जम्मू-कश्मीर में इस्लामिक कट्टरपंथ और अलगाववाद की जड़ें आज जितनी गहरी दिखती हैं, उनका बीजारोपण अचानक नहीं हुआ। इसके पीछे एक योजनाबद्ध प्रक्रिया थी, जिसकी नींव 1930 के दशक में रखी गई और जिसका विस्फोट 13 जुलाई 1931 को श्रीनगर में हुए सांप्रदायिक दंगे के रूप में हुआ। यह दिन न केवल कश्मीर के सामाजिक-सांस्कृतिक तानेबाने के लिए एक त्रासदी सिद्ध हुआ, बल्कि इस्लामिक अलगाववाद और पत्थरबाज़ी के विस्तार की शुरुआत भी इसी दिन से शुरू हुई। इस लेख में हम इसी घटनाक्रम को विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे।
डोगरा शासन की पृष्ठभूमि
1930 तक जम्मू-कश्मीर रियासत में हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच आपसी सौहार्द बना रहा। महाराजा हरि सिंह का शासन कठोर जरूर था, परंतु धार्मिक आधार पर भेदभाव की कोई शिकायत नहीं थी। परंतु ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों के विरुद्ध खड़े हो रहे हरि सिंह की स्वतंत्र रियासत को अस्थिर करने के लिए एक संगठित योजना के तहत घाटी में कट्टरपंथी विचारों को उभारा गया।
शेख अब्दुल्ला कट्टरपंथी सोच
महाराजा हरि सिंह के यूरोप जाने से कुछ महीने पहले ही, 12 अप्रैल 1930 को शेख अब्दुल्ला अलीगढ़ से पढ़ाई पूरी कर अपने तीन साथियों—राजब, काज़ी सैफुद्दीन कारी और गुलाम अहमद मुख्तार के साथ श्रीनगर पहुँचे। यहाँ इन्होंने 'रीडिंग रूम पार्टी' नामक संगठन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था—महाराजा हरि सिंह के विरुद्ध मुसलमानों को संगठित करना। नाम भले ही पढ़ाई-लिखाई से जुड़ा था, लेकिन इसका वास्तविक कार्य राजनीतिक था। पार्टी का नाम रीडिंग रूम पार्टी रखा गया जिससे कि शासन और प्रशासन को रीडिंग रूम पार्टी की असली गतिविधियों की भनक ना लग सके।
मुस्लिम अखबारों के माध्यम से नफरत का प्रचार
इस पार्टी ने मुस्लिम प्रेस का सहारा लेकर महाराजा के खिलाफ विषवमन करना शुरू किया। ये अखबार पंजाब से प्रकाशित होते थे और ब्रिटिश संरक्षण में चलते थे। इनका कांग्रेस-विरोध और ब्रिटिश-समर्थन स्पष्ट था। यहीं से मुस्लिम सांप्रदायिकता को वैचारिक पोषण मिलने लगा। इसी दौरान शेख अब्दुल्ला को इस्लामिया हाई स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिली। कुछ समय बाद उन्हें सरकारी स्कूल में अध्यापक नियुक्त किया गया। शेख ने इस अवसर का उपयोग मुस्लिम युवाओं को संगठित करने और शासन विरोधी गतिविधियों को आगे बढ़ाने में किया। वह धीरे-धीरे रीडिंग रूम पार्टी के केंद्र में आ गए।
उधर लंदन में महाराजा हरि सिंह भारतीय एकता और अखंडता का ताना-बाना बुन रहे थे, इधर ब्रिटिश सरकार ने राज्य में मुस्लिम नेतृत्व खड़ा करके उनके खिलाफ वातावरण बनाना शुरू कर दिया था। ऐसा माना जाता है कि शेख अब्दुल्ला और उसकी रीडिंग रूम पार्टी द्वारा चलाया जाने वाला यह आंदोलन परोक्ष रूप में इस दूरगामी ब्रिटिश नीति का ही अंग था।
