1857 की क्रांति का छुपा सच : एक संगठित, राष्ट्रीय और रणनीतिक स्वतंत्रता का युद्ध, जिसके सूत्रधार थे मराठा पेशवा

    06-मई-2025
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The Hidden Truth of the 1857 Revolt nana peshwa
 
नाना पेशवा का व्यक्तित्व
 
 
ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ 1857 का महासंग्राम संगठित करने का सबसे पहला इरादा नाना साहब और उनके मंत्री अजीमुल्ला में पैदा हुआ. उस समय नाना की उम्र 36 वर्ष की थी. ट्रेवलयान उनके व्यक्तित्व पर लिखता है, “His complexion was sallow, his features strongly marked, and not unpleasing. Like all Mahrattas, both head and face were shaven clean. He was fat with that unhealthy corpulence which marks the Eastern voluptuary.”
 
 
एक अन्य विवरण के अनुसार नाना का रंग गोरा, कद 5 फुट 8 इंच, शारीरिक बनावट शक्तिशाली एवं बलिष्ठ, चेहरे का आकार चपटा और गोल, नासिका सीधी और सुडौल, नेत्रों का आकर विशाल, गोल नेत्र, दांत सम, वक्षस्थल बालों से ढका, चेहरे पर कोई चिन्ह नहीं, केशों का रंग काला व कानों में बालियाँ पहने हुए. उनमें मराठी विशेषताएं स्पष्ट विद्यमान थी. 1874 में जब नाना साहब के सम्बन्ध में ब्रिटिश सरकार ने गवाहों के बयान दर्ज किये थे, जिसमें दो गवाहों ने बताया कि वे थोडा हकलाया भी करते थे.
 
 
1857 की तैयारियां
 
 
सीताराम बाबा द्वारा मैसूर के जुडिशल कमिश्नर के समक्ष 18 जनवरी 1858 को दिए बयान के अनुसार 1855 के आसपास नाना साहब ने महासंग्राम की योजना बनाई थी. उन्होंने यह किसी दस्सा बाबा के कहने पर किया था. अतः सबसे पहले नाना द्वारा पत्र लिखकर सभी भारतीय राजाओं को एकजुट करने के प्रयास किये गए. इसमें ग्वालियर की सिंधिया राजमाता बैजाबाई, होलकर, जयपुर, जोधपुर, झालावार, रीवां, बड़ोदा, हैदराबाद, कोल्हापुर, सतारा, इंदौर के राजघराने शामिल थे.
 
 
गवाही के अनुसार, “All this was communicated by the Nana to Baija Bhaiee and to all the other states - to Holkar, Scindia, Assam (or Burma), Jeypoor, Joudhpoor, Kolah Boonder-Jhalawar-Rewah, Baroda-Kutch-Bhooj-Nagpur, to the Ghonds of Chanda (and doubtless Sambalpur) to Hyderabad, Sorapoor, Kolapore, Satara, Indore, in fact he did not leave out any place where there was native prince. He wrote to all…… He (Rajah of Travancore) is the only one who did not at all agree…… Nana Sahib wrote these letters about three years ago, at intervals, a short time, perhaps two or three months, previous to the annexation of Oudh.”
 
 
इनकी इस मुहीम में सबसे पहले जवाब जम्मू और कश्मीर के महाराजा गुलाब सिंह का आया. सीताराम बाबा ने बताया कि “Golab Singh of Jummoo, was the first to send an answer. He said that he was ready with men, money,and arms, and he sent money to Nana Sahib, through one of the Lucknow Soukars (Sahukars).”
 
 
इसके बाद नाना साहब ने जयपुर के महाराजा मानसिंह की सहायता से दिल्ली में बहादुरशाह जफ़र से संपर्क किया और उन्होंने भी नाना को उनका भी समर्थन मिल गया, “Nana Sahib and Maun Singh communicated with the King of Delhi and it was agreed that the Padishah should be for the Mussulmans and Dewangiri for the Hindoos.”
 
 
उसके बाद अवध के मुसलमानों ने भी सहायता की पेशकश कर दी. हैदराबाद की तरफ से महासंग्राम में न जुड़ने का जवाब आया कि वे पैसा देने में असमर्थ है और कुछ ‘बंदोबस्त’ अपने यहाँ करेंगे. साथ ही वे उनकी सहायता के लिए वहां आने में भी असमर्थ है.
 
 
इसी समय अजीमुल्ला भी भारत लौट आये थे. अतः उन्होंने रूस द्वारा ब्रिटेन को हराने का सारा किस्सा उन्हें सुनाया था. इसलिए नाना साहब ने रूस से भी कंपनी को कलकत्ता से भागने के लिए संपर्क किया. रूस से उन्हें जवाब भी मिला कि जबतक वे स्वयं के प्रयासों से दिल्ली हासिल नहीं कर लेते तब तक उन्हें कोई सहायता नहीं मिलेगी. अगर वे दिल्ली जीत लेते हैं तो रूस उन्हें अंग्रेजो को कलकत्ता से भागने में पूरी सहायता करेगा.
 
 
भारत यात्रा
 
 
लन्दन टाइम्स समाचारपत्र के विशेष संवाददाता, रसेल जोकि अजीमुल्ला को क्रीमिया के मोर्चे तक ले गए थे, उन्होंने अपनी पुस्तक ‘My diary in India, in the year 1858-9’ में नाना साहब के भारत भ्रमण का उल्लेख किया है. वे लिखते है, “……
 
 
The worthy couple (Nana and Khan), on the pretence of a pilgrimage to the hills - a Hindu and Mussulman joined in a holy excursion! - visited the military stations all along the main trunk-road, and went as far as Umballah (Ambala). It has been suggested that their object in going to Simla was to tamper with the Goorkha regiment stationed in the hills; but that, finding on their arrival at Umballah, a portion of the regiment were in cantonments, they were able to effect their purpose with these men, and desisted from their proposed journey on the plea of the cold weather.”
 
 
नाना साहब की यात्राओं का उद्देश्य गोपनीय बना रहा लेकिन उनकी लखनऊ यात्रा से कंपनी को कुछ आभास हो गया था. अप्रैल 1857 में वे अजीमुल्ला खान के साथ लखनऊ गए. उनका वहां भव्य स्वागत किया गया और सारे नगर को सजाया गया. वे हाथी पर स्वर थे. उनकी इस गर्वीले व्यव्हार से कंपनी के अंग्रेज अधिकारी सतर्क हो गए और उन्होंने नाना के कानपुर लौटने से पहले वहां के अधिकारियों को सतर्क कर दिया.
 
