जवाहरलाल नेहरू के लिए अक्सर कहा जाता हैं कि वे शिक्षा से अंग्रेज, संस्कृति से मुस्लिम और दुर्भाग्य से हिन्दू थे। दरअसल यह हिन्दू महासभा के बी.एस. मुंजे ने नेहरू के लिए कहा था। हालाँकि, कई इतिहासकारों और लेखकों ने मुंजे के इस कथन का समर्थन किया हैं। बी.आर. नंदा अपनी पुस्तक ‘गोखले, गाँधी और नेहरू’ में लिखते हैं, “उन्होंने कभी नहीं छुपाया कि उन्हें धर्म से नफरत हैं।” इसका एक उदाहरण साल 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में मिलता हैं। अपने अध्यक्षीय भाषण में नेहरू हिन्दू धर्म में पैदा होने का जिक्र करते हैं। अगले ही पल वे कहते हैं, “मुझे नहीं पता कि मैं खुद को हिन्दू कहने और उनकी तरफ से बोलने के लिए कहा तक जायज हूँ?”
ऐसा क्या था कि वे खुद को हिन्दू कहने से इनकार करते रहे। इतिहास में थोडा पीछे जाने पर इसका जवाब भी मिलता हैं। आर.सी. मजूमदार ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ द फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया’ में एक पत्र का उल्लेख किया हैं। यह सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया, जॉर्ज हेमिल्टन ने वायसराय एवं गवर्नर जनरल ऑफ़ इंडिया, जॉर्ज कर्जन को 9 अगस्त, 1899 को लिखा था। इसमें हेमिल्टन लिखते हैं, “मुझे लगता है कि भारत में हमारे शासन को वर्तमान में नहीं बल्कि अगले 50 सालों में ख़तरा होगा। अगर हम शिक्षित हिन्दूओं को दो हिस्सों में विभाजित कर सके, जिनके विचार अलग हो जाए, इससे हम अपनी स्थिति मजबूत कर सकेंगे।”
स्वतंत्रता आन्दोलन में नवगोपाल मित्र, बंकिम चन्द्र चटर्जी और राजनारायण बोस जैसे नाम सामने आते हैं। इन्होनें अपने आप को हिन्दू कहा लेकिन धार्मिक अनादर और पक्षपात की कोई मिसाल पेश नहीं की। ब्रिटेन से पढाई कर भारत वापस लौटे, नेहरू ब्रिटिश सरकार की उस नीति का शिकार हो गए। अपनी किताब ‘जवाहरलाल नेहरू एन ऑटोबायोग्राफी’ में वे धर्म के प्रति अपनी संदिग्ध धारणा बताते हैं। फिर भी हिन्दू-मुसलमान पर चर्चा करना कभी नही भूलते। कांग्रेस के अध्यक्ष और मुस्लिम लीग के संस्थापक सदस्य एवं अध्यक्ष रहे मोहम्मद अली से वे इस कदर प्रभावित थे कि उनसे घंटों चर्चा करते थे। दूसरी ओर जनवरी 1924 में कुम्भ के आयोजन के समय ब्रिटिश सरकार ने संगम में नहाने पर रोक लगा दी थी। मदन मोहन मालवीय और प्रांतीय सरकार आमने-सामने थी। अपनी आत्मकथा में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के पक्ष को ही जायज करार दिया हैं।
जल्दी ही नेहरू ने कांग्रेस में अपने पिता मोतीलाल नेहरू की विरासत को संभाल लिया। अब उनके विचारों में एकतरफा कट्टरता अधिक उभरकर सामने आने लगी थी। वास्तव में उनके व्यवहार ने भारत में धर्म-निरपेक्षता की एक अलग ही परिभाषा को जन्म दिया। फ्रैंक मोरेस अपनी किताब ‘जवाहरलाल नेहरु ए बायोग्राफी’ में इसका एक जिक्र करते हैं, “बात 1939 की हैं, जब नेहरू सीलोन (श्रीलंका) के दौरे पर थे। वहां मेजबान एक भारतीय ही थे। कोलोम्बों में उनके भोजन की व्यवस्था एक मंदिर से सटे हुए हॉल में की गयी थी। रात्रि के भोजन के समय, मेजबान ने मासूमियत से संकेत किया कि हमें मंदिर जाना होगा। नेहरू ने नाराजगी के साथ कहा, ‘मंदिर!’ वे चीखे, ‘क्या मंदिर? क्यों?”
