देश की सीमाओं की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीर सपूतों की भारत भूमि पर कभी कोई कमी नहीं रही। भारतीय सेना की यह पावन परंपरा रही है कि जब भी मातृभूमि पर कोई संकट आया, तब हमारे जांबाज़ सिपाहियों ने अपने खून से राष्ट्र की रक्षा की इबारत लिख दी। उन्हीं अमर बलिदानी वीरों में से एक थे कैप्टन सौरभ कालिया, जिनका बलिदान भारतीय इतिहास में साहस, त्याग और क्रूरता के चरम उदाहरण के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।
कैप्टन सौरभ कालिया का जीवन परिचय
कैप्टन सौरभ कालिया का जन्म 29 जून 1976 को अमृतसर, पंजाब में हुआ था। वे एक उच्च शिक्षित, संस्कारी और तेजस्वी परिवार से ताल्लुक रखते थे। उनके पिता डॉ. एन. के. कालिया एक वैज्ञानिक और माता विजया कालिया एक आदर्श गृहिणी थीं। सौरभ की प्रारंभिक शिक्षा DAV पब्लिक स्कूल, पालमपुर में हुई जहाँ वे पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहे। उन्होंने हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर से बीएससी (मेडिकल) की डिग्री प्राप्त की।
बचपन से ही उनमें राष्ट्रभक्ति की भावना गहराई तक रची-बसी थी। पढ़ाई के साथ-साथ वे अनुशासन, नेतृत्व और साहस में भी उत्कृष्ट थे। उनका सपना था कि वे सेना में जाकर देश की सेवा करें—और यह सपना उन्होंने संयुक्त रक्षा सेवा परीक्षा (CDS) उत्तीर्ण कर पूरा किया।
अगस्त 1997 में उनका चयन भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून में हुआ और 12 दिसंबर 1998 को वे लेफ्टिनेंट के पद पर कमीशन प्राप्त कर 4 जाट रेजिमेंट में शामिल हुए। जनवरी 1999 में उनकी पहली तैनाती कारगिल सेक्टर में हुई—जहां कुछ ही महीनों बाद उन्होंने मातृभूमि के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया।
कारगिल युद्ध और कैप्टन कालिया की वीरगाथा
कारगिल युद्ध की शुरुआत आधिकारिक रूप से 3 मई 1999 को मानी जाती है, जब एक स्थानीय चरवाहे ताशी नामग्याल ने काक्सर क्षेत्र में घुसपैठ की सूचना भारतीय सेना को दी। इसके बाद सेना ने तत्काल गश्त अभियान शुरू किया। 14-15 मई 1999 को कैप्टन सौरभ कालिया को अपने पांच जवानों—सिपाही अर्जुन राम, भंवरलाल, मूला राम, भीकाराम और नरेश सिंह—के साथ काक्सर लांगपा क्षेत्र में पेट्रोलिंग पर भेजा गया।
करीब 13,000 से 14,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित बजरंग पोस्ट पर वे तैनात थे। देश के लिए जान की बाज़ी लगाना उनके लिए कर्तव्य था, संख्या या दुश्मन की ताकत कभी बाधा नहीं बनी। जब उन्होंने दुश्मन की हलचल देखी, तो बिना हिचकिचाए आगे बढ़े।
कुछ ही समय में भारी गोलीबारी शुरू हो गई। दोनों ओर से मुकाबला हुआ, लेकिन भारतीय टुकड़ी के पास सीमित गोलाबारूद था। जब गोलियां खत्म हो गईं और जवान घायल हो गए, तब उन्हें पाकिस्तानी सेना ने बंदी बना लिया।
यातना के 22 भयावह दिन
कैप्टन सौरभ कालिया और उनके साथियों को बंदी बनाकर पाकिस्तानी सेना के कब्जे में 22 दिनों तक अमानवीय यातनाएं दी गईं। यह यातनाएं युद्धबंदी संधि (Geneva Convention) का खुला उल्लंघन थीं।
कैप्टन सौरभ के पिता ने बताया कि उनके कानों में गर्म लोहे की छड़ें घुसाई गईं, आंखें निकाल ली गईं, नाक, कान और निजी अंग काट डाले गए । शरीर को तड़पा-तड़पा कर जला दिया गया, लेकिन उन्होंने दुश्मन को एक शब्द तक नहीं बताया। उनका अद्वितीय साहस और मानसिक दृढ़ता, दुश्मन के हर अत्याचार से भी नहीं टूटा।
शव लौटा, परंतु आत्मा अमर हो गई
8 जून 1999 को पाकिस्तान ने जब उनका पार्थिव शरीर सौंपा, तो उसके हालत देखकर पूरे देश में आक्रोश की लहर दौड़ गई। 9 जून को जब तिरंगे में लिपटा उनका शव उनके घर पहुंचा, तो परिवार ही नहीं, देश की आत्मा भी रो पड़ी। उनका चेहरा तक पहचानना मुश्किल था। उनके पिता ने भारत सरकार और संयुक्त राष्ट्र से लगातार अपील की कि पाकिस्तान को इस युद्ध अपराध के लिए जिम्मेदार ठहराया जाए। हालांकि अभी तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे को वह गंभीरता नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए थी।
कैप्टन सौरभ कालिया केवल एक सैनिक नहीं थे, वे हर युवा भारतीय के लिए प्रेरणा हैं। उनका बलिदान हमें यह सिखाता है कि देशभक्ति केवल शब्दों में नहीं, बल्कि कर्म और समर्पण में होती है। आज, जब हम अपने सुरक्षित जीवन में हैं, तो वह सिर्फ इसलिए संभव है क्योंकि सीमा पर कोई सौरभ कालिया हमारी रक्षा में खड़ा होता है।
कैप्टन सौरभ कालिया को शत-शत नमन। उनका बलिदान भारतवर्ष के इतिहास में सदा के लिए अमर रहेगा।