 
योजना के अनुसार महासंग्राम का शुभारम्भ 31 मई 1857 को निश्चित किया गया था. हालाँकि उससे पहले ही 10 मई को मेरठ छावनी में सैनिकों ने असामयिक हमला कर दिल्ली की ओर कूच कर दिया. परिणामस्वरूप महासंग्राम अलग-अलग तिथियों पर अलग-अलग स्थानों पर शुरू हुआ.
 
The Hidden Truth of the 1857 Revolt nana peshwa
 
 
कानपुर में महासंग्राम
 
 
कानपुर छावनी कंपनी की दृष्टि से बेहद अहम थी. इस शहर पर 1801 से ही अंग्रेजों का कब्ज़ा बना हुआ था. अवध के नवाब पर नजर रखने और 1817 में पेशवा के वहां आकर बसने के बाद इसका राजनैतिक महत्व अधिक हो गया था. यहाँ 53वीं और 56वीं टुकड़ी के पैदल सैनिक और घुड़सवारों की द्वितीय लाइट कैलवरी और तोपों को तैनात किया गया था. इस 3000 लोगों की सेना का नेतृत्व ह्यू मेसी व्हीलर के पास था.
 
 
नाना साहब की लखनऊ यात्रा के बाद कानपुर के सैन्य अधिकारियों को सतर्क रहने के लिए कहा गया था लेकिन उन्हें नाना साहब पर इतना विश्वास था कि उन्होंने उसपर खास ध्यान नहीं दिया. लेकिन मेरठ और दिल्ली की घटनाओं के बाद कानपुर में सावधानियां बरती जाने लगी. अवध से घुड़सवारों को बुलाया गया और स्थानीय अधिकारियों को कहा गया कि वे रात्रि में सैनिकों की पंक्ति में ही सोये. अंग्रेजों ने नाना साहब से सहायता मांगी और उन्होंने सहर्ष ही 200 घुड़सवार, 400 पैदल सैनिक और 2 तोपें भेज दी. कुछ दिनों बाद अवध के घुड़सवारों को विश्वस्त न मानकर लखनऊ से 32वीं रेजिमेंट को बुलाया गया.
 
 
कानपुर के कलेक्टर ने नाना साहब से मिले हाथियों द्वारा खजाने को किसी गुप्त स्थान पर ले जाना चाहता था लेकिन उसके सुरक्षा सैनिकों ने विरोध कर दिया. उन्होंने अंग्रेज सैनिको द्वारा भी खजाने की सुरक्षा पर रोष प्रकट कर दिया. हताश होकर कलेक्टर ने नाना साहब से संपर्क किया. उन्होंने इस स्थिति का लाभ उठाकर अपने द्वारा भेजे गए सैनिको को खजाने की सुरक्षा का सुझाव दिया, जिसे कलेक्टर ने स्वीकार कर लिया. इस प्रकार नाना साहब को अंग्रेजों का खजाने पर अधिकार ज़माने की स्वर्णिम अवसर मिल गया.
 
 
संकट को ध्यान में रखते हुए, व्हीलर ने स्वयं की रक्षा के लिए प्रबंध करने शुरू कर दिए थे. उसने एक सिपाहियों की बैरक के पास एक अस्पताल को चुना और वहां में 4 फुट ऊँची कच्ची दीवार बनवा दी. दुगनी मजदूरी देकर पूरा कार्य 4 दिनों में पूरा करवाया गया. इसी स्थान पर 200 यूरोपियन सैनिको, औरतों और बच्चों ने शरण ली.
 
 
उस स्थान का वर्णन फ्लेचर हेइज द्वारा इस प्रकार किया गया है, “जब मैं कोट में गया तो मैंने बग्घियों, पालकियों और गाड़ियों पर लिपिकों, व्यापारियों और अन्य लोगों को सामान लादकर आते देखा. प्रत्येक व्यक्ति काल्पनिक शत्रु से थर्रा रहा था….. दुधमुंहे बच्चों के साथ स्त्रियाँ, दाइयां और बच्चे और अफसर चारों ओर फैले हुए थे. ऐसी स्थिति में अगर विद्रोह होता है तो इसके लिए हमारे सिवा और कोई दोषी नहीं होगा. हमने हिन्दुस्तानियों को दिखा दिया है हम कितनी जल्दी डर जाते है और डर जाने पर कितने असहाय हो जाते है.”आप लोग किले बंदी खड़ी कर रहे है, उसका नाम क्या होगा?”
 
 
इस कोट में 24 मई से 31 मई तक सभी अंग्रेज प्रत्येक पल महासंग्राम को लेकर भयभीत रहे. एक दिन अजीमुल्ला अंग्रेजों की इस किलेबंदी को देखने गए. उन्होंने लेफ्टिनेंट डेनियल से प्रश्न किया, “आप लोग किलेबंदी कर रहे है उसका क्या नाम होगा?” डेनियल ने कहा, “हमने इस पर विचार नहीं किया है.” अजीमुल्ला ने कहा, “इसका नाम तो निराशा का दुर्ग होना चाहिए.” डेनियल बोला, “नहीं, इसका नाम विजयदुर्ग होगा.” इसपर अजीमुल्ला ने जोर से अट्टहास किया.
 
 
The Hidden Truth of the 1857 Revolt nana peshwa
 
 तात्या टोपे
तात्या टोपे के बयान के अनुसार, “In the month of May 1857 the Collector of Cawnpoor (Kanpur) sent a note of the following purport, to the Nana Sahib at Bithoor viz. that he begged him (the Nana) to forward his wife and children to England. The Nana consented to do so and four days afterwards the Collector wrote to him to bring his troops and guns with him from Bithoor to Cawnpoor. I went with the Nana and about 100 sepoys and 300 matchlockmen and 2 guns to the Collector’s house at Cawnpoor. The Collector was then in the entrenchment and not in his house.
 