महाराजा हरि सिंह के यूरोप प्रवास के दौरान रियासत के प्रशासन की कमान अंग्रेज अधिकारी वेकफील्ड के पास थी। वेकफील्ड ने श्रीनगर में पढ़े-लिखे युवा मुसलमानों (जो फतहकदल की रीडिंग रूम पार्टी के तौर पर जाने जाते थे) को राज्य सरकार की नौकरियों में मुसलमानों को ज्यादा हिस्सा देने की माँग करने के लिए प्रोत्साहित किया। उसी समय वेकफील्ड और ब्रिटिश रेजीडेंट, दोनों की प्रेरणा से ऐसा ही एक आंदोलन जम्मू संभाग में भी शुरू किया गया। जम्मू संभाग में चौधरी गुलाम अब्बास को मुस्लिम राजनीति का चेहरा बनाया गया। 19 अप्रैल 1931 को ईद की नमाज के बाद जम्मू में एक मौलवी ने राजनीतिक भाषण देने की कोशिश की, जिसे पुलिस ने रोका। इसके विरोध में यंग मुस्लिम एसोसिएशन ने आंदोलन शुरू किया और सांप्रदायिक भावनाएं भड़कने लगीं।
3 मई 1931 महाराजा हरि सिंह की वापसी
3 मई 1931 को जब महाराजा हरि सिंह अपने यूरोप प्रवास से वापस आए तब तक ब्रिटिश अधिकारियों की सहायता से रियासत में, खासकर कश्मीर घाटी में मुस्लिम सांप्रदायिकता के बीज अच्छी तरह से बो दिए गए थे। उनके आने के कुछ ही दिन बाद जम्मू संभाग में हेड कांस्टेबल लाभा राम की घटना हुई। लाभा राम ने अपने एक अधीनस्थ सिपाही को चारपाई से उठाने की कोशिश की, लेकिन उसके न उठने पर उसने चारपाई पलट दी। संजोग वस वो सिपाही मुसलमान था। उसने शोर मचाना शुरू कर दिया कि कुरान शरीफ चारपाई से नीचे गिर गयी है, जिससे उसका अपमान हुआ है। 'डोगरा राज आजाद' के नारे फिर जम्मू से श्रीनगर तक गूंजने लगे। शेख अब्दुल्ला भी इस काम में सक्रिय हो गए।
इस घटना के बाद सरकार ने शेख मोहम्मद अब्दुल्ला का श्रीनगर से बाहर स्थानांतरण कर दिया। इसके बाद वे वेकफील्ड से जाकर मिले। वेकफील्ड ने स्थानांतरण को लागू नहीं होने दिया और उनके स्थानांतरण को किसी तरह से रोके रखा। अरसे बाद जब सरकार को पता चला कि शेख के स्थानांतरण आदेश का क्रियान्वयन रोका जा रहा है तो उसके क्रियान्वयन के सख्त आदेश जारी किए गए। शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर का स्कूल छोड़ने की बजाय एक जनसभा में नौकरी से त्यागपत्र देने की घोषणा कर दी। जाहिर है शेख को लंबी रणनीति के तहत मैदान में उतारा गया था।
अफवाहें और धार्मिक उत्तेजना
इसके अलावा यह अफवाह आम थी कि रियासत में मुस्लिम सांप्रदायिकता के उछाल में वेकफील्ड की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। इसलिए महाराजा हरि सिंह ने वेकफील्ड की छुट्टी कर दी, लेकिन अब तक बहुत देर हो चुकी थी। वेकफील्ड जम्मू में और कश्मीर घाटी में मुस्लिम आंदोलन के बीज अच्छी तरह से बो चुके थे। जून, 1931 के शुरू में ही आश्चर्यजनक ढंग से राज्य में अनेक प्रकार की झूठी अफवाहें फैलने लगीं। उनमें से कुछ का जिक्र करना जरूरी है।
