13 जुलाई 1931 की असलियत: 'शहादत' की कहानी या 'हिंसा' का इतिहास ?

    14-जुलाई-2025
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13 july 1931 Jammu Kashmir Riots
 
 
1931 Jammu Kashmir Riots : हर वर्ष 13 जुलाई को कश्मीर की कुछ राजनीतिक ताकतें विशेषकर नेशनल कांफ्रेंस (NC) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) इसे “कश्मीर शहीद दिवस” के रूप में मनाते रहे हैं। वे दावा करते हैं कि इस दिन डोगरा शासक की पुलिस ने निर्दोष मुस्लिम प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई थी और ये कथित रूप से ‘आज़ादी’ की लड़ाई थी।
 
 
लेकिन इतिहास, जांच आयोग की रिपोर्ट और ब्रिटिश प्रशासनिक दस्तावेज़ कुछ और ही गवाही देते हैं। Barjor Dalal आयोग, जिसे स्वयं महाराजा की सरकार ने हिंसा की निष्पक्ष जांच के लिए गठित किया था। जांच आयोग की टीम में शामिल लोग –
 
 
1. सर बारजोर जमशेदजी दलाल अध्यक्ष — जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के चीफ़ जस्ट‍िस (Chief Justice)
 

2. बी.आर. साहनी (B.R. Sawhney) हाई कोर्ट के एक जज, आयोग के आधिकारिक न्यायिक सदस्य
 

3. अब्दुल कय्यूम (Abdul Qaiyum) जम्मू-कश्मीर न्यायपालिका से जुड़े एक और वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी
 
 
Barjor dalal july, 1931 kashmir riots commite report
 
 
 
Barjor Dalal आयोग की रिपोर्ट बताती है कि: '13 जुलाई को इकट्ठा हुई भीड़ कोई शांतिपूर्ण प्रदर्शन नहीं थी, बल्कि एक संगठित कट्टरपंथी भीड़ थी, जिसने हिंदू दुकानों को लूटा, महिलाओं पर हमले किए, हिन्दुओं को निशाना बनाया और मंदिरों को अपवित्र किया।'
 
 
13 जुलाई की याद में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ‘X’ पर इस घटना की तुलना ‘जलियांवाला बाग़ हत्याकांड’ से कर डाली। तथ्यों और जांच रिपोर्ट्स को ध्यान में रखते हुए अगर इसपर चर्चा करें तो अब्दुल्ला का यह कदम शर्मनाक है..शर्मनाक इसलिए क्योंकि एक उग्रवादी, कट्टरपंथी प्रदर्शनकारियों की तुलना हजारों निर्दोष नागरिकों से करना जलियांवाला बाग़ नरसंहार के उन बलिदानियों का अपमान है।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
पहले जानते हैं कि घटना क्या है...?
 
महाराजा हरि सिंह के यूरोप जाने से कुछ महीने पहले ही, 12 अप्रैल 1930 को शेख अब्दुल्ला अलीगढ़ से पढ़ाई पूरी कर अपने तीन साथियों—राजब, काज़ी सैफुद्दीन कारी और गुलाम अहमद मुख्तार के साथ श्रीनगर पहुँचे। यहाँ इन्होंने 'रीडिंग रूम पार्टी' नामक संगठन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था—महाराजा हरि सिंह के विरुद्ध मुसलमानों को संगठित करना। नाम भले ही पढ़ाई-लिखाई से जुड़ा था, लेकिन इसका वास्तविक कार्य राजनीतिक था। पार्टी का नाम रीडिंग रूम पार्टी रखा गया जिससे कि शासन और प्रशासन को रीडिंग रूम पार्टी की असली गतिविधियों की भनक ना लग सके।
 
 
 
 
 