 
He sent us word to remain and he stopped at his house during the night. The Collector came in the morning and told the Nana to occupy his own house which was in Cawnpoor. We accordingly did so. We remained there four days and the gentleman said it was fortunate we had come to his aid as the sepoys had become disobedient and that he would apply to the General in our behalf. He did so and the General wrote to Agra whence a reply came that arrangements would be made for the pay of our men. Two days afterwards the three Regiments of Infantry and the 2nd Light Cavalry surrounded us and imprisoned the Nana and myself in the treasury and plundered the magazine and treasury of everything they contained leaving nothing in either.
 
 
Of the treasure the sepoys made over two lacs and eleven thousand Rupees to the Nana, keeping their own sentries over it. The Nana was also under charge of these sentries and the sepoys which (sic,) were with us also joined the rebels. After this the whole army marched from that place and the rebels took the Nana Sahib and myself and all our attendants along with them and said ‘Come along to Delhi’. Having gone 3 crore from Cawnpoor the Nana said that as the day was far spent it was better to halt there then and to march in the following day. They agreed to this and halted. In the morning the whole army told him (the Nana) to go with them towards Delhi. The Nana refused and the army then said, ‘Come with us to Cawnpoor and fight them’. The Nana objected to this, but they would not attend to him and so taking him with them as a prisoner they went towards Cawnpoor and fighting commenced there…..”
 
 
1 जून तक कोई घटना नहीं हुई और अंग्रेज पहले की अपेक्षा आश्वस्त हो गए कि अब सेना कोई उनके खिलाफ कदम नहीं उठाएगी. इस दौरान नाना साहब महासंग्राम की अपनी तैयारियों को गुप्त तरीके से अंजाम तक पहुँचाने में लगे थे. एक शाम गंगा नदी के किनारे बलाराव (नाना के भाई), शमशुद्दीन खान, गणिका अजिनान, अजीमुल्ला और नाना साहब ने दो घंटो तक चर्चा की. जब इसकी खबर अंग्रेजों को लगी तो नाना साहब ने जवाब दिया कि यह बैठक दूसरी पलटन को शांत रखने के लिए थी. जबकि सच्चाई यह थी कि नाना साहब ने घुड़सवार पलटन को अपने साथ मिला लिया था.
 
 
4 जून की आधी रात को तीन फायरों के साथ कानपुर में भी महासंग्राम की शुरुआत हो गयी. पैदल सेना और दूसरी घुड़सवार रेजीमेंटों ने छावनी से बाहर निकल कर खजाने पर अधिकार कर लिया और अंग्रेजों के कई स्थानों पर आग लगा दी. उसके बाद इन क्रांतिकारियों ने जेल में बंद सभी कैदियों को रिहा कर दिया. तत्पश्चात यह सभी सैनिक कानपुर से थोड़ी दूर कल्याणपुर नाम के स्थानपर एकत्रित हुए और दिल्ली जाने की योजना बनाने लगे. इसी के साथ अजीमुल्ला, नाना साहब और बालाराव भी मौजूद थे. नाना ने उन्हें पहले कानपुर पर पूर्ण अधिकार करने का आदेश दिया. सभी ने मिलकर नाना साहब को अपना राजा चुना और सूबेदार टिक्का सिंह को कमांडर बनाकर जनरल की पदवी दी गयी. जमादार दलगंजन सिंह 53 नंबर पलटन के कर्नल और सूबेदार गंगादीन को प्रधान पलटन का कर्नल बनाया गया.
 
 
अब नाना के पास खजाना, सैनिक सबकुछ था. अतः उन्होंने अब गुप्त तरीका छोड़कर खुलकर अंग्रेजों को चुनौती देना शुरू कर दिया. कानपुर लौटने पर उन्होंने व्हीलर को बताया कि वे उनसे युद्ध के लिए आ रहे है. 6 जून को उन्होंने कोट को घेर लिया और कई तोपों को वहां तैनात कर दिया. 9 से 12 जून के बीच वहां गोलाबारी होती रही. इस पूरे कार्यवाही में नाना साहब की सेना हमेशा आगे रही और अनेक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया.
 
 
6 जून को अवध लोकल इन्फेंट्री की चौथी और पांचवी पलटन भी नाना के साथ आकर मिल गयी थी. इस नयी पलटन ने कोट के उस स्थान पर हमला किया जहाँ पानी का एकमात्र साधन – कुआं हुआ करता था.
 
 
इस दौरान नाना ने कानपुर में अस्थाई शासन व्यवस्था भी स्थापित कर ली थी. इसके बाद बाँदा, हमीरपुर, इटावा, जालौन, झाँसी में भी सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. उनके सहयोग और समन्वय के लिए नाना साहब ने तात्या टोपे और बालाराव को भेजा. इन्होने झाँसी की रानी, बाँदा के नवाब, फर्रखुबाद के नवाब सहित ग्वालियर और रीवा में महासंग्राम का संचालन किया.
 
 
23 जून तक कोट में घिरे अंग्रेज सैनिकों की स्थिति अत्यंत ख़राब हो गयी थी. सुरेन्द्रनाथ सेन लिखे है, “Death came from all quarters at all hours. Major Lindsay was blinded by the splinters of a round shot and died a few days later. His wife followed him a day or two after. Heberden was wounded while handing some water to one of the ladies and died after a week of intense suffering. Lieutenant Eckford was killed while sitting in the verandah. Mrs. White was walking with her husband under the cover of a wall, she had two babies, twins, one in each arm. A single bullet killed the husband and broke both the arms of Mrs. White. Hillcrsdon, the Magistrate, died while talking to his wife in the verandah. Lieutenant Wheeler, the son of the General, had been wounded in the trenches, he was killed by a round shot in a sofa in his room within the sight of his parents and sisters.”
 
 
उनके पास भोजन नहीं था और कोई सहायता की भी उम्मीद नहीं थी. व्हीलर ने लखनऊ कई सन्देश भेजे लेकिन उसे कोई तुरंत सहायता मिलने की कोई उम्मीद नहीं दी गयी. 21 दिनों बाद, आखिरकार 26 जून को नाना और व्हीलर के बीच संधि हुई.
 
 
संधि के लिए नाना ने जेल में कैद एक महिला अंग्रेज को जनरल व्हीलर के पास क्विन विक्टोरिया की जनता को सम्बंधित करते हुए एक सन्देश भेजा, “जिनका डलहौजी की नीतियों से सम्बन्ध नहीं है और जो हथियार समर्पण करना कहते है उन्हें सुरक्षित इलाहबाद पहुंचा दिया जायेगा.” यह सन्देश अजीमुल्ला द्वारा ही लिखा गया था.
 