1 : रियासी में महाराजा की अनुमति से हिंदुओं ने मुसलमानों की एक मस्जिद गिरा दी है।
2: जम्मू में एक स्थान पर मुसलमानों को नमाज पढ़ने से रोका गया।
3: जम्मू में ही जुम्मे की नमाज के दिन मस्जिद के मौलवी को खुतबा पढ़ने से रोका गया।
4: जम्मू में ही कुरान शरीफ के पन्ने फाड़कर शौचालय में फेंक दिए गए।
जाहिर है ये अफवाहें जम्मू से चलकर पीर पंजाल की पहाड़ियों को पार करती हुई कश्मीर घाटी में पहुँचतीं। इसकी प्रतिक्रिया भी आनी शुरू हुई। मस्जिदों से आवाजें दी गईं हैं कि इस्लाम खतरे में है। श्रीनगर की मस्जिद खानगाह-ए-मौला में ऐसी ही एक तकरीरबाजी 27 जून, 1931 को हो रही थी। महाराजा हरि सिंह ने मुसलमानों की माँगों पर विचार करने के लिए प्रतिनिधिमंडल को आमंत्रित किया था।
प्रतिनिधियों के नामों की घोषणा हो गई तो एक अनजान व्यक्ति अचानक उठकर खड़ा हो गया। उसने तकरीरे करने वालों पर लानत भेजी। उसके बाद उसने मुसलमानों से कहा कि केवल तकरीरें करने से काम नहीं बनेगा। अब वक्त आ गया है कि इस हिंदू महाराजा के मोमिनों के साथ जिहाद छेड़ देना चाहिए और ताकत के जोर से महाराजा को उखाड़कर फेंक देना चाहिए और दीन के पक्के लोगों का राज स्थापित करना चाहिए।
खानगाह में - गरजा, “जो हाकिम जुल्म करे, उसको सफाए हस्ती से मिटाना होगा।''
कश्मीर में हिन्दुओं के खिलाफ जिहाद के लिए ललकारने वाला यह अज्ञात व्यक्ति अब्दुल कादिर पठान था। सवाल आता है कि ये अब्दुल कादिर पठान कौन था ? इसको लेकर अभी भी विवाद चलता रहता है। एम.जे. अकबर उसे पंजाब का बताते हैं। जबकि लैंब उसे उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत का पठान लिखते। इस पठान के लिए माकूल माहौल पहले से ही अलीगढ़ी पार्टी ने तैयार कर रखा था।
घाटी से अफगानों का राज्य समाप्त हो जाने के बाद, पहली बार मजहब के नाम पर हिंदुओं की हत्या, फिर शुरू हुई। अब्दुल कादिर की इस हरकत के कारण पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया। उस पर श्रीनगर के केंद्रीय कारागार में मुकदमा चलने लगा। 31 जुलाई, 1931 को श्रीनगर जेल में कादिर के मामले की सुनवाई हो रही थी। बाहर एकत्रित भीड़ ने जेल के दरवाजे तोड़कर उसे छुड़ाने की कोशिश की। कश्मीर की उत्सवप्रेमी जनता किसी भी मामले में हजारों की संख्या में एकत्रित हो जाती है, यह उसका स्वभाव है, लेकिन जेल के दरवाजे तोड़ने की कोशिश यकीनन एक छोटा समूह कर रहा था, जो भीड़ में काम करने की कला जानता था।
हालांकि मामले को बढ़ता देख पुलिस को गोली चलानी पड़ी। इस गोलीबारी से 22 लोग मारे गए और अबकी बार फिर मुसलमान उपद्रवियों ने हिंदुओं की दुकानें लूट लीं और कुछ हिंदुओं की नृशंस हत्या भी कर दी। एम.जे. अकबर ने भी लिखा, “यह रियासत में सांप्रदायिकता का पहला वाकया था। लेकिन यह अब्दुल कादर नाम का पठान कौन था, उसको घाटी में क्यों लाया गया ? खानकाए मौला में उसके भाषण की व्यवस्था किसने की थी? ये सभी प्रश्न आज अनुत्तरित हैं। उसके बाद जैसे वह धूमकेतु की तरह आया था, वैसे ही प्रभात के तारे तरह छिप गया था। पठान के भाषण और उसके बाद उसके नामालूम हो जाने की बात सभी करते हैं। कहते हैं कि उसे अपना रसोइया बनाकर अंग्रेज सेनाधिकारी मेजर बोट ने 'घाटी में लाया था।
