#HinduGenocide : पहलगाम में हिन्दुओं का नरसंहार और जम्मू कश्मीर के इतिहास का लहूलुहान सच
26-अप्रैल-2025
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लेख : अर्नव मिश्रा (उज्जवल)
BLOODY TRUTH OF JAMMU & KASHMIR'S HISTORY: 22 अप्रैल की दोपहर जम्मू-कश्मीर के पहलगाम (Pahalgam Attack) में 28 निहत्थे, मासूम हिन्दू पर्यटकों (Hindu Tourist's) का जिस बर्बरता से इस्लामिक आतंकियों (Islamic Terrorism) ने कत्लेआम किया, वह न सिर्फ रूह कंपा देने वाली घटना है, बल्कि इंसानियत के पूरे वजूद को झकझोर कर रख देती है। मारे गए इन सभी निर्दोष लोगों का गुनाह सिर्फ इतना था कि वे हिन्दू थे। इस्लामिक जिहादियों (Islamic Terrorist) ने इस कत्लेआम को अंजाम देते वक्त ना तो जाति पूछा, ना भाषा और ना राज्य पूछा तो सिर्फ उनका धर्म। एक लाइन में हिन्दुओं को खड़े कर के उनसे 'कलमा' पढने को कहा गया और फिर पलक झपकते ही उनके सीने को गोलियों छन्नी कर दिया गया।
क्या कसूर था उनका? सिर्फ इतना कि वो हिन्दू थे।
वो हिन्दू – जो वृक्षों, नदियों, पत्थरों और प्राणियों में भी परमात्मा को देखता है।
वो हिन्दू – जो शांति, करुणा और सहिष्णुता की मूर्ति है।
और यही सहिष्णुता सदियों से उसकी सबसे बड़ी कमजोरी भी बनती गई।
हालाँकि कश्मीर की धरती पर हुआ हिन्दुओं का यह नरसंहार कोई पहली घटना नहीं है, कश्मीर की ज़मीन पहले भी हिंदुओं के लहू से भीग चुकी है... पहलगाम की यह घटना कोई नई नहीं, बल्कि उसी लम्बी कड़ी का हिस्सा है जिसे कश्मीर के इतिहास में हिंदुओं के रक्त से लिखा गया है। सदियों से इस्लामिक कट्टरवाद ने इस पावन भूमि को बार-बार रौंदा है।
मंगोल, तुर्क, और मुगल जैसे आक्रांता यहां आए उन्होंने न केवल हजारों मंदिर तोड़े, बल्कि लाखों हिंदुओं का नरसंहार किया। स्वतंत्र भारत में भी यह घृणा नहीं रुकी। शेख अब्दुल्ला की अलगाववादी नीतियों ने कश्मीर को भारत से अलग करने की जड़ें मजबूत कीं। 1986 के अनंतनाग दंगे और फिर 1990 में जो हुआ, वो भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय था।
1989-90 में इस्लामिक आतंकवाद ने कश्मीरी हिंदुओं को चुन-चुनकर निशाना बनाया। मस्जिदों से ऐलान हुआ — “या तो इस्लाम कबूल करो, या मरने के लिए तैयार हो जाओ। अपनी बहन-बेटियों को हमारे हवाले करो, और घाटी छोड़ दो।”
कश्मीरी हिन्दुओं के घर जलाए गए। बेटियों को उठाकर ले जाया गया। पुरुषों को सरेआम मारा गया। हजारों हिंदू परिवार रातों-रात अपनी मातृभूमि छोड़ने को मजबूर हुए। जो बचे, उन्होंने तड़प-तड़प कर अपनों को मरते देखा। जो भागे, उन्होंने रिफ्यूजी कैंपों में सर्द रातों में ठिठुरकर जिंदगी गुजारी।
कश्मीर में हिन्दुओं के सुनियोजित नरसंहार की दास्तान
