बजे कुछ संपादकों को तलब किया और उन्हें पहले डराया कि अगर वे मैक्सिकों में होते तो अबतक उन्हें उठाकर फेंक दिया जाता। फिर उन्हें एक इशारे से समझाया कि अब सारी जिम्मेदारी भारत की संसद की है।
नए आशियाने की तलाश में निकले असंख्य लोग
दरअसल, ई. जेंकिस ने 15 अगस्त को ही माउंटबैटन सहित लन्दन में भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को एक टेलीग्राम भेजकर पंजाब की असंतोषजनक स्थिति से अवगत करा दिया था। इसके उसने अलावा एक सुझाव भी दिया कि अब हालातों से नयी सरकारों को निपटाना चाहिए।” कुलमिलाकर अब ब्रिटिश क्राउन और उसकी सरकार सहित अधीनस्थ अधिकारी भारत को सांप्रदायिक हिंसा में झोंककर भागने की पूरी तैयारी कर चुके थे।
31 अगस्त को रक्षाबंधन के दिन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपने समकक्ष पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के साथ पहली बार पूर्वी पंजाब के दौर पर थे। उनके साथ पत्रकारों की एक छोटी टोली भी थी, जिसमें ‘इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर’ के लेखक दुर्गादास भी मौजूद थे। वह अपनी इस पुस्तक में उस दिन के घटनाक्रमों का जिक्र करते हुए लिखते हैं, “हमनें अमृतसर से उड़ान भरी और लायलपुर में उतरे। यहां आधा मिलियन हिन्दू और सिख सुरक्षित भारत पहुँचने की गुहार लगा रहे थे। यह राखी का दिन था, जब हिन्दू बहनें अपने भाई की कलाई पर धागा बांधकर अपनी सुरक्षा का वचन लेती है। दर्जनभर महिलायें सर्किट हाउस में आई और उन्होंने प्रतीकात्मक धागे नेहरू के हाथ में बांध दिए। इससे हम सभी की आँखे नम हो गयी। फिर हम अपने डकोटा जहाज से लाहौर एयरफिल्ड पहुंचे, जहाँ हमारी मुलाकात फ्रांसिस मुड़ी और ज्ञानी करतार सिंह से हुई।”
दुर्गादास ने मुड़ी और अपनी बातचीत के एक घटनाक्रम का उल्लेख करते हुए लिखा है कि मुड़ी ने मुझसे कहा था, “तुम्हे आजादी चाहिए, अब ले लो आजादी।”
मुड़ी का यह ताना न सिर्फ उसके अहंकार को दर्शाता है बल्कि बताता है कि ब्रिटिश क्राउन ने भारत के साथ स्वाधीनता के नामपर कितना बड़ा छल किया था। इसलिए 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश औपनिवेशिकता से भारत स्वाधीन जरुर हुआ लेकिन इतिहास के पन्नों में इस दिन विभाजन का भी एक अध्याय हमेशा के लिए थोप दिया गया। यह विभाजन सिर्फ सीमाओं के निर्धारण तक सीमित नहीं था बल्कि इसके पीछे हजारों दर्दनाक विभीषिकाएँ भी दर्ज है। दुर्भाग्य ऐसा था कि जबतक माउंटबैटन भारत से चला नहीं गया, तबतक पंजाब लगातार सांप्रदायिक हिंसा में जलता रहा।
शेष कहानी अगले भाग में...................