#PakistanCrisis : बूंद बूंद को तरसता पाकिस्तान ; रेत बनती सिंधु नदी, पानी के लिए PAK लगा रहा गुहार
07-जून-2025
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'अब खून और पानी एक साथ नहीं बह सकता" — यह कोई महज़ नारा नहीं, बल्कि भारत की नई जल-नीति का स्पष्ट संकेत है...'
पाकिस्तान के सिंध प्रांत में आज हालात इतने भयावह हैं कि कभी जीवनदायिनी मानी जाने वाली सिंधु नदी अब सिर्फ रेत उगल रही है। खासकर जमशोरो जैसे इलाकों में सिन्धु नदी का जलस्तर लगातार कम होता जा रहा है। अब नदी में जल की जगह बड़ी मात्रा में सिर्फ और सिर्फ रेत दिखाई दे रहे हैं। यह संकट आकस्मिक नहीं, बल्कि पाकिस्तान की अंदरूनी भेदभावपूर्ण राजनीति और भारत की कूटनीतिक पुनर्रचना का परिणाम है।
पाकिस्तान में गहराया जल संकट:
पाकिस्तान के संघीय ढांचे की सबसे बड़ी त्रासदी यही रही है कि वह अपने ही प्रांतों — सिंध, बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा और गिलगित-बाल्टिस्तान — के अधिकारों को रौंदता आया है। सिंध प्रांत, जो कभी सिंधु नदी के माध्यम से समृद्ध हुआ करता था, आज बूंद-बूंद पानी के लिए संघर्ष कर रहा है। रिपोर्टों के अनुसार, पाकिस्तान की केंद्र सरकार ने पंजाब प्रांत को सिंध के हिस्से से भी अधिक पानी देना शुरू कर दिया है। इसका एकमात्र कारण यह है कि सेना, नौकरशाही और राजनैतिक नेतृत्व — तीनों का शक्ति-केंद्र पंजाब ही है।
भारत का बदलता रुख, सिन्धु जल संधि :
पाकिस्तानी धरती से संचालित आतंकवाद के खिलाफ भारत ने एक के बाद एक कड़े फैसले लिए हैं। लेकिन अब भारत सिर्फ सैन्य नहीं, बल्कि आर्थिक और संसाधनों के स्तर पर भी पाकिस्तान को जवाब दे रहा है। सिन्धु जल संधि को ‘स्थगित’ करना इसी रणनीति का हिस्सा है। 1960 में नेहरु के नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान से जो दरियादिली दिखाई थी, अब वह इतिहास की भूल मानी जा रही है। भारत को सिर्फ 30% पानी मिला, जबकि पाकिस्तान को 70% पानी — वो भी तब जब नदियों का स्रोत भारत है।
नेहरू की ‘शांति नीति’ और सिंधु जल संधि की विडंबना
साल 1960 में पंडित नेहरू ने पाकिस्तान से दोस्ती और शान्ति का मसीहा बनने के नाम पर सिंधु, झेलम और चिनाब — तीनों पश्चिमी नदियों पर करीब 70% पानी पर नियंत्रण पाकिस्तान को दे दिया। 1960 में विश्व बैंक की मध्यस्थता से भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि पर हस्ताक्षर हुए थे। इस ऐतिहासिक समझौते के अंतर्गत भारत ने सहमति जताई कि वह सिंधु, झेलम और चेनाब नदियों का अधिकांश जल पाकिस्तान को उपयोग करने देगा, जबकि रावी, ब्यास और सतलुज भारत के हिस्से में आए।
यह संधि इसलिए खास थी क्योंकि भारत ने तीन युद्धों और सैकड़ों आतंकवादी हमलों के बावजूद इस संधि की भावना को निभाया। लेकिन हकीकत यह है कि विश्व बैंक की मध्यस्थता में हुए इस समझौते ने भारत की संप्रभुता को कमजोर किया और पाकिस्तान को वो संसाधन दिए जिनसे वह भारत के खिलाफ आतंक की फसल उगाने लगा। आज यही पाकिस्तान सिंधु के पानी से कपास, गन्ना और गेहूं उगाकर वैश्विक बाज़ार में कमाई करता है और उस पैसे से आतंकवादी संगठनों को पालता है। यह एक गंभीर राष्ट्रीय सुरक्षा प्रश्न है।
‘पानी और खून साथ नहीं बह सकता’:
आज केंद्र की मोदी सरकार ने पहलगाम हमले के बाद से ही कदा रूख अपनाते हुए स्पष्ट कर दिया है — भारत का हक भारत को ही मिलेगा। सिन्धु जल संधि को रोकने का निर्णय कोई भावनात्मक कदम नहीं, बल्कि रणनीतिक और न्यायपूर्ण फैसला है। भारत अब अपने जल संसाधनों का उपयोग जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के किसानों और नागरिकों की भलाई के लिए करेगा।
पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय गुहार
भारत के इस फैसले के बाद पाकिस्तान में हड़कंप मच गया है। हाल ही में पूर्व विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने अमेरिकी कांग्रेस सदस्य ब्रैड शेरमैन से अपील की थी कि वे भारत पर दबाव डालें। लेकिन भारत ने अपना रुख साफ रखा है — अब पाकिस्तान को मुफ्त पानी नहीं मिलेगा।
सवाल सिर्फ सिंध का नहीं — बलूचिस्तान, गिलगित-बाल्टिस्तान, POJK की भी वही कहानी है। सिंध की ही तरह बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा और गिलगित-बाल्टिस्तान भी पाकिस्तान की सत्ता के पंजाबी वर्चस्व के शिकार हैं। इन क्षेत्रों में विरोध और विद्रोह की जड़ें पानी, संसाधनों और सम्मान के हनन से जुड़ी हैं। यही कारण है कि आज पाकिस्तान अपने ही भीतर से टूटने की कगार पर खड़ा है। आज का भारत 1960 वाला भारत नहीं है। अब भारत जल, जमीन और जान — तीनों के लिए अपनी नीति स्पष्ट कर चुका है। सिंधु जल समझौते का पुनर्मूल्यांकन भारत के आत्म-सम्मान और सुरक्षा का प्रश्न है।
संदेश स्पष्ट है — जब तक आतंकवाद बंद नहीं होता, तब तक पानी की एक बूंद भी पाकिस्तान को नहीं दी जाएगी।