अलखेश्वरी माता रूप भावानी 404वाँ प्रकाश पर्व : कश्मीर की सनातन चेतना की ज्योति

    11-जून-2025
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404th Prakash Parv of Alakheshwari Mata Roop Bhawani
 
  
जब भारत की संत परंपरा की बात होती है, तो उसमें उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक असंख्य संतों ने समाज और आत्मा के उत्थान का मार्ग दिखाया है। लेकिन कश्मीर की पवित्र भूमि से निकली अलखेश्वरी माता रूप भावानी उन संत विभूतियों में से हैं जिन्होंने आध्यात्मिक साधना, दार्शनिक चिंतन और नारी शक्ति की ऐसी त्रिवेणी बहाई, जो आज भी कश्मीर की सांस्कृतिक चेतना को जीवित रखे हुए है। अलखेश्वरी माता रूप भवानी के प्रकाश पर्व या जन्मोत्सव को ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। लिहाजा संजीवनी शारदा केंद्र जम्मू द्वारा इस साल, यह 11 जून, 2025 को मनाया गया, जो माता रूप भवानी का 404वाँ जन्मोत्सव था। 
 
 
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
 
 
माता रूप भावानी का जन्म 1621 ईस्वी में हुआ, जब कश्मीर अनेक सामाजिक-धार्मिक चुनौतियों से जूझ रहा था। इस्लामी शासन के प्रभाव में हिंदू परंपराएं संघर्षशील थीं और सनातन संस्कृति की जड़ें कमजोर की जा रही थीं। ऐसे समय में एक महिला संत का उदय और उनकी चेतना का फैलाव, कश्मीर की आत्मा को एक नया संबल देने वाला था। 
 
 
पारिवारिक और प्रारंभिक जीवन
 
 
माता रूप भावानी का जन्म श्रीनगर के नवाकदल क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित सरस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता पंडित माधव जू धर एक ज्ञानी पुरुष थे और माता ‘सोमता’ धार्मिक विचारों वाली थीं। बाल्यकाल से ही रूप भावानी में वैराग्य, भक्ति और आत्मचिंतन की झलक दिखने लगी थी। विवाह हुआ, परन्तु यह सांसारिक बंधन उन्हें बाँध न सका और उन्होंने गृहस्थ जीवन को त्याग, आध्यात्मिक साधना का मार्ग चुन लिया।
 
 
आध्यात्मिक साधना और ज्ञान
 
 
माता रूप भावानी ने कश्मीर की पावन भूमि पर अनेक स्थानों पर तपस्या की चेश्माशाही, वतलार, हरवान, मनिगाम, ये सब आज उनकी तपस्थलियाँ मानी जाती हैं। उनकी साधना केवल धार्मिक कर्मकांडों तक सीमित नहीं थी, बल्कि उन्होंने त्रिक शैव दर्शन, वेदांत, और योग का गहन अभ्यास किया। वह ध्यान और समाधि की ऐसी अवस्था में पहुंचीं, जहाँ आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं रह जाता। उनकी अनुभूतियाँ केवल शब्द नहीं थीं, बल्कि चेतना की लहरें थीं, जो उनके वचनों और भजनों में बहती हैं। 
 
 
‘अलखेश्वरी’ के रूप में दर्शन
 
 
माता रूप भावानी को "अलखेश्वरी" कहा गया अलख यानी अदृश्य, परम चेतना की साधक। उन्होंने उस ब्रह्म को जाना जो रूप से परे है, लेकिन हर रूप में समाया हुआ है। उनके भजनों में गूढ़ दर्शन है, पर भाषा सरल है। वे भक्ति और ज्ञान की सेतु थीं। उनके शब्दों में एक ऐसी रहस्यमयी शक्ति है जो आज भी साधकों को आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाती है। 
 
 
नारी दृष्टिकोण और सशक्तिकरण
 
 
17वीं सदी में, जब स्त्रियों को समाज में सीमित भूमिकाएँ दी जाती थीं, तब रूप भावानी जैसी महिला का आत्मज्ञान की ऊंचाइयों तक पहुँचना, एक क्रांति से कम नहीं था। उन्होंने दिखाया कि एक स्त्री भी संत, ज्ञानी और समाज की मार्गदर्शक बन सकती है। उन्होंने समाज की सीमाओं को तोड़ा नहीं, बल्कि उन्हें आत्मशक्ति से लांघा यही आज के नारी सशक्तिकरण का असली आदर्श है। 
 
 
कश्मीर की सांस्कृतिक चेतना में योगदान
 
 
कश्मीर, जो कभी "शारदा पीठ" की भूमि रहा है, उसकी सांस्कृतिक आत्मा को माता रूप भावानी ने न केवल सहेजा, बल्कि उसे फिर से प्रकाशित किया। उनके द्वारा स्थापित साधना स्थल आज भी श्रद्धा के केंद्र हैं। उन्होंने शिव-शक्ति उपासना, ज्ञान-संयम और ध्यान की परंपराओं को फिर से जन-जन तक पहुँचाया। 
 
 
समकालीन प्रासंगिकता
 
 
आज जब मानवता भौतिकवाद और बाहरी आकर्षणों में उलझी हुई है, माता रूप भावानी का जीवन एक प्रकाशस्तंभ की तरह है। वे हमें सिखाती हैं कि सत्य का मार्ग भीतर की यात्रा से होकर जाता है। उनका जीवन संयम, ध्यान, और प्रकृति के साथ सामंजस्य का प्रतीक है। कश्मीरी हिंदू समाज, जिन पर इतिहास में अनेक त्रासदियाँ आईं, आज भी माता रूप भावानी को स्मरण कर अपनी जड़ों से जुड़ता है। उनकी भक्ति, उनकी चेतना आज भी एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की प्रेरणा है।
 
 
निष्कर्ष और संदेश
 
 
माता रूप भावानी केवल एक महिला संत नहीं थीं — वे सनातन चेतना की जाग्रत शक्ति थीं। उनका जीवन संदेश देता है कि ज्ञान, भक्ति और आत्मबल से कोई भी व्यक्ति — चाहे वह स्त्री हो या पुरुष — दिव्यता को प्राप्त कर सकता है। उनकी शिक्षाएँ आज के समाज, विशेष रूप से युवाओं और स्त्रियों के लिए प्रेरणा हैं कि आत्मान्वेषण, साधना और अपने 'स्व' की खोज ही जीवन की सबसे बड़ी यात्रा है।