कश्मीर की घाटी, जहाँ कभी संतों की वाणी गूंजा करती थी, वो 1989 के बाद गोलियों की गूंज में डूब गई। घाटी में हिंदुओं के विरुद्ध एक संगठित और सुनियोजित आतंक का तांडव शुरू हुआ, जिसने जम्मू कश्मीर की हजारों वर्षों की सांस्कृतिक विरासत को मिटाने की कोशिश की। आतंकियों का मकसद साफ था — हिंदुओं को डराना, मारना, और घाटी से उन्हें खदेड़ देना।
1 : टिकालाल टपलू:
पं० टिकालाल टपलू पेशे से वकील और जम्मू कश्मीर बीजेपी के उपाध्यक्ष थे। पं० टपलू (Tika Lal Taploo) आरंभ से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे तथा उदारमन व्यक्ति थे। पं० टपलू ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से वकालत की पढ़ाई की थी, परंतु पैसे कमाने के लिए उन्होंने अपने इस पेशे का कभी भी दुरुपयोग नहीं किया। पं टपलू यह छवि अलगाववादी गुटों की आँखों में खटकती थी। क्योंकि पं० टिकालाल टपलू उस समय कश्मीरी हिंदुओं के सर्वमान्य और सबसे बड़े नेता थे।
जाहिर तौर पर अलगाववादियों को घाटी में अपनी राजनैतिक पैठ बनाने के लिए कश्मीरी हिंदुओं के समुदाय को हटाना जरुरी था, जो किसी भी कीमत पर पाकिस्तान का समर्थन नहीं करते थे। इसीलिए 'जम्मू-कश्मीर लिबेरशन फ्रंट' (JKLF) ने कश्मीरी हिंदुओं के विरुद्ध दुष्प्रचार के विविध हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए। कश्मीर घाटी के कुछ लोकल अखबारों ने पंडित टिकालाल टपलू और जस्टिस नीलकंठ गंजू समेत कई प्रतिष्ठित हिंदुओं के विरुद्ध दुष्प्रचार सामग्री प्रकाशित करना आरंभ कर दिया था।
आतंकियों ने पं० टपलू और जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या की रणनीति बनाई। पं० टपलू को इस बात का आभास पहले ही हो चुका था कि उनकी हत्या के प्रयास किए जा सकते हैं। लिहाजा उन्होंने उन्होंने अपने परिवार को सुरक्षित दिल्ली पहुँचा दिया और 8 सितम्बर को वापस कश्मीर लौट आये। 4 दिन बाद चिंक्राल मोहल्ले में स्थित उनके आवास पर इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा हमला किया गया। यह हमला उन्हें सचेत करने के लिए था किंतु वे भागे नहीं और डटे रहे। महज 2 दिन बाद 14 सितम्बर की सुबह पं० टिकालाल टपलू जब अपने आवास से बाहर निकले तो उन्होंने पड़ोसी की बच्ची को रोते हुए देखा। पूछने पर उसकी माँ ने बताया कि स्कूल में कोई फंक्शन है और बच्ची के पास पैसे नहीं हैं। पं० टपलू ने बच्ची को गोद में उठाया, उसे 5 रुपये दिए और पुचकार कर चुप कराया और आगे बढ़े।
उन्होंने सड़क पर कुछ कदम ही आगे बढ़ाये होंगे कि तभी आतंकवादियों ने उन्हें 'कलाशनिकोव' की गोलियों से छलनी कर दिया। सन 1989-90 के दौरान कश्मीरी हिंदुओं को घाटी से पलायन करने पर मजबूर करने के लिए की गयी यह पहली हत्या थी। कश्मीरी हिंदुओं के सर्वमान्य नेता की हत्या कर अलगाववादियों ने यह स्पष्ट संकेत दे दिया था कि अब कश्मीर घाटी में ‘निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा’ ही चलेगा। टिकालाल टपलू की हत्या के बाद काशीनाथ पंडिता ने कश्मीर टाइम्स में एक लेख लिखा और अलगाववादियों से पूछा कि वे आखिर चाहते क्या हैं ?
