जब कभी लद्दाख की ऐतिहासिक विरासत, सांस्कृतिक अस्मिता और भारत की सीमाओं की रक्षा की बात होती है, तो एक महान विभूति का नाम स्वाभाविक रूप से स्मृति में उभर आता है—कुशोक बकुला रिम्पोछे (Kushok Bakula Rinpoche) । वे केवल एक धार्मिक गुरु नहीं थे, बल्कि लद्दाख की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना को स्वर देने वाले एक युगद्रष्टा थे। आज उनकी जयंती पर हम उनके जीवन की उस कालजयी गाथा को स्मरण कर रहे हैं, जो उन्हें ‘आधुनिक लद्दाख का निर्माता’ बनाती है।
भगवान बुद्ध के 16 शिष्यों में से एक का पुनर्जन्म
बौद्ध मान्यताओं के अनुसार, जब भगवान बुद्ध महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए, तब उनके 16 प्रमुख शिष्यों ने यह संकल्प लिया था कि जब तक बौद्ध धर्म की शिक्षाएं सम्पूर्ण विश्व में नहीं फैल जातीं, वे बार-बार इस धरती पर जन्म लेकर अधूरे कार्य को पूर्ण करेंगे। कुशोक बकुला रिम्पोछे उन्हीं 16 महाशिष्यों में से एक माने जाते हैं और यह उनका 20वां पुनर्जन्म था। उनके 19वें अवतार लोबजंग थुबतन छोगनोर के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त हुई।
राजघराने में जन्मे, आध्यात्मिक पथ के पथिक बने
रिम्पोछे जी का जन्म 19 मई 1917 को लद्दाख के माथो गांव में एक रॉयल परिवार में हुआ। बचपन से ही उनमें विलक्षण आध्यात्मिक प्रतिभा दिखने लगी थी। 1922 में 13वें दलाई लामा ने उन्हें 19वां कुशोक बकुला घोषित किया। इसके बाद वे तिब्बत की राजधानी ल्हासा स्थित द्रेपुंग मठ विश्वविद्यालय में अध्ययन हेतु भेजे गए, जहां उन्होंने 14 वर्षों तक बौद्ध दर्शन और धर्मशास्त्र का गहन अध्ययन किया।
1947 : जब लद्दाख को बचाने निकले रिम्पोछे
1947 में जब भारत आज़ाद हुआ, तभी पाकिस्तान ने धर्म के नाम पर बंटवारे के पश्चात जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया। पाकिस्तानी कबायलियों और सैनिकों की नजरें लद्दाख पर भी थीं। ऐसे संकट के क्षण में रिम्पोछे भारतीय सेना के साथ खड़े हो गए और स्थानीय युवाओं को संगठित कर पाकिस्तान के मंसूबों को नाकाम किया। यह उनका पहला प्रत्यक्ष राष्ट्रसेवी योगदान था, जिसने उन्हें लद्दाख के जनमानस में एक रक्षक के रूप में स्थापित कर दिया।
राजनीति में प्रवेश और लद्दाख के अधिकारों की लड़ाई
1949 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अनुरोध पर रिम्पोछे राजनीति में आए। उन्होंने लद्दाख के पुनर्निर्माण और बौद्ध समाज के अधिकारों ने जम्मू-कश्मीर में ‘लैंड सीलिंग एक्ट’ लागू किया, जिसके तहत मठों और धार्मिक संस्थाओं की भूमि अधिग्रहित की जा सकती थी, तब रिम्पोछे ने सभी मठाधीशों को संगठित कर ‘अखिल लद्दाख गोम्पा समिति’ बनाई। उन्होंने इस अन्यायपूर्ण कानून के खिलाफ नेहरू, डॉ. अंबेडकर और शेख अब्दुल्ला से मुलाकात कर इस कानून की वापसी करवाई।
संविधान सभा में लद्दाख की आवाज बने
1951 में जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा में रिम्पोछे निर्विरोध निर्वाचित हुए। विधानसभा में उन्होंने खुलकर भारत में लद्दाख के एकीकरण का समर्थन किया और जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग होने का कोई अधिकार न देने की वकालत की। उनका यह राष्ट्रवादी दृष्टिकोण आज भी प्रेरणा देता है।
मंगोलिया में बौद्ध धर्म का पुनर्जागरण
रिम्पोछे का योगदान केवल भारत तक सीमित नहीं था। 1990 में उन्हें भारत का राजदूत बनाकर मंगोलिया भेजा गया, जो वर्षों से कम्युनिस्ट दमन के कारण बौद्ध धर्म से कट चुका था। उन्होंने वहां सांस्कृतिक पुनर्जागरण की शुरुआत की।
जब लोकतंत्र समर्थकों और तानाशाही शासन के बीच टकराव हुआ, तब रिम्पोछे ने अहिंसा का संदेश दिया और उन्हें एक अभिमंत्रित धागा दिया, जो उनके विश्वास का प्रतीक बना। संघर्ष के बाद मंगोलिया में लोकतंत्र की स्थापना हुई और बौद्ध धर्म को पुनर्जीवन मिला।
उनके प्रयासों से वहां बौद्ध महाविद्यालय की स्थापना हुई और सैकड़ों मठ पुनः खोले गए। इसके लिए मंगोलियाई सरकार ने उन्हें अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पोलर स्टार’ प्रदान किया।
राजनीतिक जीवन और राष्ट्रीय सम्मान
कुशोक बकुला रिम्पोछे दो बार विधायक और दो बार सांसद बने। साथ ही वे 1978 से 1989 तक राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य भी रहे। उनके सामाजिक और आध्यात्मिक योगदानों को देखते हुए 1988 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया।
अंतिम यात्रा और पुनर्जन्म की प्रतीक्षा
4 नवम्बर 2003 को उनका देहावसान हुआ और 16 नवम्बर को उन्हें राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई। 2005 में, बौद्ध परंपरा के अनुसार उनके 20वें अवतार की पहचान कर ली गई है, जो उनकी आध्यात्मिक यात्रा के अगले अध्याय का प्रतीक है।
कुशोक बकुला रिम्पोछे केवल एक बौद्ध गुरु नहीं, बल्कि धर्म, राजनीति, संस्कृति और राष्ट्रवाद के संगम थे। उन्होंने जहां एक ओर बौद्ध धर्म की पुनर्स्थापना की, वहीं दूसरी ओर भारत की सीमाओं की रक्षा में भी अग्रणी भूमिका निभाई। आज जब लद्दाख एक संघ राज्य क्षेत्र बन चुका है और अपनी सांस्कृतिक पहचान के साथ आगे बढ़ रहा है, तो यह सब कुशोक बकुला रिम्पोछे जैसे महानायकों की दूरदृष्टि और संघर्ष का ही प्रतिफल है।