ये सभी प्रश्न आज भी अज्ञात के कोहरे में लिपटे हुए हैं। इनके उत्तर मिल जाने से हो सकता है जम्मू-कश्मीर में हुए इस तथाकथित जनांदोलन के पीछे की पृष्ठभमि का भी पता चलता। वैसे बहुत से लोग मानते हैं कि इस सबके पीछे अंग्रेजों की साजिश थी। वैसे भी इस मामले में अब्दुल कादिर खान को 5 साल कैद की सजा हुई थी, लेकिन कालांतर में जब व्यावहारिक रूप में ब्रिटिश अधिकारियों ने राज्य की सत्ता सँभाल ली तो उसे डेढ़ साल के बाद ही छोड़ दिया गया। कहीं यह महाराजा हरि सिंह की लंदन के गोलमेज सम्मेलन में भारतीय एकता की हुंकार का अंग्रेजी उत्तर तो नहीं था ?
15 जनवरी, 1931 को हरि सिंह ने लंदन में भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज बुलंद की थी और उसके ठीक 6 महीने बाद श्रीनगर में उसका उत्तर इस रूप में दिया गया। यही कारण है कि इस पूरे कांड के खलनायक मेजर बोट और उसके खानसामा अब्दुल कादिर खान की भूमिका गहरी छानबीन की माँग करती है। यह धारणा इसलिए भी पुष्ट होती है, क्योंकि अलीगढ़ की इस टोली की इस पूरे आंदोलन में पंजाब के कादियाँ नगर के अहमदिया संप्रदाय ने बहुत सहायता की थी। सैयद अहमद खान के बाद अहमदिया संप्रदाय भारत में अंग्रेजों का सबसे बड़ा समर्थक था, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
अंतत: यह कहना निरापद होगा कि महाराजा हरि सिंह के शासन काल में जिन दो कारकों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, वे अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय और ब्रिटिश अधिकारी ही थे। महाराजा हरि सिंह के खिलाफ रीडिंग रूम पार्टी का यह आंदोलन रियासत की राजशाही के खिलाफ इतना नहीं रहा, बल्कि यह आंदोलन एक हिंदू राजा के खिलाफ घाटी के कश्मीरी भाषा बोलने वाले मुसलमानों का सांप्रदायिक आंदोलन हो गया। जिसका दूरगामी लक्ष्य कालांतर में जम्मू-कश्मीर का उपयोग ब्रिटिश हितों के लिए करना था।
अलबत्ता इस बार यह ध्यान जरूर रखा गया कि नेतृत्व कश्मीरी मुसलमानों को ही दिया जाए, जो अब अलीगढ़ से इस्लाम का नया पाठ पढ़कर आए थे। रास्ते का निर्धारण सैयदों ने किया था, लेकिन इस बार विद्रोह का झंडा कश्मीरी भाषा बोलने वाले मुसलमानों के हाथ में था और उसे हवा दे रहे थे रियासत के ब्रिटिश अधिकारी। अंग्रेज शासकों को इस पूरे आंदोलन में एक 3 से 2 निशाने साधने थे।