नीलकंठ गंजू:
पं टपलू की हत्या के मात्र 7 सप्ताह बाद ही आतंकियों द्वारा जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गयी। सन 1989 तक पं० नीलकंठ गंजू- जिन्होंने मकबूल बट को फांसी की सजा सुनाई थी- हाई कोर्ट के जज बन चुके थे। वे 4 नवंबर 1989 को दिल्ली से लौटे थे और उसी दिन श्रीनगर के हरि सिंह हाई स्ट्रीट मार्केट के समीप स्थित उच्च न्यायालय के पास ही आतंकियों ने उन्हें गोली मार दी थी।
आतंकियों ने जस्टिस गंजू से मकबूल बट की फांसी का प्रतिशोध लिया था। साथ ही मस्जिदों से लगते नारों ने कश्मीर के लोगों को यह भी बता दिया था कि ‘ज़लज़ला आ गया है कुफ़्र के मैदान में, लो मुजाहिद आ गये हैं मैदान में’। अर्थात अब अलगाववादियों के अंदर भारतीय न्याय, शासन और दंड प्रणाली का भय नहीं रह गया था। कई वर्षों बाद 'जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट' के आतंकी यासीन मलिक ने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया था कि उसने जस्टिस गंजू की हत्या की थी।
प्रेमनाथ भट:
14 सितंबर 1989 में प्रसिद्ध समाजसेवी और राष्ट्रवादी नेता टीकालाल टपलू की सरेआम हत्या के बाद घाटी में कश्मीरी हिंदू खौफ़ में थे। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट जैसे इस्लामिक आतंकी संगठन खुलेआम हिंदूओं को घाटी छोड़ने की धमकी दे रहे थे। कश्मीरी हिंदू सहमे ज़रूर थे, लेकिन पंडित प्रेमनाथ भट्ट जैसे प्रसिद्ध समाजसेवियों के नेतृत्व ने उन्होंने इस्लामिक आतंकियों के सामने झुकने से इंकार कर दिया। ऐसे में जेकेएलएफ ने कश्मीरी हिंदू पर हमले और तेज़ करने की योजना बनायी।
27 दिसंबर 1989 की शाम जब प्रेमनाथ भट्ट अनंतनाग में अपने घर जा रहे थे, तो उनके घर के पास दासी मोहल्ला में JKLF के आतंकियों ने *प्वाइंट ब्लैंक रेंज* से उनके सिर में गोली मारी। सरेआम, पूरी चहल-पहल के बीच मुस्मिल बहुल मोहल्ले में हत्या करने के बाद जेकेएलएफ आतंकी ने जश्न मनाते हुए कहा- “एक और (मारा) गया...”। आतंकी सरेआम एक जानी-मानी शख्सियत की हत्या कर आराम से फरार हो गए, लेकिन किसी ने एक शब्द नहीं बोला।
प्रेमनाथ भट्ट की हत्या के बाद भी उनके परिवार के सहायता करने के लिए मोहल्ले से कोई सामने नहीं आया। न ही किसी ने पुलिस को कुछ बताया। अगले दिन उनके पैतृक स्थान नरबल में पंडित प्रेमनाथ भट्ट का अंतिम संस्कार कर दिया गया। उसके बाद उनकी दशमी के दिन भी आतंकियों ने प्रेमनाथ भट्ट के घर बम से हमला करने की कोशिश की। साफ हो चुका था, कि इस्लामिक आतंकी उनके परिवार को भी नहीं बख्सेंगे।
सतीश टिक्कू:
2 फरवरी 1990 को श्रीनगर के युवा केमिस्ट सतीश टिक्कू को दवाइयां देने के बहाने बुलाया गया और घर से बाहर आते ही नज़दीक से गोली मार दी गई। 1990 में कश्मीरी हिंदुओं के खिलाफ नरसंहार का नेतृत्व करने वाले बिट्टा कराटे ने एक लाइव टीवी कार्यक्रम में कबूल किया था कि उसका पहला शिकार सतीश कुमार टिक्कू था। साक्षात्कार में कराटे ने दावा किया था कि उसे “उसे मारने के लिए ऊपर से आदेश मिले थे”।