 
इस सन्देश के बाद, व्हीलर ने कैप्टन मुर और व्हिटिंग को विचार करने के लिए कहा. दोनों अधिकारियों ने आत्मसमर्पण का निश्चय किया और अगले दिन नाना पेशवा की तरफ से ज्वाला प्रसाद और अजीमुल्ला खान; कंपनी की तरफ से मूर, व्हिटिंग और रोचे मिले. कंपनी ने अपनी सभी तोपें और हथियार नाना को सौंप दिए और उन्हें भोजन उपलब्ध कराकर इलाहबाद भेजने की तैयारियां की जाने लगी.
 
 
इलाहाबाद जाने वाले अंग्रेजों की मुसीबत अभी समाप्त नहीं हुई. वे सभी हाथियों और पालकियों के माध्यम से गंगा नदी के किनारे पहुंचे. वहां उस दिन बहुत भीड़ थी और स्थानीय नागरिक अपने पुराने शासकों को जाते हुए देखने के लिए उत्सुक थे. अंग्रेज 40 नौकाओं में सवार हुए, उनके नाविक सतिचौरा घाट से कुछ दूर ही गंगा नदी में कूद गए. उनके ऊपर अंग्रेजों ने गोलियां चलाई लेकिन वे तबतक सकुशल घाटों तक पहुँच गए.
 
 
दरअसल, यह प्लासी युद्ध के 100 वर्ष इसी समय पूरे हो गए थे. दूसरी तरफ सैनिकों के जेहन में इलाहाबाद और बनारस में कंपनी की क्रूरता भी बस गयी थी. इसलिए उन्होंने गंगा नदी में ही उन सभी बचे हुए अंग्रेजों को मारने की योजना बनायीं. सिपाही ने कंपनी के इन बचे हुए अंग्रेजों को मरने पर तुले हुए थे. उन्होंने घाटों पर जाने से पहले नावों में छुपा रखे बारूद में आग लगा दी. सभी नावों में आग नहीं लगी और कुछ बच निकली. व्हीलर और हिलसर्दन सभी अंग्रेज मारे गए.
 
 
इस दौरान किसी ने नाना साहब को इसकी जानकारी नहीं थी. संभवतः यह तात्या टोपे और अजीमुल्ला के इशारों पर हुआ होगा. जब नाना को इस घटना की सूचना हुई तो उन्होंने कुल मौजूद 125 अंग्रेज महिलाओं और बच्चों को बीबीघर में बंदी बनाने का आदेश दे दिया. फिर भी कुछ नावों में अंग्रेजों महिला और पुरुष बचकर 28 जून को नजफगढ़ पहुंचे, जहाँ उन्हें क्रांतिकारियों का गोलियों का सामना करना पड़ा. इन झडपों में 80 महिला और पुरुषों को बंदी बनाया गया. 30 जून को सभी पुरुष अंग्रेजों को फांसी दे दी गयी. महिलाओं और बच्चों को बीबीघर भिजवा दिया गया.
 
 
नाना साहब का राज्याभिषेक
 
 
इस विजय के बाद, नाना साहब का पेशवाई तरीके से राज्याभिषेक किया गया. छह दिनों तक बिठुर में उत्सव मनाये गए. फतेहपुर भी 9 जून को स्वतंत्र हो गया और वहां भी नाना साहब का राज्य घोषित किया गया.
 
 
इलाहबाद की पराजय
 
 
इलाहबाद में एक अंग्रेज सैन्य अधिकारी नील ने आतंक मचा दिया था. वहां क्रांतिकारियों को पराजय का सामना करना पड़ा. मौलवी लियाकत खान इस सन्देश के साथ 24 जून को कानपुर आये थे. हालाँकि नील को व्हीलर के गुप्त सन्देश मिल रहे थे लेकिन उसका तब प्रयाग से निकल पाना एकदम असंभव था.
 
 
इस दौरान, नाना के पास अब 3500 सैनिकों की एक फौज तैयार हो गयी थी. उन्होंने अब कलकत्ता पर धावा बोलने की तैयारियां शुरू कर दी. उधर प्रयाग की विजय के बाद नील को मेजर रेनाड की सहायता मिल गयी. तभी एक सैन्य अधिकारी हैवलाक भी प्रयाग आ गया और उसने सेना का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया. अब उनके पास 1400 अग्रेज, 600 सिख और 8 तोपें थी. वह अब कानपुर पर नजर रखने लगे थे.
 
 
15 जुलाई को आंग गाँव (महाराजपुर) में पांडो नदी पारकर हैवलाक और नाना साहब की सेना के बीच भीषण युद्ध हुआ. कंपनी के 25 सैनिक मारे गए लेकिन बाला साहब के कंधे पर गोली लगने से वे भी घायल हो गए. इसलिए दो घंटों के उपरांत ही क्रांतिकारियों और कंपनी दोनों को पीछे हटना पड़ा.
 
 
महाराजपुर से कानपुर कुछ ही दुरी पर रह गया था. क्रांतिकारियों ने रास्ते में नदी पर बने एक पुल को तोपों से उड़ाने का प्रयास किया, जिससे हैवलॉक न पुल पार कर सके. दुर्भाग्यवश यह प्रयास असफल रहा. जैसे ही नाना साहब को अपने सैनिकों की सूचना मिली, वे स्वयं 14 तोपों और पैदल सेना के साथ युद्ध के मैदान में आ गए. इस युद्ध में किसी को भी विजय नहीं मिली और दोनों सेनाएं पीछे हट गयी. लेकिन कंपनी की सेना ने पुल पार कर लिया था.
 
 
हैवलॉक ने हार नहीं मानी, और जब वह अगले आक्रमण की योजना बना रहा था, तभी नाना की सेना ने हमला बोल दिया. इसके बाद नाना की तोपे गरजने लगी. एक समय नाना की सेना ने अंग्रेजों को पीछे किया लेकिन कुछ ही समय बाद नाना की सेना को अपने तोपों को छोड़कर भागना पड़ा. इस जीत के बाद, हेवलॉक की सेना कानपुर पहुंच गई. लोगों को पकड़ कर फांसी दी जाने लगी. नाना के साथियों को फांसी में चढ़ाने से पहले जमीन पर पड़ा रक्त चटवाया जाता था.
 