मोरेस लिखते हैं कि जो नेता अगर अपने भाषण से पहले भगवान का जिक्र कर देता था तो उससे भी नेहरू को समस्या थी। एक अन्य घटना का जिक्र उनकी इसी किताब से मिलता हैं। साल 1940 में महात्मा गाँधी से मिलने नेहरू उनके सेवाग्राम आश्रम गए हुए थे। मुलाकात के बाद जब वे उठकर चलने को तैयार हुए तो कस्तूरबा गाँधी ने यह कहते हुए आशीर्वाद दिया कि भगवान हमेशा आपके साथ हैं। त्वरित मुस्कान के साथ नेहरू एकदम पीछे मुड़े और जानबूझकर बोले, “भगवान कहा है, बा? अगर वह है तो पक्का गहरी नींद मे सोया हुआ हैं।”
स्वतंत्रता से कुछ दिनों पहले यानि 7 अगस्त, 1947 को प्रधानमंत्री नेहरू को संविधान सभा के अध्यक्ष, डॉ. राजेंद्र प्रसाद से एक पत्र मिला। डॉ. प्रसाद चाहते थे कि हिन्दूओं के सम्मान के लिए देश में गौ-हत्या पर रोकथाम होनी चाहिए। वे इस ओर प्रधानमंत्री को ध्यान दिलाना चाहते थे। नेहरू ने उसी दिन उन्हें रुखा सा उत्तर दिया और उनके सुझावों को मानने से इनकार कर दिया। साल 1959 में रफीक जकारिया ने ‘ए स्टडी ऑफ़ नेहरु’ किताब का संपादन किया। इसमें बताया गया हैं कि सरदार पटेल भी नेहरू की इस अयोग्य धर्म-निरपेक्षता से बिल्कुल खुश नहीं थे।
एन.वी. गाडगिल अपनी किताब ‘गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड’ में कुछ ऐसा ही लिखते हैं, “सरदार ने एक बार, मजाक के तौर पर, लेकिन तीखेपन में कहा कि अकेला राष्ट्रवादी मुसलमान इस देश में अगर बचा हुआ हैं तो वे जवाहरलाल नेहरू हैं। सरदार पटेल के सहयोगी रहे वी. शंकर ‘माय रेमिनिसेंस ऑफ़ सरदार पटेल में लिखते हैं, “इसमें कोई दोराय नहीं हैं कि नेहरू की धर्म-निरपेक्षता से ज्यादा सरदार पटेल की सोच लोकप्रिय थी। दुर्भाग्य से सरदार का निधन 15 दिसंबर, 1950 को हो गया। अब सरकार और कांग्रेस दोनों में नेहरू ताकतवर हो गए।
तथ्य बताते हैं कि नेहरू ने धर्म-निरपेक्षता जैसे शब्दों का गलत इस्तेमाल किया। सत्ता पाने के लिए उन्होंने इसकी परिभाषा और मायने ही बदल दिए। वे तर्कसंगता का उपयोग करने के बजाय इच्छाओं और पूर्वाग्रहों को अधिक महत्व देते थे। एस. गोपाल द्वारा सम्पादित ‘सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू’ के 18वें खंड में इस बात की भी पुष्टि हो जाती हैं। सी.डी. देशमुख को 22 जून, 1952 को लिखे एक पत्र में नेहरू कहते हैं, “आज राजनैतिक और अन्य विवादों में जाने-माने शब्दों और वाक्यांशों के विकृतिकरण से मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता। मुझे लगता है कि हर लोकतंत्र ऐसा करता हैं।”