दूरदर्शन श्रीनगर के निदेशक लस्सा कौल
लस्सा कौल:
13 फरवरी 1990 को दूरदर्शन श्रीनगर के निदेशक लस्सा कौल को उनके घर के बाहर आतंकियों ने गोली मार दी। जेकेएलएफ जैसे आतंकी संगठन दूरदर्शन को सांस्कृतिक हमला बताकर लगातार निशाना बना रहे थे। लस्सा कौल दूरदर्शन केंद्र के डायरेक्टर थे। आतंकियों ने इस बीच दूरदर्शन के कर्मचारियों को जान से मारने की धमकी दी। आतंकियों से धमकी मिलने के बाद तत्कालीन गवर्नर ने भी लस्सा कौल को हर वक्त अपने साथ सिक्योरिटी साथ रखने को कहा।
लेकिन लस्सा कौल कश्मीर की हवा में आतंक के इस जहर को पहचान नहीं सके। वो बेहद शांत और नरम स्वभाव के व्यक्ति थे। शायद यही कारण है कि उनके इस व्यवहार ने हिन्दुओं के साथ कई मुसलमान दोस्त भी बनाए, लेकिन मुस्लिम कट्टरता की लहर के साथ उन्हें, टी.वी पर दिखाए जा रहे कार्यक्रमों के माध्यम से मुसलमानों पर एक सांस्कृतिक हमला शुरू करने के लिए जिम्मेदार ठहराया। जिहादियों द्वारा लस्सा कौल को इस्लाम के दुश्मन के रूप में पेश किया गया। आतंकियों की मांग ये थी कि, जम्मू-कश्मीर में दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों में इस्लाम का ज्यादा प्रयोग हो न कि हिन्दुस्तान का।
शहर के बाहरी इलाके में बेमिना कॉलोनी में रहने वाले अपने बूढ़े और बीमार माता-पिता से लिए कौल ने टेलीविज़न सेंटर से निकले। उनके निकलने की खबर उनके किसी करीबी ने ही आतंकवादियों को दी। इस बात से अनजान की हत्यारे उनके आने का इंतज़ार कर रहे थे, वह बेमिना अपने घर पहुंचे जैसे ही वो गाड़ी से बाहर निकल कर दरवाज़े की और बढे, उसी वक्त उनके ऊपर 2 आतंकियों ने गोलियों की बौछार कर दी, जिससे उनकी मौके पर ही मौत हो गई। उनकी निर्मम हत्या ने न केवल सरकारी लोगों में बल्कि अल्पसंख्यक कश्मीरी हिन्दुओं के मन में दहशत भर दी थी।
सरवनंद कौल प्रेमी और उनके पुत्र वीरेंद्र कौल:
आतंकवाद के उस दौर में जब कश्मीर घाटी से लाखों-हजारों की संख्या में कश्मीरी हिन्दू पलायन कर रहे थे, उस वक्त घाटी में 'सर्वानंद कौल प्रेमी' उन कश्मीरी हिंदुओं में से थे, जिन्होंने आतंकवाद के सबसे भयावह दौर में भी कश्मीर में ही रहने का फैसला किया था। सर्वानन्द कौल का जन्म जम्मू कश्मीर के अनंतनाग जिले में 2 नवम्बर सन 1924 में हुआ था। उनका परिवार कोकरनाग कस्बे में भारी मुस्लिम आबादी के बीच रहता था।
सर्वानंद कौल प्रेमी, एक प्रसिद्ध परोपकारी, गांधीवादी, प्रसारक, समाज सुधारक, साहित्यकार और अनुवादक होने के अलावा एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होने अनाथ लड़कियों की शादी के लिए काम किया। 1942-1946 तक भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्होंने राष्ट्र के लिए भूमिगत काम भी किया और इस अवधि के दौरान 6 मौकों पर गिरफ्तार हुए। उन्होंने 1956-1979 तक राज्य शिक्षा विभाग के लिए काम किया।