 
मुस्लिम अखबारों के माध्यम से नफरत का प्रचार
 
 
इस पार्टी ने मुस्लिम प्रेस का सहारा लेकर महाराजा के खिलाफ विषवमन करना शुरू किया। ये अखबार पंजाब से प्रकाशित होते थे और ब्रिटिश संरक्षण में चलते थे। इनका कांग्रेस-विरोध और ब्रिटिश-समर्थन स्पष्ट था। यहीं से मुस्लिम सांप्रदायिकता को वैचारिक पोषण मिलने लगा। इसी दौरान शेख अब्दुल्ला को इस्लामिया हाई स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिली। कुछ समय बाद उन्हें सरकारी स्कूल में अध्यापक नियुक्त किया गया। शेख ने इस अवसर का उपयोग मुस्लिम युवाओं को संगठित करने और शासन विरोधी गतिविधियों को आगे बढ़ाने में किया। वह धीरे-धीरे रीडिंग रूम पार्टी के केंद्र में आ गए।
 
 
उधर लंदन में महाराजा हरि सिंह भारतीय एकता और अखंडता का ताना-बाना बुन रहे थे, इधर ब्रिटिश सरकार ने राज्य में मुस्लिम नेतृत्व खड़ा करके उनके खिलाफ वातावरण बनाना शुरू कर दिया था। ऐसा माना जाता है कि शेख अब्दुल्ला और उसकी रीडिंग रूम पार्टी द्वारा चलाया जाने वाला यह आंदोलन परोक्ष रूप में इस दूरगामी ब्रिटिश नीति का ही अंग था।
 
 
 
maharaja hari singh golmage sammelan london
 
 
 
महाराजा हरि सिंह के यूरोप प्रवास के दौरान रियासत के प्रशासन की कमान अंग्रेज अधिकारी वेकफील्ड के पास थी। वेकफील्ड ने श्रीनगर में पढ़े-लिखे युवा मुसलमानों (जो फतहकदल की रीडिंग रूम पार्टी के तौर पर जाने जाते थे) को राज्य सरकार की नौकरियों में मुसलमानों को ज्यादा हिस्सा देने की माँग करने के लिए प्रोत्साहित किया। उसी समय वेकफील्ड और ब्रिटिश रेजीडेंट, दोनों की प्रेरणा से ऐसा ही एक आंदोलन जम्मू संभाग में भी शुरू किया गया। जम्मू संभाग में चौधरी गुलाम अब्बास को मुस्लिम राजनीति का चेहरा बनाया गया। 19 अप्रैल 1931 को ईद की नमाज के बाद जम्मू में एक मौलवी ने राजनीतिक भाषण देने की कोशिश की, जिसे पुलिस ने रोका। इसके विरोध में यंग मुस्लिम एसोसिएशन ने आंदोलन शुरू किया और सांप्रदायिक भावनाएं भड़कने लगीं।
 
 
3 मई 1931 महाराजा हरि सिंह की वापसी
 
 
3 मई 1931 को जब महाराजा हरि सिंह अपने यूरोप प्रवास से वापस आए तब तक ब्रिटिश अधिकारियों की सहायता से रियासत में, खासकर कश्मीर घाटी में मुस्लिम सांप्रदायिकता के बीज अच्छी तरह से बो दिए गए थे। उनके आने के कुछ ही दिन बाद जम्मू संभाग में हेड कांस्टेबल लाभा राम की घटना हुई। लाभा राम ने अपने एक अधीनस्थ सिपाही को चारपाई से उठाने की कोशिश की, लेकिन उसके न उठने पर उसने चारपाई पलट दी। संजोग वस वो सिपाही मुसलमान था। उसने शोर मचाना शुरू कर दिया कि कुरान शरीफ चारपाई से नीचे गिर गयी है, जिससे उसका अपमान हुआ है। 'डोगरा राज आजाद' के नारे फिर जम्मू से श्रीनगर तक गूंजने लगे। शेख अब्दुल्ला भी इस काम में सक्रिय हो गए।
 