उन्हें इसी की आड़ में महाराजा हरि सिंह से गिलगित हथियाना था। अंग्रेजों को रूस का डर सता रहा था कि वह इस इलाके में अपने असली पैर या फिर वैचारिक पैर फैला सकता है। इसलिए गिलगित का प्रशासन सँभालना, अंग्रेजी सरकार के लिए अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए जरूरी था, लेकिन महाराजा हरि सिंह की नकेल कसने में अंग्रेज अभी तक सफल नहीं हो पा रहे थे। अब उसके लिए जमीनी माहौल कादिर पठान के माध्यम से शेख अब्दुल्ला की अलीगढी टोली को आगे करके तैयार किया गया।
ऐसा नहीं कि देश की अन्य रियासतों में महाराजाओं के खिलाफ जन आंदोलन नहीं हो रहे थे। अनेक रियासतों में प्रजा मंडल सक्रिय थे और राजशाही को समाप्त कर सत्ता के लोकतंत्रीकरण की माँग कर रहे थे। लेकिन कश्मीर में अलीगढी टोली के नेतृत्व में जो आंदोलन था, वह विशुद्ध रूप से सांप्रदायिक आधार पर उठाया जा रहा था। राजशाही को समाप्त करने की माँग प्रशासन के गण-दोष के आधार पर नहीं हो रही थी। उसका आधार हिंदू होना था। कादिर पठान खानकाए मौला में रियासत के लोगों को यह नहीं समझा रहा था कि राजशाही में क्या गुण-अवगुण हैं ?
बल्कि यह बता रहा था कि रियासत के मुसलमान हिंदुओं के गुलाम हैं और मुसलमानों को मिलकर हिंदुओं की गुलामी से मुक्ति के लिए जिहाद छेड़ देना चाहिए। रियासत में अफगानों का राज समाप्त हो जाने के बाद पहली बार यह पुरानी भाषा बोली जा रही थी। कश्मीर के लोगों को जिहाद का पाठ पढ़ाने के लिए अंग्रेज काबिल मास्टर माइंड ढूंढकर श्रीनगर लाए थे। एक गोरे का खानसामा भी कश्मीर का नेतृत्व कर सकता है। बहुत से विद्वान्, यह मानते हैं कि अब्दुल कादिर का यह पूरा कांड जम्मू-कश्मीर राज्य की सरकार को अस्थिर करने का ब्रिटिश षड्यंत्र था जिसे ब्रिटिश इंडिया के राजनैतिक विभाग द्वारा गिलगित एजेंसी की लीज प्राप्त करने के लिए तैयार किया गया था।
यह भी कहा जाता है कि अब्दुल कादिर व्यावसायिक आंदोलनकारी था, जिसे अंग्रेज मेजर बोट के स्टाफ में खानसामा के तौर पर शामिल करके कश्मीर में धोखे से घुसाया गया था। महाराजा हरि सिंह भी शायद ब्रिटिश सरकार की इस चाल को अब तक समझने लगे थे। इसलिए वे किसी भी तरह की स्थिति को काबूकर ब्रिटिश सरकार के हाथ से पहले छीन लेना चाहते थे। वेकफील्ड को हटाना उसका एक हिस्सा था। राजा हरि कृष्ण कौल को नया प्रधानमंत्री बनाया गया।
सांप्रदायिक दंगों पर बरजोर दलाल जाँच समिति की रिपोर्ट
13 जुलाई, 1931 के इस पूरे कांड की जाँच का काम राज्य के हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर बरजोर दलाल की अध्यक्षता में एक समिति के हवाले कर दिया गया। समिति में उनके अतिरिक्त 2 अन्य न्यायाधीश बी.