26 जून 2004 इतिहास : तेली कत्था नरसंहार, जब मासूमों के खून से लाल हुआ था पुंछ का एक गाँव

26 Jun 2025 12:26:17
 
June 26_ 2004 Teli Katha Massacre
 

Teli Katha Massacre 2004 : कभी-कभी इतिहास की सबसे दर्दनाक घटनाएं अख़बारों के पिछले पन्नों पर दबी रह जाती हैं, पर उन घटनाओं की चीखें समय की दीवारों पर हमेशा के लिए जाती हैं। 26 जून 2004 — एक ऐसा दिन जिसे जम्मू-कश्मीर के पुंछ ज़िले के सुरनकोट क्षेत्र का तेली कत्था गांव कभी नहीं भूल सकता। इस दिन पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के आतंकियों ने इस छोटे से गाँव पर कहर बनकर हमला किया था, जिसमें 11 निर्दोष ग्रामीणों की बेरहमी से हत्या कर दी गई, जिनमें 3 मासूम बच्चे और 2 किशोर भी शामिल थे। साथ ही 10 अन्य ग्रामीण घायल हुए थे।

 
घटना का स्थान: पुंछ का तेली कत्था गांव
 

तेली कत्था, एक शांत और सीमावर्ती गाँव है जो पुंछ ज़िले के सुरनकोट तहसील में स्थित है। यह इलाका अपनी प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ आर्मी की सक्रियता और सीमावर्ती तनावों के कारण भी जाना जाता है। यहाँ के लोग मुख्यतः किसान और पशुपालक हैं, जो दशकों से आतंक और बार-बार होने वाली गोलाबारी के बीच जीवन जीने को मजबूर रहे हैं।

 
हमले की रात: खामोशी के बीच मौत
 

26 जून 2004 की रात लगभग 8:30 बजे, 4 से 6 हथियारबंद आतंकी गाँव में दाखिल हुए। उन्होंने घर-घर दस्तक दी और गोलियों की बौछार शुरू कर दी। कई लोगों को नजदीक से सिर और छाती में गोलियाँ मारी गईं, ताकि बचने का कोई मौका न रहे।

 
मारे गए लोगों में शामिल थे:
 
 
3 मासूम बच्चे (5 से 10 वर्ष की आयु)
 
 
2 किशोर (14-17 वर्ष)
 
 
बुजुर्ग महिलाएं और पुरुष
 
 
एक पूरा परिवार — पिता, माँ, और उनके दो बच्चे। इस हमले के बाद गाँव चीख उठा, लेकिन मदद कहीं से नहीं आई। यह हमला इतना अचानक और भीषण था कि पूरा गाँव स्तब्ध हो गया।
 
 
कौन थे हमलावर? और क्यों हुआ हमला?
 

हमलावर लश्कर-ए-तैयबा के प्रशिक्षित आतंकी थे, जो सीमा पार से घुसपैठ कर इस इलाके में सक्रिय थे। तेली कत्था गाँव को इसलिए निशाना बनाया गया क्योंकि गाँव के कुछ लोग सेना को आतंकियों की जानकारी देने वाले "Village Defence Committee (VDC)" के सदस्य थे। आतंकियों का उद्देश्य डर और अस्थिरता फैलाना था ताकि स्थानीय लोग सेना या प्रशासन से सहयोग करने से डरें। यह हमला "लोकल सपोर्ट सिस्टम को तोड़ने की सोची-समझी रणनीति" का हिस्सा था।

 
आतंकियों की रणनीति:
 
 
इस नरसंहार की सबसे दर्दनाक बात यह थी कि हमलावरों ने सिर्फ पुरुषों को नहीं, बल्कि बच्चों और महिलाओं को भी निशाना बनाया। 5 साल की बच्ची शबीना, जो अपने पिता के पास सो रही थी, उसे भी सिर में गोली मारी गई। 14 साल का आफताब, जिसने स्कूल में मेडल जीता था, उसके सीने को छलनी कर दिया गया। ये हत्याएं महज हत्या नहीं थीं — ये एक साइकोलॉजिकल वारफेयर थी, एक स्पष्ट संदेश कि “किसी को नहीं छोड़ा जाएगा।”
 

सरकार और सेना की प्रतिक्रिया

 
अगले ही दिन भारतीय सेना और जम्मू-कश्मीर पुलिस ने इलाके में कॉम्बिंग ऑपरेशन चलाया और 3 आतंकियों को मार गिराया। हालांकि, कुछ हमलावर भागने में सफल हो गए। राज्य सरकार ने पीड़ित परिवारों को मुआवज़ा देने की घोषणा की, परंतु: न्याय की प्रक्रिया बेहद धीमी रही सामुदायिक सुरक्षा की चिंता और बढ़ गई। घटना को राष्ट्रीय मीडिया ने ज़्यादा तवज्जो नहीं दी, जिससे पीड़ितों को दोहरी पीड़ा मिली पहले अपने प्रियजनों को खोने की, फिर भुला दिए जाने की...।
 

ऐसी घटनाएं क्यों याद रखना ज़रूरी है?

 
यह घटना केवल एक गाँव पर हुआ हमला नहीं था, यह लोकतंत्र और मानवता पर हमला था। यह नरसंहार हमें याद दिलाता है कि आतंकवाद का कोई चेहरा नहीं होता, लेकिन उसके शिकार अक्सर वही लोग होते हैं, जो सबसे कमज़ोर और मासूम होते हैं। यह इतिहास हमें सिखाता है कि सिर्फ सीमाओं पर नहीं, गाँवों के भीतर भी युद्ध जारी है, विचारधाराओं का, डर का और उम्मीद के खिलाफ घृणा का।
 

तेली कत्था के उन 11 निर्दोषों को नमन जिनकी ज़िंदगियाँ एक बीमार मानसिकता की भेंट चढ़ गईं।

 
लेख - अर्नव मिश्रा (उज्जवल) 
 
 
 
 
 
 
 
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