 
इस घटना के बाद सरकार ने शेख मोहम्मद अब्दुल्ला का श्रीनगर से बाहर स्थानांतरण कर दिया। इसके बाद वे वेकफील्ड से जाकर मिले। वेकफील्ड ने स्थानांतरण को लागू नहीं होने दिया और उनके स्थानांतरण को किसी तरह से रोके रखा। अरसे बाद जब सरकार को पता चला कि शेख के स्थानांतरण आदेश का क्रियान्वयन रोका जा रहा है तो उसके क्रियान्वयन के सख्त आदेश जारी किए गए। शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर का स्कूल छोड़ने की बजाय एक जनसभा में नौकरी से त्यागपत्र देने की घोषणा कर दी। जाहिर है शेख को लंबी रणनीति के तहत मैदान में उतारा गया था।
 
 
अफवाहें और धार्मिक उत्तेजना
 
 
इसके अलावा यह अफवाह आम थी कि रियासत में मुस्लिम सांप्रदायिकता के उछाल में वेकफील्ड की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। इसलिए महाराजा हरि सिंह ने वेकफील्ड की छुट्टी कर दी, लेकिन अब तक बहुत देर हो चुकी थी। वेकफील्ड जम्मू में और कश्मीर घाटी में मुस्लिम आंदोलन के बीज अच्छी तरह से बो चुके थे। जून, 1931 के शुरू में ही आश्चर्यजनक ढंग से राज्य में अनेक प्रकार की झूठी अफवाहें फैलने लगीं। उनमें से कुछ का जिक्र करना जरूरी है।
 
 
1 : रियासी में महाराजा की अनुमति से हिंदुओं ने मुसलमानों की एक मस्जिद गिरा दी है।
  
 
2: जम्मू में एक स्थान पर मुसलमानों को नमाज पढ़ने से रोका गया।
 
 
3: जम्मू में ही जुम्मे की नमाज के दिन मस्जिद के मौलवी को खुतबा पढ़ने से रोका गया।
 
 
4: जम्मू में ही कुरान शरीफ के पन्ने फाड़कर शौचालय में फेंक दिए गए।
 
 
जाहिर है ये अफवाहें जम्मू से चलकर पीर पंजाल की पहाड़ियों को पार करती हुई कश्मीर घाटी में पहुँचतीं। इसकी प्रतिक्रिया भी आनी शुरू हुई। मस्जिदों से आवाजें दी गईं हैं कि इस्लाम खतरे में है। श्रीनगर की मस्जिद खानगाह-ए-मौला में ऐसी ही एक तकरीरबाजी 27 जून, 1931 को हो रही थी। महाराजा हरि सिंह ने मुसलमानों की माँगों पर विचार करने के लिए प्रतिनिधिमंडल को आमंत्रित किया था।
 
 
प्रतिनिधियों के नामों की घोषणा हो गई तो एक अनजान व्यक्ति अचानक उठकर खड़ा हो गया। उसने तकरीरे करने वालों पर लानत भेजी। उसके बाद उसने मुसलमानों से कहा कि केवल तकरीरें करने से काम नहीं बनेगा। अब वक्त आ गया है कि इस हिंदू महाराजा के मोमिनों के साथ जिहाद छेड़ देना चाहिए और ताकत के जोर से महाराजा को उखाड़कर फेंक देना चाहिए और दीन के पक्के लोगों का राज स्थापित करना चाहिए।
 

Barjor dalal commission report 1931 july 
 
कश्मीर में हिन्दुओं के खिलाफ जिहाद के लिए ललकारने वाला यह अज्ञात व्यक्ति अब्दुल कादिर पठान था। सवाल आता है कि ये अब्दुल कादिर पठान कौन था ? इसको लेकर अभी भी विवाद चलता रहता है। एम.जे. अकबर उसे पंजाब का बताते हैं। जबकि लैंब उसे उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत का पठान लिखते। इस पठान के लिए माकूल माहौल पहले से ही अलीगढ़ी पार्टी ने तैयार कर रखा था।
 