 
7वीं बंगाल रेजिमेंट नाना साहब को पकड़ने आयी पर नाना साहब को पकड़ने में असफल रही. दरअसल, नानासाहब ने 18 जुलाई को बिठुर खाली कर दिया और अगले दिन कंपनी का वहां अधिकार हो गया. 19 जुलाई को हेवलॉक बिठूर गया और नाना साहब का घर लूट लिया. उनकी चांदी जड़ित तलवार अंग्रेजों के हाथ लगी.हाथी, घोड़ो को कब्जा करके घर मे आग लगा दी गयी.
 
 
इसके बाद कानपुर और बिठुर को स्वतंत्र कराने के लिए कई युद्ध हुए जिसमें कुंवर सिंह भी कालपी तक आ गए थे. हालाँकि, इन सभी प्रयासों के बावजूद भी जनवरी 1858 तक कंपनी का कानपुर पर अधिकार स्थापित हो चुका था. लेकिन इस दौरान नाना किसी अज्ञातवास में थे. कंपनी ने 28 फरवरी 1858 को घोषणा की, “जो व्यक्ति नाना को गिरफ्तार करवाएगा उसे 1 लाख का इनाम दिया जायेगा.”
 
 
बिठुर छोड़ने के बाद भी नाना कई क्रांतिकारियों जैसे झाँसी की रानी, बांदा और फर्रुखाबाद के संपर्क में थे. उन्होंने रूहेलखंड और गंगा के उपरी क्षेत्रों पर अपना ध्यान केंदित किया. 11 मार्च को वे शाहजहांपुर पहुंचे और अलीगंज होते हुए 25 मार्च को बरेली आ गए. वे वहां अप्रैल माह के अंत तक रहे. उन्होंने वहां भी क्रांतिकारियों को एकजुट किया. सैनिकों का दल एकत्रित किया और, 40 तोपें जुटा ली. यही नहीं उन्होंने अपने भाई बालाराव को गोंडा और बहराइच भेजकर नेपाल के राणा जंगबहादुर को भी अपनी ओर मिला लिया था.
 
 
नाना ने जो सेना एकत्रित की थी, उसने 5 मई को बरेली में कंपनी से अंतिम मोर्चा लिया. बरेली का प्रमुख खान बहादुर इस दल का नेतृत्व कर रहा था. हालाँकि यहाँ भी क्रांतिकारियों को सफलता न मिल सकी और बरेली भी हाथ से चला गया. दरअसल, राणा जंगबहादुर ने क्रांतिकारियों की सहायता करने से अपने कदम पीछे खींच लिए थे. इस बीच झाँसी की रानी ने भी युद्ध में लड़ते हुए अपना सर्वोच्च बलिदान दे दिया.
 
 
5 जून को नाना साहब, अवध की बेगम, मम्मू खान और फिरोजशाह शहजादे के साथ नेपाल के तराई इलाकों में चले गए. वहां से भी वह क्रांतिकारियों के बीच लगातार समन्वय बनाते रहे. अंतत नाना साहब को कंपनी की सेना कभी पकड़ न सकी. वे अपनी मृत्यु तक कहाँ रहे इसकी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है.
 
 
अजीमुल्ला खान और रंगो बापूजी गुप्ते
 
 
शुरूआती जीवन – अजीमुल्ला खान
 
 
अजीमुल्ला खान 1857 के युद्ध के प्रमुख नायकों में से एक थे. इतिहास की अनेक पुस्तकों में उनके एक मुस्लिम पठान परिवार में पैदा होने का तो जिक्र है लेकिन उनका जन्म कब हुआ, इसे लेकर कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है. उनके जीवन की स्पष्ट जानकारी साल 1837-1938 में गंगा एवं यमुना के दोआब में पड़े भीषण अकाल के दौरान मिलती है, तब उन्हें और उनकी माँ को बचाकर कानपुर के एक अनाथालय में जगह दी गयी थी. उसके बाद, उनकी माँ वहां एक आया के रूप में काम करने लगी थी.
स्फूर्ति और आकर्षक व्यक्तित्व वाले अजीमुल्ला खान ने जीवन के शुरूआती दिनों में एक एंग्लो-इंडियन परिवार में खिदमतगार (नौकर) के तौर पर काम किया. उन्होंने कानपुर के ईसाई मिशनरी विद्यालय में 10 सालों तक पढाई कर इंग्लिश एवं फ्रेंच भाषा पर अच्छी पकड़ बना ली थी. बाद में, वे वही अध्यापन का कार्य करने लगे. दो साल बाद, वे ब्रिगेडियर स्कौट के साथ मुंशी के तौर पर जुड़ गए.
 
 
नाना साहब पेशवा से मुलाकात
 
 
कानपुर से लगभग 23 किलोमीटर दूर, बिठूर नाम का एक छोटा सा शहर मराठा पेशवाओं का गढ़ बना हुआ था. इसी शहर में पहली बार नाना पेशवा और अजीमुल्लाह की मुलाकात हुई. इस भेंट का वास्तविक प्रयोजन और दिनांक दोनों स्पष्ट नहीं है लेकिन पहली ही मुलाकात में युवा अजीमुल्लाह खान ने अपनी बुद्धिमानी और समझदारी की छाप पेशवा पर छोड़ दी थी. इसलिए पेशवा उन्हें वापस कानपुर नहीं जाने देना चाहते थे. जल्दी ही वे नाना पेशवा के करीबी सलाहकार बन गए.
 
 
वैसे इस मुलाकात का तार्किक कारण यह था कि नाना पेशवा के पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरुद्ध संघर्ष में समर्पण कर दिया था. बदले में उन्हें और उनके परिवार को कंपनी से आठ लाख रूपए की सालाना पेंशन दी जाती थी. 1 जून 1818 को संधि की शर्तों के अनुसार पेशवा को पूना छोड़कर बिठूर में रहने के लिए एक जागीर दी गयी. पेशवा की दो रानियाँ - मैना बाई और साई बाई थी, जिनसे उन्हें दो बेटियां - जोगा बाई और कुसुमा बाई का जन्म हुआ. एक पुत्र का जन्म भी हुआ लेकिन उसका बाल्यकाल में निधन हो गया. अपनी वंश परंपरा, आश्रितों की देखभाल और पेशवाई की गद्दी की सूनी होने की चिंता के चलते उन्होंने 1827 में तीन वर्ष के धोंडू पन्त (नाना साहब) को अपना दत्तक पुत्र बनाया. नानासाहब के अलावा उन्होंने सदाशिव राव (दादा साहब) और गंगाधर को भी पुत्र के रूप में और रावसाहब पांडुरंगवाह को पौत्र के रूप में गोद लिया था.
 