आर. साहनी और अब्दुल कयूम सदस्य थे। दलाल कमेटी ने 24 सितंबर, 1931 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। दलाल कमेटी की जाँच के कुछ अंश आँखें खोल देनेवाले और ब्रिटिश अधिकारियों की साजिश को उजागर करने वाले हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, “सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह थी कि 13 जुलाई के दिन गृह मंत्री वेकफील्ड, जिनके पास सेना मंत्रालय का भी कार्यभार था और उनके अधीनस्थ अधिकारी मार्गदर्शन के लिए ज्यादातर उन्हीं पर निर्भर थे, प्रत्यक्ष की बात तो दूर फोन पर भी उपलब्ध नहीं थे। वे उस दिन ब्रिटिश रेजीडेंसी में व्यस्त थे। यह संयोग ही था कि बाद दोपहर, जब वे अपने कार्यालय पहुंचे। तब उन्हें पता चला कि उनसे फोन पर बार-बार बात करने की कोशिश की गई है और जेल में दंगा हो गया है।
यदि वेकफील्ड उस दिन उपलब्ध होते तो जेल परिसर में उनकी उपस्थिति का ही सकारात्मक प्रभाव होता। शायद दलाल इससे ज्यादा स्पष्ट शब्दों में नहीं कह सकते थे कि दंगे भड़काने में किसका हाथ था औऱ दंगे के समय ये दोनों अंग्रेज ब्रिटिश रेज़ीडेंसी में बैठकर क्या खिचड़ी पका रहे थे। एक अन्य स्थान पर रिपोर्ट में कहा गया है कि हमारे सामने 2 गवाह समद शेख और अब्दुल अजीज आए। उनकी गवाही से स्पष्ट संकेत मिलता है कि वेकफील्ड ने मुस्लिम आंदोलन का समर्थन किया। रियासत में मुसलमानों को बेवजह भड़काने में वेकफील्ड की भूमिका को जाँच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में अनेक स्थानों पर निंदा की है। इसका एक उदाहरण तौहीन-ए-कुरान की घटना से मिलता है।
जम्मू में यह तथाकथित घटना 4 जुलाई, 1931 को हुई थी। महाराजा ने वेकफील्ड को जम्मू जाकर इस घटना की जाँच करने के लिए कहा। इस जाँच में निश्चित रूप से यह सिद्ध हो गया कि किसी प्रकार की कोई तौहीन नहीं हुई है। इस जाँच के बाद भी कुछ मुसलमान प्रदर्शनकारियों ने कहा कि जाँच के बाद वेकफील्ड ने कह दिया था कि तौहीन हुई है। इतना ही नहीं, उनमें से कुछ ने तो वेकफील्ड के मुँह पर ही यह कह दिया कि तुमने जम्मू में कुछ और कहा था और श्रीनगर में जाकर कुछ और कहा।'' इसका साफ संकेत था कि अपनी जाँच में तो वेकफील्ड को कुरान की तौहीन का कोई प्रमाण नहीं मिला, लेकिन उन्होंने जम्मू के मुसलमानों को भड़काने के लिए कह दिया कि तौहीन हुई है।
इस बात से स्पष्ट था जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों को डराने और स्थिति को 13 जुलाई तक पहुँचाने में ब्रिटिश अधिकारियों का ही समर्थन था। पूरे आंदोलन में पंजाब से महाराजा हरि सिंह के खिलाफ विष वमन करने वाली प्रकाशित सामग्री श्रीनगर भेजी जा रही थी। मुसलमानों को हिंदुओं के खिलाफ भड़काने वाले पंफलेट रियासत में आ रहे थे। पंजाब से मुसलमानों के जत्थे जम्मू के रास्ते से आ रहे थे। जाहिर है यह सब कुछ अंग्रेज सरकार के सहयोग और शह के बिना संभव नहीं था। ब्रिटिश सरकार को यह भी खतरा था कि हो सकता है किसी मरहले पर कश्मीर घाटी के कश्मीरी मुसलमानों का सरकार से समझौता ही हो जाए। इसलिए उसके बाद भी आंदोलन को जारी रखने के लिए। विकल्प के तौर पर लाहौर में कश्मीर कमेटी का गठन किया हुआ था।