 
घाटी से अफगानों का राज्य समाप्त हो जाने के बाद, पहली बार मजहब के नाम पर हिंदुओं की हत्या, फिर शुरू हुई। अब्दुल कादिर की इस हरकत के कारण पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया। उस पर श्रीनगर के केंद्रीय कारागार में मुकदमा चलने लगा। 31 जुलाई, 1931 को श्रीनगर जेल में कादिर के मामले की सुनवाई हो रही थी। बाहर एकत्रित भीड़ ने जेल के दरवाजे तोड़कर उसे छुड़ाने की कोशिश की। कश्मीर की उत्सवप्रेमी जनता किसी भी मामले में हजारों की संख्या में एकत्रित हो जाती है, यह उसका स्वभाव है, लेकिन जेल के दरवाजे तोड़ने की कोशिश यकीनन एक छोटा समूह कर रहा था, जो भीड़ में काम करने की कला जानता था।
 
 
हालांकि मामले को बढ़ता देख पुलिस को गोली चलानी पड़ी। इस गोलीबारी से 22 लोग मारे गए और अबकी बार फिर मुसलमान उपद्रवियों ने हिंदुओं की दुकानें लूट लीं और कुछ हिंदुओं की नृशंस हत्या भी कर दी। एम.जे. अकबर ने भी लिखा, “यह रियासत में सांप्रदायिकता का पहला वाकया था। लेकिन यह अब्दुल कादर नाम का पठान कौन था, उसको घाटी में क्यों लाया गया ? खानकाए मौला में उसके भाषण की व्यवस्था किसने की थी? ये सभी प्रश्न आज अनुत्तरित हैं। उसके बाद जैसे वह धूमकेतु की तरह आया था, वैसे ही प्रभात के तारे तरह छिप गया था। पठान के भाषण और उसके बाद उसके नामालूम हो जाने की बात सभी करते हैं। कहते हैं कि उसे अपना रसोइया बनाकर अंग्रेज सेनाधिकारी मेजर बोट ने 'घाटी में लाया था।
 
 
ये सभी प्रश्न आज भी अज्ञात के कोहरे में लिपटे हुए हैं। इनके उत्तर मिल जाने से हो सकता है जम्मू-कश्मीर में हुए इस तथाकथित जनांदोलन के पीछे की पृष्ठभमि का भी पता चलता। वैसे बहुत से लोग मानते हैं कि इस सबके पीछे अंग्रेजों की साजिश थी। वैसे भी इस मामले में अब्दुल कादिर खान को 5 साल कैद की सजा हुई थी, लेकिन कालांतर में जब व्यावहारिक रूप में ब्रिटिश अधिकारियों ने राज्य की सत्ता सँभाल ली तो उसे डेढ़ साल के बाद ही छोड़ दिया गया।
 

Barjor Dalal Commission Report 1931 
 
  
13, जुलाई की घटना और जांच आयोग की रिपोर्ट-:
 
 
महाराजा द्वारा निष्पक्ष जांच के लिए बनाए गए जाँच आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर लिखा है कि :-
 
 
“There can be no doubt as to loot having taken place at Maharajgunj Bazar, in Vicharnag and in other quarters of Hindu shops and houses by the Mohammadans.” — Barjor Dalal Report, 1932 
 
 
श्रीनगर में दंगे:
 
 
महाराजगंज, बोहरी कदल, अली कदल, नवकदल इन क्षेत्रों में हिंदू दुकानों और मंदिरों पर योजनाबद्ध हमला हुआ। 163 हिंदू घायल, 3 मारे गए, सैकड़ों दुकानों में आगजनी वीचारनाग और बाहरी इलाकों में स्थिति और भयानक थी। बलात्कार, मंदिरों की अपवित्रता, लूट और महिलाओं पर बर्बर अत्याचार किया गया।
 
 
ब्रिटिश लेखक जी.एस. राघवन ने अपनी किताब “The Warning of Kashmir” में लिखा:
 
 
“हिंसा इतनी संगठित थी कि श्रीनगर की सड़कों पर लूटे गए सामान के कारण कारें नहीं चल पा रही थीं। हिंदू व्यापारियों को लाखों का नुकसान हुआ।”
 