 
28 जनवरी 1851 को पेशवा बाजीराव ने अपने निधन से पहले ही नाना साहब को अपना ज्येष्ठ पुत्र मानते हुए उत्तराधिकारी एवं प्रतिनिधि घोषित कर दिया था. हालाँकि, कंपनी के तत्कालीन गवर्नर-जनरल, डलहौजी ने पेशवा बाजीराव को मिलने वाली पेंशन को नाना पेशवा को देने से इनकार कर दिया.
 
 
असल में तो कंपनी की नजर नाना साहब की जागीर को हड़पने पर थी. पेंशन न देने के लिए बहाने बनाए जाने लगे जैसे कि ‘पेशवा ने पहले ही बहुत सी धन-संपत्ति अर्जित की हुई है’. इस सन्दर्भ में इतिहासकार लिखते है, “The Court of Directors of the East India Company were hard as a rock, and by no means to be moved to compassion. They had already expressed an opinion that the savings of the Peishwah were sufficient for the maintenance of his heirs, and dependents.”
 
 
बावजूद इसके, नाना ने पेंशन फिर से जारी करवाने के लिए कई असफल प्रयास किये. उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी को एक मेमोरियल भी भेजा, जिसका जवाब इस प्रकार था, “Inform the memorialist that the pension of his adoptive father was not hereditary, that he has no claim whatever to it, and that his application is wholly inadmissible.”
 
 
साल 1852 में उन्होंने रानी विक्टोरिया के लन्दन स्थित कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स में भी अपील की लेकिन समाधान नाना के पक्ष में नहीं आया. कुछ सालों तक लगातार कोशिश करने के बाद भी उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ. चूँकि, अजीमुल्लाह की अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ थी, तो नाना पेशवा ने अपनी ओर से उन्हें लन्दन भेजा. उनके साथ मोहम्मद अली खान नाम का एक सहायक भी था.
 
 
लन्दन में अजीमुल्ला और रंगो बापूजी गुप्ते की मुलाकात
 
 
रंगो बापूजी गुप्ते का भी सम्बन्ध मराठाओं से था. दरअसल वे सतारा के छत्रपति के यहाँ काम करते थे. वे लन्दन में कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स के समक्ष अपने छत्रपति का पक्ष रखने के सिलसिले में 1840 से वहां मौजूद थे. जब 1854 में अजीमुल्लाह कलकत्ता से लन्दन पहुंचे, तो उनकी मुलाकात रंगो बापूजी से हुई.
 
 
वीर सावरकर लिखते है, “Rango Bapuji and Azimullah Khan holding secret interviews with each other in some London rooms. Though history cannot record the exact conversation the Brahmin of Satara held with the Khan Sahib of Brahmavarta, still, it is as certain as anything can be that the map of the rising was being prepared by these two in London. After leaving London, Rango Bapuji went straight to Satara, but it was not possible for Azimullah Khan to go direct to Hindusthan.”
 
 
हालाँकि, इन मुलाकातों से यह स्पष्ट है कि दोनों ने भारत लौटने से पहले भारत को ईस्ट इंडिया कंपनी से स्वतंत्र कराने का निश्चय कर लिया था. अंग्रेजों ने भी इस बात को स्वीकार करते हुए लिखा है, “That the first year of Lord Canning’s administration found Rungo-Bapojee as active for evil in the South as Azim-oollah was in the North. Both able and unscrupulous men, and hating the English with a deadlier hatred for the very kindness that had been shown to them.”
 
 
साल 1856 तक दोनों भारत लौट लाये थे, रंगो बापूजी सीधे सतारा पहुंचे जबकि अजीमुल्ला टर्की, क्रीमिया एवं रूस होते हुए बिठूर लौटे.
 
 
रंगो बापूजी का व्यक्तित्व
 
 
“Able and energetic, he had pushed his suit with a laborious, untiring conscientiousness, rarely seen in a Native envoy; but though aided by much soundness of argument and much fluency of rhetoric expended by others than hired advocates.”
 
 
शुरूआती जीवन – रंगो बापूजी
 
 
रंगोजी के जन्म की निश्चित दिनांक उपलब्ध नहीं है. उनके पिता, मावल इलाके के कारी गाँव (वर्तमान पुणे शहर की भोर तहसील में स्थित) से थे. वे सतारा के छत्रपति, प्रताप सिंह के यहाँ काम करते थे. साल 1836 में छत्रपति ने उन्हें बम्बई का अपना प्रतिनिधि बनाया था.
 
 
ईस्ट इंडिया कंपनी ने सतारा को हथियाने के लिए प्रताप सिंह को 1839 में गद्दी से हटाकर उनकी शक्तियों और व्यक्तिगत संपत्ति को छीन लिया. बदले में उन्हें निर्वासित कर बनारस में कैद कर दिया गया. भरण-पोषण के लिए 10 हजार रुपए महीने का एक निश्चित भत्ता दिया जाने लगा, जबकि सतारा के राजा रहते हुए उनकी कमाई 30 लाख रुपए थी.
 
 
रंगो बापूजी की लन्दन यात्रा
 
 
महाराजा का पक्ष रंगो बापूजी ने ईस्ट इंडिया कंपनी के कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स के समक्ष रखा. वे 30 जून 1840 को लन्दन पहुंचे थे. जब वे लन्दन में थे, इसी बीच प्रताप सिंह का 14 अक्टूबर 1847 को निधन हो गया. अतः 4 जून 1850 को गवर्नर-जनरल डलहौजी ने सतारा की महारानी को उनके राज्य के अपने दावों को त्यागने के लिए मजबूर कर दिया और सतारा पर कब्जा कर लिया.
 
 
परिणामस्वरुप, 1854 में वे भारत लौट आए. हालाँकि, जिस उद्देश्य से वे वहां गए थे वह सफल नही हुआ क्योंकि कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स ने प्रताप सिंह को उनकी संपत्ति और गद्दी दोनों न लौटने का फैसला कर लिया था.
 