29 अप्रैल 1990 की शाम 3 आतंकी बंदूक लेकर सर्वानन्द कौल ‘प्रेमी’ के घर पहुंचे। उन्होंने कुछ बातचीत की और घर की महिलाओं से उनके गहने इत्यादि मूल्यवान वस्तुएं लाने को कहा, डरी सहमी महिलाओं ने सब कुछ निकाल कर दे दिया। सारे गहने जेवरात और कीमती सामान एक सूटकेस में भरा गया फिर उन आतंकियों ने सर्वानन्द से उनके साथ चलने को कहा, सर्वानन्द ने सूटकेस उठाया तो वह भारी था। उनके 27 वर्षीय पुत्र वीरेंदर ने हाथ बंटाना चाहा और सूटकेस उठा लिया। तीनों आतंकी पिता पुत्र को अपने साथ ले गये।
सर्वानन्द को विश्वास था कि चूँकि वे अपने पूजा घर में कुरआन रखते थे इसलिए अलगाववादी आतंकी उनके साथ कुछ नहीं करेंगे; घरवालों को भी उन्होंने यही भरोसा दिलाया था। लेकिन उनका भरोसा उसी प्रकार टूट गया जैसे कड़ाके की ठंड में चिनार के सूखे पत्ते टहनी से अलग हो जाते हैं। सर्वानन्द कौल ‘प्रेमी’ और उनके पुत्र को उनके परिवार ने फिर कभी जीवित नहीं देखा। अगले ही दिन यानि 30 अप्रैल 1990 को पुलिस को उनकी लाशें पेड़ से लटकती हुई मिलीं।
सर्वानंद कौल अपने माथे पर भौहों के मध्य जिस स्थान पर तिलक लगाते थे आतंकियों ने वहाँ कील ठोंक दी थी। पिता-पुत्र को गोलियों से छलनी तो किया ही गया था इसके अतिरिक्त शरीर की हड्डियाँ तोड़ दी गयी थीं और जगह-जगह उन्हें सिगरेट से दागा भी गया था। सर्वानन्द कौल ने अपने जीवित रहते सेकुलरिज्म को धर्म मानकर काम किया था। लेकिन वे जीते जी यह नहीं समझ पाए थे कि शैतान की आयतों को रटने वाले सेकुलरिज्म का मर्म नहीं समझते।
अनगिनत दर्दनाक कहानियाँ...
बी.के. गंजू : 22 मार्च 1990 को उनके परिवार के सामने ही नृशंस ह्त्या कर दी। सिर्फ हत्या ही नहीं कि बल्कि उनके खून से सने चावल को भी उनकी पत्नी को खाने के लिए मजबूर किया। 1990 में 30 वर्षीय बी. के. गंजू एक श्रीनगर के छोटा बाजार इलाके में रहते थे। केंद्रीय सरकार का कर्मचारी होने के नाते आतंकियों की नजर लगातार बी.के. गंजू पर थी। 22 मार्च 1990 को बी.के. गंजू जब छिपते-छिपाते ऑफिस से घर पहुंचे, तो आतंकी भी उनका पीछा करते हुए घर तक आ धमके।
गंजू की पत्नी ने आतंकियों को भांप लिया और पति के घर में घुसते ही तुरंत कुंडी लगा ली। लेकिन आतंकी भी दरवाजा तोड़कर घर के अंदर आ घुसे, इससे पहले ही बी. के. गंजू घर के तीसरे फ्लोर पर रखी चावल की टंकी में छिप गये। आतंकियों ने गंजू को ढूंढने के लिए पूरे घर को तहस-नहस कर दिया, लेकिन वो नहीं मिले।आतंकी जब निराश होकर निकल ही रहे थे, तो मुस्लिम पड़ोसी ने इशारा कर बता दिया कि बीके गंजू चावल की टंकी में छिपे हैं। इसके बाद आतंकियों ने गंजू को टंकी से ढूंढ निकाला और मारपीट के बाद अंधाधुंध गोली चलाकर नृशंस हत्या कर दी। इसके बाद इस्लामिक आतंकी यहीं पर नहीं रूके, उन्होंने बी.के. गंजू के खून में सने चावल को उनकी पत्नी को खाने को मजबूर किया।