 
जम्मू संभाग: मीरपुर, राजौरी, कोटली में बड़ी संख्या में धर्मांतरण हुआ। 

राजौरी – 120 जबरन धर्मांतरण
 

भिंबर – 206
 

कोटली – 224
 
British records (Jardin to Waltiner, 1932) के अनुसार:
 
 
“31 धार्मिक स्थलों को लूटा और अपवित्र किया गया; हिंदू-सिखों की हत्याएं और जबरन धर्मांतरण की लहर चली।” यह आंदोलन कश्मीर तक सीमित नहीं था, यह पूरे डोगरा राज्य को कट्टर इस्लामी रंग में रंगने की कोशिश थी।
 
 
Barjor Dalal रिपोर्ट: निष्कर्ष और गंभीर टिप्पणियाँ
 
 
रिपोर्ट में लिखा गया कि ‘भीड़ शांतिपूर्ण नहीं थी उसने पहले पथराव और उपद्रव किया। गोलीबारी पुलिस की रक्षा में हुई, यह पूर्व नियोजित नरसंहार नहीं था। हिंदू दुकानों और मंदिरों पर हिंसा, लूट और अपवित्रता कट्टरपंथी मानसिकता का परिचायक है। 500+ जबरन धर्मांतरण को प्रशासनिक रूप से दर्ज किया गया। यानि “Kashmir Martyrs’ Day” की संज्ञा इतिहास का उपहास है।
 
NC-PDP और अन्य पार्टियों का ‘शहीद’ नैरेटिव: सच या राजनीतिक ढकोसला?
 
 
नेशनल कांफ्रेंस (NC) के संस्थापक शेख अब्दुल्ला ने सबसे पहले 13 जुलाई को "शहादत" के रूप में परिभाषित किया। उनके उत्तराधिकारी आज तक इस घटना को हिंदू विरोधी दंगे के बजाय एक ‘आज़ादी की लड़ाई’ के रूप में प्रचारित करते रहे हैं। PDP और Jamat-e-Islami जैसे दलों ने इसे धार्मिक भावनाओं से जोड़कर अलगाववाद को पोषित किया।
 
 
क्या जलियांवाला बाग़ से तुलना सही है?
 
 
बिलकुल नहीं। जलियांवाला बाग़ में ब्रिटिश सरकार द्वारा निर्दोष निहत्थे भारतीयों की हत्या हुई थी। लेकिन 13 जुलाई 1931 को मारे गए लोग कोई निहत्थे बलिदानी नहीं, बल्कि एक संगठित, कट्टरपंथी, उग्र भीड़ का हिस्सा थे जो डोगरा शासन के खिलाफ धार्मिक जुनून से प्रेरित थी और जिसने हिंदुओं को निशाना बनाया।
 
 
13 जुलाई 1931 की घटना को Kashmir Martyrs' Day कहकर पेश करना न सिर्फ इतिहास के साथ धोखा है, बल्कि हिंदू समुदाय के घावों पर नमक छिड़कना है। यह दिन: कश्मीर में कट्टरपंथ के उभार का प्रतीक है। हिंदू समाज पर हिंसा और धर्मांतरण की पहली लहर का परिचायक है और एक ऐसा ‘ब्लैक डे’, जिसे शहादत की आड़ में राजनीतिक तौर पर भुनाया गया।
 
 
सवाल:
 
 
क्या 'Kashmir Martyrs' Day' की छुट्टी बहाल होनी चाहिए?
 
क्या किसी भीड़ द्वारा फैलाई गई साम्प्रदायिक हिंसा को शहादत कहा जा सकता है?
 
क्या जबरन धर्म परिवर्तन और मंदिरों की अपवित्रता को 'आज़ादी की लड़ाई' कहना न्यायसंगत है?
 
क्या इन घटनाओं को इतिहास के काले पन्नों में दर्ज नहीं होना चाहिए?
 
 
केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर ने 2020 में इसे राजकीय अवकाश की सूची से हटाकर एक साहसिक निर्णय लिया है और यह निर्णय सच्चाई के आधार पर लिया गया, न कि वोटबैंक की मजबूरी से।