 
अजीमुल्ला की विदेश यात्रा
 
 
अजीमुल्ला खान भी रंगो बापूजी गुप्ते की तरह एक ही उद्देश्य के लिए लन्दन आये थे, और उन्हें भी असफलता मिली. वे दो साल लन्दन में रहे लेकिन कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स ने नाना पेशवा की पेंशन न देने का मन बना लिया था. अजीमुल्लाह ने उसे फिर से शुरू करवाने की बहुत कोशिश की, रानी विक्टोरिया से मिले, लेकिन उसका भी कोई असर नहीं हुआ.
 
 
इस दौरान, लन्दन में उनकी एक भारतीय राजकुमार के रूप में ख्याति हो गयी थी. अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा का ज्ञान होने के कारण महिलाओं में बहुत घुल-मिल गए. ठीक इसी समय यूरोप में क्रीमिया युद्ध शुरू हो गया. अंग्रेजी और फ़्रांसिसी सेनाओं ने रूस सैनिकों से टक्कर ली. अतंतः रूस की विजय हो गयी. अजीमुल्लाह खान को आभास हुआ कि अगर रूस ब्रिटेन को हरा सकता है तो ऐसा ही कुछ भारत में ही किया जा सकता है. इसलिए उन्होंने रूस की तैयारियों का जायजा लेने का मन बना लिया. वे उन ‘रुसी रुस्तमों’ को देखना चाहते थे, जिन्होंने अंग्रेजों को परस्त कर दिया था.
 
 
भारत लौटने से पहले, वे फ्रांस और इटली होते हुए टर्की गए और वहां से क्रीमिया युद्ध के मोर्चे पर पहुंचे. अजीमुल्ला को रूस की जीत की खबर 18 जून 1855 को माल्टा में मिली और वही से वे Constantinople (वर्तमान इस्तांबुल शहर) जाने की तैयारी कर रहे थे. उन्होंने टर्की के खलीफा उमर पाशा को भी पत्र लिखे. उनकी इस यात्रा में उन्हें डोयन और डब्लू. एच. रसेल नाम के दो व्यक्तियों का सहयोग मिला. रसेल उस दौरान, लन्दन टाइम्स समाचारपत्र के विशेष संवाददाता थे. उन्होंने अपनी पुस्तक में अजीमुल्लाह की यात्रा का वर्णन दिया है.
 
 
रूस जाने का रसेल से जिक्र : “[I] want to see this famous city, and those great Roostums, the Russians, who have beaten French and English together.”
 
 
अतः वे रसेल की सहयता से क्रीमिया में बाल्कलवा की उन खाड़ियों तक पहुँच गए जहाँ से रुसी तोपों की गोलाबारी दिखाई दे सकती थी. रसेल उस समय युद्ध के मोर्चे पर ही थी. दोनों पहले भी एकबार किसी होटल कें मिल चुके थे. इस यात्रा की पृष्ठभूमि पर रसेल लिखते है, “अजीमुल्ला के साथ पहली मुलाकात के बाद कई हफ़्तों तक वे उनसे नहीं मिले, तभी एक व्यक्ति मेरे शिविर में डोयन के एक पत्र के साथ आया. उन्होंने अपने मित्र अजीमुल्ला की सहायता के लिए मेरे से सिफारिश की थी.”
 
 
रसेल और अजीमुल्ला की बातचीत का विवरण : “I found Azimoola had retreated inside the cemetery, and was looking with marked interest at the fire of the Russian guns. I told him what he was to do, and regretted my inability to accompany him, as I was going out to dinner at a mess in the Light Division. “Oh,” said he, “this is a beautiful place to see from; I can see everything, and, as it is late, I will ask you to come some other day, and will watch here till it is time to go home.” 
 
 
He said, laughingly, “I think you will never take that strong place;” and in reply to me, when I asked him to come to dine with me at my friend’s, where I was sure he would be welcome, he said, with a kind of sneer, “Thank you, but recollect I am a good Mahomedan!” “But,” said I, “you dined at Missirie’s?” “Oh, yes: I was joking. I am not such a fool as to believe in these foolish things. I am of no religion.” When I came home that night I found he was asleep in my camp-bed, and my servant told me he had enjoyed my stores very freely. In the morning he was up and off, ere I was awake. On my table I found a piece of paper – “Azimoola Khan Presents his compliments to Russell, Esquire, and begs to thank him most truly for his kind attentions, for which I am most obliged.”
 
 
रसेल के शिविर में एक रात रूककर अजीमुल्ला भारत लौट आये और नाना साहब को अपने प्रयासों, विफलताओं और साहसी यात्राओं का विवरण दिया. इस विदेश यात्रा द्वारा अजीमुल्ला को अंग्रेजों की वास्तविक हालत, ढोल की पोल, तथा स्वतंत्र जीवन का आभास मिला गया. यही से 1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार हो गयी थी.

Azimullah 1857 
 
अजीमुल्ला का व्यक्तित्व
 
 
“A handsome slim young man, of dark-olive complexion, dressed in an Oriental costume which was new to me, and covered with rings and finery. He spoke French and English, dined at the table d’hote, and, as far as I could make out, was an Indian prince, who was on his way back from the prosecution of an unsuccessful claim against the East India Company in London.”
 
 
भारत में स्वतंत्रता संग्राम में अजीमुल्ला का योगदान
 
 
सबसे पहले, अजीमुल्ला ने नाना साहब के नाम से देशभर के हिन्दू और मुसलमान राजाओं को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने के लिए पत्र लिखवाये. यह सभी पत्र उन्होंने अपने विश्वस्त प्रतिनिधियों के माध्यम से भारत के सभी राजाओं को भेजे.
 
 
वीर सावरकर लिखते है, “The broad features of the policy of Nana Sahib and Azimullah was that the Hindus and the Mahomedans should unite and fight shoulder to shoulder for the independence of their country and that, when freedom was gained, the United States of India should be formed under the Indian rulers and princes.”
 
 
साल 1856 में ‘Payam-e-Azadi’ नाम से अजीमुल्ला ने एक पत्रिका का शुरू की. जिसमे क्रन्तिकारी गतिविधियों से सम्बंधित महत्वपूर्ण दस्तावेज एवं तथ्य उपलब्ध रहते थे.
 