वैकफील्ड के स्थान पर नियक्त किए गए राजा हरि कृष्ण कौल ने स्थिति की सामान्य बनाने के लिए मुस्लिम आंदोलनकारियों से बातचीत शुरू की। उनके प्रयास से 26 अगस्त को मुसलमान आंदोलनकारियों से एक समझौता हो गया, जिसके अनुसार उन्होंने आंदोलन को स्थगित करना स्वीकार कर लिया और सरकार ने सभी राजनैतिक को रिहा करने एवं उनके खिलाफ लंबित मामलों को वापस लेने का आश्वासन दिया। लेकिन लाहौर की कश्मीर कमेटी ने इस समझौते को न मानने से इंकार कर दिया और आंदोलन जारी रखा। शेख अब्दुल्ला भी लाहौर की कश्मीर कमेटी के आंदोलन में सक्रिय हो गए। कश्मीर घाटी के अनेक हिस्सों में हिंसा फैल गई।
बारामूला, शोपियाँ अनंतनाग और सोपोर इत्यादि कई स्थानों पर गिरफ्तारियाँ हुईं और कुछ जगहों पर पुलिस को गोली भी चलानी पड़ी। प्रदर्शनकारियों को काबू करने के लिए सेना को बुलाना पड़ा। आंदोलन के इस मोड़ पर ब्रिटिश सरकार ने आदेशात्मक भूमिका में दखलंदाजी शुरू की। ब्रिटिश रेजीडेंट ने महाराजा को लिखित सुझाव दिए, जिन पर 24 घंटों के अंदर अमल करने के लिए कहा गया। ये नाम के लिए तो सुझाव थे, लेकिन व्यवहार में आदेश ही थे।
इनके अनुसार-
1. मुसलमानों की गंभीर शिकायतों-मसलन, गौ हत्या निषेध आदेश, खुतबा और अजान में व्यवधान के निपटारे की तुरंत व्यवस्था की जाए।
2. मुसलमानों की माँगों और शिकायतों पर विचार करने के लिए किसी निष्पक्ष और तटस्थ ब्रिटिश अधिकारी की नियुक्ति की जाए। यह अधिकारी ब्रिटिश सरकार से लिया जाना चाहिए। ब्रिटिश सरकार इस मुद्दे को महत्त्वपूर्ण मानती है और महाराजा को परामर्श देती है कि वे ब्रिटिश सरकार से तुरंत ऐसे अधिकारी की माँग करें।
3. महाराजा किसी यूरोपियन आई.सी.एस. अधिकारी को राज्य का प्रधानमंत्री नियुक्त करें।
4. वर्तमान प्रधानमंत्री राजा हरि कृष्ण कौल के भाई दया कृष्ण कौल को बिना देर किए रियासत से बाहर निकाल दिया जाए। सांप्रदायिक मुस्लिम नेताओं का राजनीति में प्रवेश और मुस्लिम कॉन्फ्रेंस की स्थापना
श्रीनगर दंगों के बाद शेख अब्दुल्ला समेत कई मुस्लिम नेता उभरे थे। अब तक जाहिर हो गया था कि किसी भी समय प्रजा सभा के चुनाव हो सकते हैं। इसको ध्यान में रखते हुए अक्तूबर, 1932 में शेख अब्दुल्ला ने अपने अलीगढ़ी साथियों को साथ लेकर ब्रिटिश इंडिया की मुस्लिम लीग की तर्ज पर श्रीनगर में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस की स्थापना की।
रियासत में पहली बार जनता के स्तर पर राजनीति में सांप्रदायिकता का प्रवेश हुआ। इसे समय का फेर ही कहना चाहिए कि सांप्रदायिक राजनीति का प्रारंभिक ककहरा उस हरि सिंह के शासनकाल में शुरू हुआ, जो रियासत में पंथ निरपेक्ष दृष्टिकोण के कारण तो विख्यात थे ही और जिन्हें सत्ता सँभाले भी अभी मुश्किल से 5 साल ही हुए थे। इस पूरे आंदोलन पर लैंब की टिप्पणी काबिले गौर है।