प्रो. के.एल. गंजू
प्रो. के.एल. गंजू : 7 मई 1990 को के.एल. गंजू अपनी पत्नी प्रणा के साथ नेपाल में एक सेमिनार में हिस्सा लेकर वापिस लौट रहे थे। उनके साथ उनका भतीजा भी था। प्रोफेसर के कॉलेज के 2 कर्मचारी उनको रिसीव करने के लिए जीप के साथ भेजा गया। रास्ते में जब वो घर लौट रहे थे, सोपोर ब्रिज के पास आतंकियों ने उनकी जीप को रोक लिया। पता चला आतंकियों को उनके आने की खबर पहले ही दे दी गयी थी। संभव था किसी कॉलेज के साथी या स्टाफ ने ये खबर आतंकियों तक पहुंचायी थी। आतंकियों ने प्रोफेसर के.एल. गंजू को गाड़ी से उतारकर मारा-पीटा और फिर गोली मार नीचे बह रही झेलम में फेंक दिया।
प्रोफेसर की पत्नी प्रणा गंजू और भतीजे का रो-रोकर बुरा हाल था, आतंकियों ने भतीजे से कहा या तो नदी में कूद जाओ या फिर अपनी चाची के साथ देखो वो क्या करते हैं। आतंकियों ने तीन तक गिना, घबराते हुए भतीजा पानी में कूद गया। इसके बाद आतंकी प्रणा गंजू को अगवा कर फरार हो गये। भतीजे को तैरना नहीं आता था, लेकिन किसी तरह वो अपनी जान बचाने में कामयाब रहा। लेकिन इसके बाद पुलिस प्रणा गंजू की खोज़बीन करती रही। लेकिन उसके बारे में कुछ पता नहीं चला। कई दिन बाद प्रोफेसर के.एल. गंजू की लाश मिल गयी। लेकिन प्रणा गंजू का कभी पता नहीं चल पाया। पुलिस के रिकॉर्ड के मुताबिक आज तक नहीं।
बंसीलाल सप्रू की हत्या:
गुलाब बाग, कश्मीर के रहने वाले बंसीलाल सप्रू एक राजनीतिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ व्यवसायी भी थे। 24 अप्रैल 1990 की शाम करीब 7 बजे, तीन अज्ञात शख्स उनके घर आए और उनसे कहा कि वे जिस बगीचे को बेचना चाहते हैं, उसे दिखाएं। बंसीलाल ने उन पर ज़रा भी शक नहीं किया और उन्हें पास की ज़मीन दिखाने के लिए चल पड़े। लेकिन वे शख्स हथियार से लैस इस्लामिक जिहादी निकले। अचानक उन्होंने बंदूकें निकाल लीं यह देखकर बंसीलाल पूरी तरह हैरान रह गए। उन्होंने आतंकियों से अकेले दम पर लोहा लेना चाहा लेकिन आतंकियों की संख्या 3 थी। बंशीलाल कुछ कर पाते उससे पहले ही उन इस्लामिक आतंकियों ने उन पर कई गोलियाँ दाग दीं और उनकी नृशंस हत्या कर दी।
पी.एन. हंडू: सूचना विभाग में असिस्टेंट डायरेक्टर के पद पर कार्यरत थे, 1 मार्च 1990 को दिनदहाड़े आतंकवादियों द्वारा बहुत ही नज़दीक से गोली मार दी गई। वह अपनी सरकारी गाड़ी में बैठे हुए थे और अपने ड्राइवर के लौटने का इंतज़ार कर रहे थे, जब उन पर हमला किया गया।
अशोक कुमार बाजाज, छत्ताबल, श्रीनगर के निवासी अशोक कुमार बजाज कालीन व्यवसाय में एक उभरते हुए सफल उद्यमी के रूप में जाने जाते थे। 26 मार्च 1990 की सुबह लगभग 10 बजे, वे अपनी दुकान के लिए निकले। लेकिन यह सफर उनके जीवन का अंतिम सफर साबित हुआ। इस्लामिक आतंकवादियों ने उन्हें दुकान से जबरन उठाया और एक जिप्सी वाहन में डालकर किसी अज्ञात स्थान पर ले गए। कुछ समय बाद उनकी क्षत-विक्षत स्थिति में लाश बरामद हुई —आतंकियों ने उनकी बेरहमी से हत्या कर दी थी।