 
मार्च 1857 में दोनों ने मिलकर कई धार्मिक स्थानों के गुप्त दौरे किये. अप्रैल के अंत में, नाना साहब और अजीमुल्ला स्वतंत्रता संग्राम में जरुरी एकजुटता लाने के लिए उत्तरी भारत के सभी प्रमुख शहरों की यात्रा कर चुके थे. अब वे सही समय का इंतजार कर रहे थे.
 
 
तभी अचानक मेरठ में सिपाहियों द्वारा दिल्ली कूच कर दिया गया. नाना साहब और अजीमुल्ला दोनों ने स्वतंत्रता संग्राम को सफलता दिलाने के उद्देश्य से हरसंभव प्रयास करने शुरू कर दिए. वीर सावरकार अपनी पुस्तक में उन दिनों का एक उदाहरण पेश करते हुए लिखते है, “On the evening of the 1st of June, Nana Sahib, accompanied by his brother Bala Sahib and his minister Azimullah Khan, came down to the banks of the sacred Ganges. There stood Subahdar Tikka Singh and the heads of the Secret Society awaiting him. The whole company then got into a boat. They entered the fair waters of the holy Ganges; everyone there took an oath, with the water of the Ganges in his hands that he would participate in the bloody war for his country’s liberty.”
 
 
कानपुर में एक युद्ध के दौरान नानाजी पेशवा और अजीमुल्ला के नेतृत्व में कंपनी को हार स्वीकार करनी पड़ गयी थी. कंपनी के सैनिक बुरी तरह से घिर गए और उन्होंने संधि का प्रस्ताव भेजा. मराठाओं ने कई अंग्रेजों को जेलों में कैद कर लिया था. संधि के लिए नाना ने जेल में कैद एक महिला अंग्रेज को जनरल व्हीलर के पास क्विन विक्टोरिया की जनता को सम्बंधित करते हुए एक सन्देश भेजा, “जिनका डलहौजी की नीतियों से सम्बन्ध नहीं है और जो हथियार समर्पण करना कहते है उन्हें सुरक्षित इलाहबाद पहुंचा दिया जायेगा.” यह सन्देश अजीमुल्ला द्वारा ही लिखा गया था.
 
 
इस सन्देश के बाद, व्हीलर ने कैप्टन मुर और व्हिटिंग को विचार करने के लिए कहा. दोनों अधिकारियों ने आत्मसमर्पण का निश्चय किया और अगले दिन नाना पेशवा की तरफ से ज्वाला प्रसाद और अजीमुल्ला खान; कंपनी की तरफ से मूर, व्हिटिंग और रोचे मिले. कंपनी ने अपनी सभी तोपें और हथियार नाना को सौंप दिए और उन्हें भोजन उपलब्ध कराकर इलाहबाद भेज दिया.
 
 
भारत में स्वतंत्रता संग्राम में रंगो बापूजी का योगदान
 
 
रंगोजी भी नाना साहब के भी लगातार संपर्क में थे. लगभग एक वर्ष तक उन्होंने उत्तर भारत का दौरा किया. 1855 में, कानपुर में उनकी मुलाकात तात्या टोपे से हुई, और दोनों ने नाना साहब पेशवा के साथ बिठूर में एक सम्मेलन में भी हिस्सा लिया. सतारा वापस लौटकर उन्होंने ब्रिटिश विरोधी तत्वों को संगठित करने की कोशिश शुरू कर दी.
 
 
30 जून 1857 से कुछ दिनों पहले सतारा किले के पीछे परली नाम के स्थान पर एक डाका डाला गया. इसके पीछे बड़ी संख्या वाले एक गिरोह का हाथ था जोकि आसपास के जंगलों से एकत्रित हुए थे. पड़ताल करने पर पता चला कि इस गिरोह के मुखिया रंगो बापूजी गुप्ते थे.
 
 
इस गिरोह का उद्देश्य था कि सतारा पर हमले के साथ-साथ यावातेश्वर, और महाबलेश्वर में सभी यूरोपियन की हत्या करना और खजाने को लूटना. इसकी तैयारियां जनवरी 1857 से ही शुरू हो गयी थी. हमले के लिए हथियारों को इक्कठा करना भी शुरू हो गया था. सतारा के एक ही घर में 820 बुलेट्स मिली. कुछ दस्तावेजों के अनुसार लगभग 2000 लोगों की एक छोटी सेना भी तैयार हो चुकी थी और जेल में कैद 300 लोगों को भी शामिल करवाने की योजना बन चुकी थी.
 
 
भारी मात्रा में हथियार जमा होने शुरू हो गए थे. प्रताप सिंह के दत्तक पुत्र, साहू और उनके सेनापति का दत्तक पुत्र, दुर्गा सिंह जैसे युवाओं को सेना का नेतृत्व दिया गया. स्थानीय पुलिस के मुखिया अन्ताजी राजे शिर्के (बाबासाहब) ने भी अपने माध्यम से पुलिस को एकदम निष्क्रिय कर दिया था. बेलगाँव और कोल्हापुर से भी हजारों की संख्या में लोगों को सतारा लाने के लिए रंगो बापूजी ने व्यवस्था कर ली थी.
 
 
तभी उनके एक सहयोगी कृष्ण राव सदाशिव सिंदकर के विश्वासघात कर इन सभी तैयारियों की जानकारी कंपनी को दे दी. परिणामस्वरूप जुलाई 1857 में कई लोगों को गिरफ्तार कर ग्वालियर में कैद कर दिया गया. अतः सतारा षड़यंत्र का आरोप लगाकर 17 लोगों को 8 सितंबर 1857 को फांसी पर लटका दिया गया था, जिसमें रंगो बापूजी का बेटा सीताराम और साला केशव नीलकंठ चित्रे शामिल थे. हालाँकि रंगो बापूजी स्वयं कंपनी की जेल से भागने में सफल हो गए थे.
 
 
अजीमुल्ला खान और रंगो बापूजी का निधन
 
 
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद, अजीमुल्ला और नाना साहब नेपाल चले गए और वही 1859 में बिमारी से अजीमुल्ला का निधन हो गया. रंगो बापूजी 1857 के बाद से गायब हो गए और कब निधन हुआ इसकी कोई तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध नहीं है.