पाकिस्तान का समर्थन करने वाले लैंब भी लिखते हैं, “महाराजा हरि सिंह के एकतंत्रीय शासन के खिलाफ, जो आंदोलन केंद्रित होने लगा था, वह निश्चित रूप से अभी भी इस्लामिक संवेदनाओं की सीमाओं को पार नहीं कर पाया था। यह अलग बात है कि प्रेम नाथ बजाज जैसे कुछ कश्मीरी ब्राह्मण भी इसके समर्थक थे। बजाज ने राजनैतिक गतिविधियों की दिशा को पंथ निरपेक्षता की ओर मोड़ने की कोशिश जरूर की थी और इसमें उन्हें उन गिने-चुने मुसलमान युवकों का समर्थन भी हासिल हुआ था, जो ब्रिटिश इंडिया में कार्ल मार्क्स और एंजेल्स का ककहरा पढ़ आए थे। जम्मू में, जहाँ रियासत अधिकांश हिंदू सिख बसे हुए थे, इन राजनैतिक गतिविधियों को सीमित जनसमर्थन ही हासिल था। लद्दाख, बल्तीस्तान और आश्रित प्रशासकों सहित गिलगित वजारत में तो इन गतिविधियों का कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं था।''
रियासत के प्रशासन पर अंग्रेजों का कब्जा
अब रियासत के प्रशासन पर पूरी तरह अंग्रेजों का कब्जा हो गया था। उन्हीं के राजनैतिक विभाग का कोलविन, प्रधानमंत्री था और उन्हीं की प्रशासनिक सेवा के 3 अधिकारी राज्य के अलग-अलग विभागों के मंत्री थे। अंग्रेजी प्रशासन मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के आंदोलनों में उसकी सहायता कर रहा था। रियासत में प्रथम प्रजा सभा के लिए 3 सितंबर, 1934 को मतदान की घोषणा कर दी गई। मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ही एक मात्र राजनैतिक दल था। मुसलमानों के लिए 21 सीटें निर्धारित की गई थीं।
मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ने इनमें से 19 सीटें जीत लीं। 17 अक्तूबर, 1934 को श्रीनगर में प्रजा सभा का विधिवत् गठन हुआ और इसी दिन प्रजा सभा का पहला सत्र आहूत किया गया। जम्मू-कश्मीर में प्रजा सभा का यह गठन उस समय किया गया, जब भारतीय रियासतों के साथ साथ ब्रिटिश भारत के प्रांतों में भी अधिकांश लोग इस लोकतंत्र व्यवहार से अनभिज्ञ थे। यह महाराजा हरि सिंह की सचमुच महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी।
इस बीच एक और विडंबना सामने आई जब जम्मू कश्मीर की सत्ता में काबिज होने के बाद NC और पीडीपी 13 जुली को सार्वजनिक अवकाश का ऐलान किया था। यह अवकाश उन कट्टरपंथियों के समर्थन में था जिन्होंने जम्मू कश्मीर में अलगाववाद और पत्थरबाजी का बीजारोपण किया था। हालाँकि 5 अगस्त 2019 को जब जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति हुई तब प्रदेश सरकार ने इस छुट्टी को रद्द करने का फैसला किया। हालाँकि अभी भी रह रह कर NC और PDP जैसी राजनीतिक पार्टियां इसका विरोध करती हैं। लेकिन हकीकत यही है कि 13 जुलाई का दिन जम्मू कश्मीर के इतिहास का काला अध्याय ही है। क्योंकि इसी दिन से जम्मू कश्मीर में अलगाववाद, कट्टरपंथ और पत्थरबाजी की शुरुआत हुई।