अशोक कुमार कौल :
अशोक कुमार कौल, कुलगाम के रहने वाले थे। 3 मई 1990 को, जब अशोक अपने पास की ज़मीन पर गए थे, तभी आतंकवादियों ने उन्हें वहां से अगवा कर लिया। अशोक कुमार पर आतंकियों ने अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए उन पर अत्याचार और उन्हें प्रताड़ित किया। बेबस होकर उन्होंने उन इस्लामिक जिहादियों से दोनों हाथ जोड़कर दया की भीख मांगी, लेकिन आतंकियों का दिल नहीं पसीजा। अंत में दोनों हाथ जोड़े हुए ही उसी अवस्था में, आतंकियों ने उन पर गोली चला दी और उनकी हत्या कर दी।
चमन लाल टिक्कू : जिस प्रकार से आतंकियों ने पहलगाम की घटना को अंजाम दिया है ठीक उसी प्रकार की घटना चमन लाल टिक्कू के साथ भी हुआ था। दरअसल गान्दरबल निवासी चमन लाल टिक्कू पेशे से शिक्षक थे। 25 मई 1990 को आतंकियों की गोलियों के शिकार बन गए। दरअसल 25 मई की शाम करीब 7:45 बजे, 5 हथियारबंद आतंकवादी उनके घर में जबरन घुस आए। जैसे ही वे दरवाज़े पर पहुंचे, घर में मौजूद 2 छोटे बच्चों ने गेट खोला और आतंकियों से उनका परिचय पूछा। नन्हें बच्चों ने कांपती हुई आवाज़ में उनसे पूछा कि वे किससे मिलना चाहते हैं।
आतंकियों ने गुस्से में कहा – “कलमा पढ़ो।” लेकिन वे मासूम बच्चे उन्हें क्या मालुम था ये कलमा क्या होता है...? हालांकि उन्हें यह ज़रूर अहसास हो गया था कि कुछ बहुत गलत होने वाला है। घर के बाकी सदस्य भी डर से सहम गए थे। सभी को समझ में आ गया था कि खतरा सिर्फ इस बात का है कि वे मुसलमान नहीं हैं। आतंकियों ने कलमा पढवाया और जब वे नहीं पढ़ पाए तो आतंकियों ने घर में बिना रुके अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। इस हमले में चमन लाल टिक्कू की मृत्यु हो गई।
जूनियर इंजीनियर वीरेन्द्र भट :
जूनियर इंजीनियर वीरेन्द्र भट, जो शोपियां में पदस्थ थे, वीकेंड पर छुट्टियाँ बिताने वे अपने गांव आए थे। जैसे ही वे अपने घर पहुंचे, तभी कुछ लोगों द्वारा उन्हें किसी अधिकारी से मिलने का बहाना बनाकर उन्हें घर से बाहर बुला लिया गया। घर से दूर करीब 3 आतंकवादियों में से एक ने जब पिस्टल निकाली तो वीरेंद्र भट उस आतंकी से भीड़ गए, लेकिन जल्द ही वहां मौजूद अन्य आतंकी आगे आए और वीरेन्द्र भट पर गोलियां चला दीं। ऐसे कर एक निहत्थे, निर्दोष इंसान की इन इस्लामिक जिहादियों ने नृशंस हत्या कर दी।
डॉ. शुभन किशन कौल और राजिंदर कौल की हत्या :
