"कश्मीर न तु स्वर्गस्य न वापि च महीतले।
तुल्यमस्ति विहायैनं कश्मीरं न हि दृश्यते॥"
— राजतरंगिणी, कल्हण
अर्थ: "न स्वर्ग में, न ही धरती पर कश्मीर के समान कोई स्थान है; इसे छोड़कर अन्यत्र कोई इसकी बराबरी नहीं कर सकता।"
जब कभी भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास की बात होती है, कश्मीर का नाम एक प्राचीन गौरवगाथा की तरह उभर कर सामने आता है। कश्मीर केवल एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि एक समृद्ध सभ्यता, सांस्कृतिक चेतना और आध्यात्मिक प्रकाश का केंद्र रहा है। इस बात का प्रमाण मिलता है — 'राजतरंगिणी' जैसे ऐतिहासिक ग्रंथों से।
क्या है राजतरंगिणी?
राजतरंगिणी (अर्थ: "राजाओं की धारा") कश्मीर के महान इतिहासकार कल्हण द्वारा 12वीं शताब्दी में संस्कृत में रचित एक ऐतिहासिक महाकाव्य है। यह ग्रंथ कश्मीर के प्राचीन राजाओं के शासन, समाज, धर्म और संस्कृति का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है।
प्राचीन ग्रंथों का अद्भुत समन्वय
कल्हण ने अपने युग में उपलब्ध 11 प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन किया था और कई ऐतिहासिक तथ्यों को उजागर किया। उन्होंने नीलमत पुराण से भी कई संदर्भ लिए, जो कश्मीर के भूगोल, संस्कृति और परंपराओं पर आधारित एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इस पुराण में ऋषि वैशम्पायन और राजा जनमेजय के बीच संवाद के माध्यम से कश्मीर के राजाओं की भूमिका पर प्रकाश डाला गया है, विशेषकर यह कि वे महाभारत युद्ध में अनुपस्थित क्यों रहे।
कश्मीर — देवताओं की भूमि
कल्हण ने अपने ग्रंथ में कश्मीर को न केवल अत्यंत सुंदर बल्कि अत्यंत पवित्र और धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण बताया है। यह भूमि आदि शंकराचार्य, अविनवगुप्त, लालेश्वरी जैसे महान संतों और विचारकों की तपोभूमि रही है।
शारदा पीठ, जिसे कभी "भारतीय ज्ञान का ताज" कहा जाता था, कश्मीर की ही देन है। यहाँ वैदिक शिक्षा, संस्कृत साहित्य और तंत्र दर्शन का अद्वितीय विकास हुआ।
राजतरंगिणी आठ खंडों में विभाजित है, जिनमें प्रारंभिक तीन खंड प्राचीन कश्मीर के उस युग को दर्शाते हैं, जिसकी शुरुआत पौराणिक कथाओं से होती है। इनमें उल्लेख है कि कश्मीर घाटी पहले एक विशाल झील थी, जो सूखने के बाद एक सुंदर उपत्यका में परिवर्तित हो गई। यह केवल कथा नहीं, बल्कि भूगोलविद भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से कश्मीर की भूमिका
राजतरंगिणी के अनुसार, कश्मीर का राजनीतिक इतिहास भी बेहद समृद्ध रहा है। विभिन्न राजवंशों जैसे गोनंद वंश, कर्कोट वंश और उत्पल वंश ने यहाँ राज किया। इन सभी राजाओं ने धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया, मंदिरों का निर्माण करवाया और ब्राह्मणों व ऋषियों को संरक्षण दिया।
ग्रंथ की शुरुआत होती है गोनाडा वंश के राजा गोनाडा प्रथम से, जिन्हें जरासंध का मित्र बताया गया है और जिनका शासनकाल महाभारत के युधिष्ठिर के राज्यारोहण के समकालीन माना गया है।
मौर्य सम्राट अशोक और श्रीनगर की स्थापना
कल्हण के अनुसार, श्रीनगर की नींव मौर्य सम्राट अशोक ने लगभग 245 ईसा पूर्व में रखी थी। इसका अर्थ है कि श्रीनगर कम से कम 2200 वर्षों से अधिक पुराना नगर है। हालांकि अशोक द्वारा बसाया गया नगर आज के श्रीनगर से लगभग 5 किलोमीटर उत्तर में स्थित था। "श्री" का अर्थ होता है देवी लक्ष्मी, और इस प्रकार श्रीनगर का अर्थ है – सौभाग्य का नगर या लक्ष्मी का वास।
धर्म और सहिष्णुता का संगम
राजतरंगिणी में यह भी उल्लेख है कि कश्मीर एक ऐसा क्षेत्र था जहाँ हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और शैव तंत्र का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व रहा। यहाँ की भूमि ने दर्शनशास्त्र के कई स्कूलों को जन्म दिया — जैसे कि कश्मीरी शैववाद, जिसने भारतीय अध्यात्म को एक गहराई दी।
आज जब कश्मीर को केवल राजनीतिक दृष्टि से देखा जाता है, तो ज़रूरी हो जाता है कि हम इसके ऐतिहासिक और धार्मिक स्वरूप को भी समझें। राजतरंगिणी न केवल एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक दर्पण भी है, जो हमें हमारे गौरवशाली अतीत की याद दिलाता है।
👉 कश्मीर भारत का सिरमौर रहा है — न केवल अपनी सुंदरता के लिए, बल्कि अपने आध्यात्मिक और बौद्धिक प्रकाश के लिए भी।