डॉ. शुभन किशन कौल और राजिंदर कौल, दो युवा चचेरे भाई थे, जो अपनी-अपनी पत्नियों के साथ रहबाबा साहिब, श्रीनगर में रहते थे। अक्टूबर 1990 में, आतंकवादियों ने दोनों युवा दंपतियों को बेरहमी से मार डाला। उनके मुस्लिम पड़ोसियों ने उन्हें सुरक्षा का पूरा भरोसा दिया था, यहाँ तक कि कुछ आतंकवादियों ने भी उनकी सुरक्षा का वादा किया था। लेकिन यह भरोसा महज़ एक धोखा साबित हुआ। डॉ. कौल हमेशा अपने पड़ोसियों की मदद करते रहते थे। फिर भी, उनके साथ विश्वासघात हुआ।
द्वारिका नाथ चौधरी की निर्मम हत्या
कश्मीर में निर्दोष और असहाय हिंदुओं की लंबी सूची में एक और दर्दनाक हत्या द्वारिका नाथ चौधरी की भी है। द्वारिका नाथ चौधरी वुईयन स्थित प्री-कास्ट सीमेंट फैक्ट्री के मैनेजर थे। जब अन्य हिंदू कश्मीर से पलायन कर रहे थे, तब चौधरी जी ने वहाँ रुकने का फैसला किया और कश्मीर नहीं छोड़ा। लेकिन 8 अगस्त 1990 को, तीन हथियारबंद आतंकवादी उनके दफ्तर के शौचालय में घुसे, उन्हें बालों से पकड़कर बाहर घसीटा और बेरहमी से मार डाला।
हिन्दुओं के देश में हिन्दुओं पर ही हमला ?
ये केवल चंद नाम नहीं, यह पूरा इतिहास है, ये सिर्फ कुछ उदाहरण हैं, वर्ना 1989-1990 के कालखंड में सैकड़ों हिंदुओं को इस्लामिक जिहादियों द्वारा मार दिया गया। कोई चुन-चुनकर मारा गया, कोई बस इसलिए कि वह हिंदू था। आज जब पहलगाम में हिंदुओं पर फिर से हमला होता है, तो यह इतिहास हमें याद दिलाता है कि यह कोई पहली बार नहीं है। यह एक लंबी लड़ाई है, जिसे आधी अधूरी संवेदनाओं से नहीं, बल्कि ठोस नीति और संकल्प से लड़ा जाना होगा। कश्मीर केवल ज़मीन नहीं, यह संस्कारों की मिट्टी है। इसे हर हाल में बचाना होगा — अपने इतिहास को जानकर, स्वीकार कर, और फिर दोहराने से रोककर।
आज फिर वही जहर फैलाया जा रहा है… और हम खामोश हैं?
आज जब पहलगाम की घटना दोहराई गई है, क्या हम फिर चुप रहेंगे?
क्या हम फिर कहेंगे कि "आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता"?
जब हत्यारे धर्म पूछकर कत्ल कर रहे हैं, तो कैसे कह दें कि यह धर्म से प्रेरित नहीं?
इस्लामिक जिहादियों ने बार-बार यह साबित किया है कि उनकी नफरत का सबसे बड़ा निशाना हिंदू धर्म है और हर बार, ये मासूम हिंदू अपने अस्तित्व की कीमत चुका रहा है — बलिदान देकर।
कश्मीर का पुनर्जागरण अभी अधूरा है…
हमने अनुच्छेद 370 हटाकर एक नई शुरुआत की थी। लेकिन जब तक एक भी हिंदू अपने घर लौटकर कश्मीर में सुरक्षित और सम्मान के साथ नहीं जी पाता, तब तक यह संघर्ष अधूरा है। कश्मीर सिर्फ एक ज़मीन का टुकड़ा नहीं — भारत की आत्मा है, भारत का सिरमौर है.. जिसे फिर से संवारना, बचाना और लौटाना हमारा कर्तव्य है।
यह लेख उस हर हिंदू के नाम है, जो अपने धर्म की कीमत जानता है। जो समझता है कि सहिष्णुता तब तक पुण्य है, जब तक वह कायरता में न बदल जाए। अब समय आ गया है – सच्चाई का सामना करने का, और इतिहास से कुछ सीखने का। वरना, अगला पहलगाम किसी और का इंतज़ार कर रहा होगा…
पहलगाम हमले में अपनी जान गंवाने वाले सभी पूण्य आत्माओं को विनम्र श्रद्धांजलि एवं कोटि कोटि नमन..